Wednesday, September 20, 2017

पूस की रात


लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

घर की छुटकी के
गाल भयल लाल है

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

अबकिल देवर जी
शादी को बेकरार हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

मंहगाई से भउजी
की सांस चढ़ी जात हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

भईयाजी जी अबकिल
छींकत ही चले जात हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

बबुआ के सर्दी के
बाद इन्तेहान हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

कोहरे की मार से
फसल भयल बेकार है

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

हाथन में हसुआ
कटनी को बेकरार है

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

मोठे कोट वाले
जमीदार जी (नेता जी) की ठाट है 

Thursday, June 15, 2017

एक छूरे को हाथ में रख कर

एक छूरे को हाथ में रख कर जी करता है
की हवा में उसे जोर से घुमाऊं
तेज धार का स्वाद चटाऊ
और तभी कूद आती है दुनिया जहाँ
फैला होता है दूर तक खून
और सब दुश्मन,
जिनसे मैं बिना जाने नफरत करता हूँ

क्योंकि एक छूरे को हाथ पे रख कर
जी करता है कुछ ऐसा
की मैं बन गया हूँ
योद्धा सत्य का
और सारे झूठ मुझपे हमला बोल रहे हैं
कर्त्तव्य से बंधा मैं
कत्ले आम कर रहा हूँ

क्योंकि एक छूरे को हाथ पे रख कर
पता नहीं क्यों ऐसा ख्याल नहीं आता
के मैं जमीन फाड़ कर
कुछ बीज बोऊँ
और उनसे नीलकले पेड़ों की लकड़ियों पर
गुदुं अमन की कवितायेँ

क्योंकि एक चूरे को
हाथ पे रख कर
कभी ऐसा जी नहीं करता की
काटूं ऐसी फसल
जो भर सके झोले पेट के
बना सके पर्याप्त श्रम
और कई और छूरे
फसल काटने के लिए

क्योंकि एक छूरे को
हाथ पे रख कर
मेरा जी बन जाता है एक शीशा
एक अक्स चमकाता
उस हुकूमत का
जिसने कब्ज़ा कर लिया है
मेरा अचेत संसार
वो आवाज सा जो गूंजती हो है
पर सामने नहीं आती
उस समाज सा
जो उगती हुई फसल सा
दिखाई तो देता है
पर उगता हुआ
महसूस नहीं होता

क्योंकि अब मुझे छूरे को उठाने भर से डर लगता है
के आखिर कोण सा ख्याल आ कर मुझे खा जाएँ

क्यों ? क्या आपको भी छूरा उठाने से डर लगता है क्या ?  

एक अजीब कला होती है भूल जाने कि

एक अजीब कला होती है भूल जाने कि 
                     न याद रखने की, न याद रहने कि

पर मौसम हमें याद दिलाने के लिए
                    बार बार आते हैं, और हम भूलते रहते हैं

जैसे गिरा पानी सूखने लगता है हवा चलने पर

पानी का सूखना समय के बीतने का एहसास दिलाता है
और न सूखने वाला समंदर समय का

समय, जिसके अंदर न जाने कितने जीव एक साथ पानी पी रहे होते हैं

समय से थोड़ा पानी मैंने भी चुरा रखा है
पर रखा पानी समय नहीं है
और न ही वो बीता समय है

वह बस व्यर्थ है
उसका अर्थ मेरे जेहन में तैरता रहता है
कहीं भी पानी में तैरने जैसा
मैं अकेला हूँ पानी में तैरता हुआ

और मेरे अकेले होने में भी है बहुत कुछ
न अकेले होने जैसा
                         व्यर्थ

भूली हुई चीजें कहीं तो इकट्ठा होती होंगी न ?
बहुतों ने उन्हें खोजने की कोशिश की है
भूली हुई चीजें कहीं तो इकट्ठा होती होंगी
मेरा विश्वास है

वो शायद जम जाती होंगी
बर्फ सी मोटी मोटी सिल्लियों में
ऊंचे चट्टानों पे जहां कोई नहीं रह सकता
हाँ वो जम जाती होगी
क्योंकि मैं इतना तो जानता हूँ
वो टूटती हैं एक दम कांच की तरह
चकनाचूर होने के लिए
उन धागो की तरह नहीं
जो टूटने पर आवाज नहीं करते
वो टूटती हैं नींद की तरह
ख्वाब की तरह
जिनकी आवाज तो होती है
पर सिर्फ मुझे सुनाई देती है
उनकी धार महसूस होती है कहीं
जब कोई अचानक गहरी नींद से जगा देता है
कहीं अंदर माथे के
महसूस होता है
बहुत गहरा घाव
और उसके बीच में बहता हुआ
लहू सा ख्वाब
भाप होता रहता है
सूखता हुआ
समय के बीतने का
एहसास देता हुआ।

मेरा दिमाग एक समंदर हो चूका है
क्योंकि अक्सर वहां समय नहीं बीतता
बस कुछ चीजें आगे पीछे हिलती रहती हैं
लहरों की तरह
चढ़ते रहना चाहती हैं एक दूसरे पे
जैसे एक ख्याल दूसरे पे चढ़ता रहता है।
मेरा दिमाग एक समंदर हो चूका है
जहाँ इसी उथल पुथल के बीच
कुछ पानी सड़ता रहता है
सड़ना कितना मुर्दा शब्द है न
जैसे कुछ मर गया हों
पर सड़े पानी में पनपते है नए जीव
जो छोटी छोटी कहानी बन जाते हैं
वो जीव जो आपस में एक दूसरे को खा जाते हैं
और रच देतें हैं एक महा उपन्यास
जीवन

वो फेफड़े ऊगा
पैरों को खोल
उठ आते हैं जमीन तक
                   कला तक

वाकई ये सच है
एक अजीब कला होती है भूल जाने कि 
                     न याद रखने की, न याद रहने कि








Monday, May 8, 2017

परसाई के लेखों में दिखने वाला आदमी २

मुझे ये कहने की जरूरत नहीं की कुछ आदमी बुरे भी होते हैं। बुराई अपने आप में सार्वलौकिक है। बुराई कुछ इस हद तक हावी है के बहुत से दार्शनिक तो आपकी अच्छाई की बुराई भी दिखा देंगे। जमाना हमेशा से बुराई का था और बुराई का है बस भविष्य ही अच्छाई का होता है। परसाई जी का जमाना भी बुरा ही था। तो उनके लेखों में भी बुराई की चर्चा दिखती है। उनके ज्यादातर लेखों एक पात्र जरूर बुरा होता है । ये बुरा आदमी पूरा बुरा है।  रत्ती भर भी अच्छा नहीं। ये स्वार्थी है, निर्लज है। उसकी निर्लाजता ही उसके व्यक्तिव्य का व्यंग है। ये आदमी अक्सर परसाई जी के घर आता है उनसे अपना दुःख बाटने।  बताने, के दुनिया कितनी बुरी हो गयी है। जमाना बरबाद हुए जा रहा है और ये व्यक्ति इसी विचार से कितना चिंतित है। परसाई अक्सर उनसे ठग लिए जाते है - कबीरा आप ठगाइये। परसाई अपनी लाचारी को उनकी लाचारी से छोटा मानते हुए व्यंग करते हैं। बताते हैं की ये सुविधाभोगी कितना कास्ट सह रहा है।  उसके लाखों की कमाई में हराजों की कमी परसाई के फुटकरों से कितनी अधिक है। और इसी लिए उसका दर्द भी ज्यादा बड़ा है।

परसाई अपनी व्यंग की लाठी क्रूर तंत्र पर नहीं भजते, वो व्यक्ति के व्यक्तित्व की आलोचना करते हैं।  वह दिखाते है की एक ही आदमी प्याज सा कितनी परतें ओढ़े हुए है। अपनी सुविधाओं को बचाता हुआ वह कितने ढोंग रच रहा है।  उसे इन सब का एहसास है, पर वह चालक है , पर सरल बने रहने की पूरी कोशिश कर रहा है।

इस काले आदमी ने बहुत से रूप में परसाई को सताया है।  वह सिर्फ एक कुटिल राजनेता के रूप में प्रकट नहीं होता। वह अक्सर उनका सहायक भी होता है जो अपने नेता की हर बात मानता है। वह इस हद तक आमादा है की परसाई की टूटी टांग पर भी राजनीती खेलता है। वह काला आदमी कभी भुद्धिवादी भी होता है जो किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है और अपनी जाती का गुट बना अपने पद को बचाये हुए है। वह बड़ी दार्शनिक बाते करता है और दूसरी ओर आगबबूला हो उठता है जब उसकी बेटी दूसरी जाती के लड़के से प्रेम कर बैठती है। प्रेम से भी इस काले आदमी को कुछ खास हमदर्दी नहीं है। उसका प्रेम भी खोखला है और स्वार्थ से भरा है।  इस काले किरदार का प्रेम महज एक 'सिक्सटीज का मेलोड्रामा' है जिसमे वह अपनी महबूबा के इन्तेजार में सिगरेट पिता हुआ उसकी राख कॉफ़ी में मिला पी जाता है। उसका अवसाद बनावटी है।  वह ये मान के चलता है की उसकी प्रेमिका सामाजिक अभिमतों के कारण उससे विवाह नहीं करेगी। पर जब उसकी प्रेमिका उससे विवाह करने को राजी हो जाती है तो वह सकपका के बीमारी का बहाना बना उसे अपनी बेहेन बना लेता है। ये काला आदमी समाजवादी क्रांति भी चला चूका है और अक्सर अकेलेपन में फुट के रो पड़ता है। अफ़सोस में, क्योंकि वह उस क्रांति से कुछ हासिल नहीं कर पाया अपने लिए। ऐसी क्रांति और क्रांतिकारियों को परसाई ने बड़े ही कुशलता से "सड़े आलू का विद्रोह" में प्रस्तुत किया है । वह कहते हैं -

   सड़ा विद्रोह एक रुपये में चार किलो के हिसाब से बिक जाता है।

परसाई अक्सर इस काले व्यक्तिव को दर्शाने के लिए लोक कथाओं और धार्मिक ग्रंथो का सहारा भी लेते हैं। ये उनका समझा बुझा हुआ कदम है। वो धार्मिक कथाओं में व्यंग जोड़ कर उन्हें समकालीन कर देते है। उससे कहानी ना सिर्फ और प्रभावशाली बनती है बल्कि और प्रासंगिक भी होती है। वो ऐसी कथाओं से इन ग्रंथो का मजाक नही उड़ाते। वो मानते थे की अगर एक साधारण व्यक्ति को समाजशास्त्र या राजनितिक शास्त्र समझाना है तो उसे उसी के समाज और संस्कृति के उदाहरण देने होंगे। धार्मिक और लोक कथाएं महज एक माध्यम है। सुदामा के चावल , वो ख़ुशी से नहीं रहे, बेताल छब्बीसी, राम का दुःख और मेरा जैसी अनेक कहानियों में ऐसे ढांचे का प्रयोग किया है। इन सभी कहानियों में ये काला किरदार बार बार आता है। इस किरदार को कृष्ण, हातिम ताई, विक्रम जैसे लिबास में देखना अटपटा लगता है पर ये हमारे अंदर छिपे पछपात को सवाल भी करता है। परसाई के व्यंग की यही बारीकी उन्हें अनूठा बनाती है।

     एक काला आदमी है। एक सफ़ेद आदमी है। सफ़ेद की स्वार्थहीनता उसे सफ़ेद बनाता है और काले का स्वार्थ उसे और काला। ये दोनों किरदार अलग अलग रूप में परसाई की कहानियों में मिलते हैं और धुमैली सी तस्वीर बनाते हैं परसाई की। इन सब को पढ़ने लिखने के बाद एक सवाल जरूर उठता है - परसाई खुद क्या थे ? सफ़ेद या काले ?



परसाई की कहानियों का आदमी - नंबर १

समाज में कुछ लोग अच्छे भी होते हैं । समूचे जग में तमाम आडंबर के बीच एक छोटा तबका इन अच्छे आदमियों का भी होता हैं। ये आदमी स्वाभाव से कैसे भी हों दिल से अच्छे ही होते हैं । किसी का बुरा नहीं चाहते , या यूँ भी कहा जा सकता हैं की ये सबका अच्छा चाहते हैं । उनको लगातार एक सनक सी होती हैं समाज को सुधरने की , अंत तक मदद करते जाने की। ये उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है, पाखंड नहीं। वह अक्सर फकड हालत में पाए जाते हैं। कुछ अलग से, विलक्षण।जीवन यापन दूसरों की दया पर, आभार पर। पर उनके जुझारूपन में यह सब कुछ छुप सा जाता है । लोगो की नजर में कभी वो पागल होते हैं , कभी एक आसान शिकार होते हैं तो कभी स्वार्थी तक हो जाते हैं। वैसे ऐसे व्यक्ति स्वार्थी तो होते ही हैं, बिना स्वार्थ कोई अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को छोड़ समाज के बारे में इतना नहीं सोच सकता।

ऐसे आदमी हरिशंकर परसाई की कई कहनियों के प्रमुख पात्र रहे हैं। ये कहानियाँ व्यक्ति प्रमुख होती हैं। इनमे नायक का लम्बा परिचय होता हैं और कई किस्सों और छुट पुट कहानियों से उसके व्यक्तित्व को समझाया जाता है। ये व्यक्ति स्वाभाव से आक्रमक या सहज दोनों हो सकता है मगर उसके स्वाभाव के नीचे एक असंतोष छुपा रहता है , जो रह रह कर कभी कभी प्रकट भी होता है। इस नायक को बिना नाम दिए "असहमत " में परसाई ने बड़ी खूबी से रेखांकित किया है। नायक की असहमति ही उसकी पहचान है और सहमत होता व्यक्ति उसकी असहमति का शिकार है। हर एक सहमति दूसरी आसहमति हो जन्म देती है और ये प्रक्रिया चलती रहती है। जबतक असहमत सहमत नहीं हो जाता और सहमत असहमत। यह सब जानते हुए भी परसाई ऐसे व्यक्तियों के लिए सहानभूति रखते हैं।उनकी कहानियों में ऐसे व्यक्ति उन्हें अक्सर अपाहिज कर देते हैं जिन्हे वह न चाहते हुए भी मदद करते रहते हैं। मिसाल के तोर पे  "पुराना खिलाड़ी" रचना में परसाई एक घटना को कुछ यूँ बताते हैं  -

 " एक दिन वह अचानक आ गया था। पहले से बिना बताए, बिना घंटी बजाए, बिना पुकारे, वह दरवाजा खोलकर घुसा और कुर्सी पर बैठ गया। बदतमीजी पर मुझे गुस्सा आया था। बाद में समझ गया कि इसने बदतमीजी का अधिकार इसलिए हासिल कर लिया है कि वह अपने काम से मेरे पास नहीं आता। देश के काम से आता है। जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीजी का हक है। देश-सेवा थोड़ी बदतमीजी के बिना शोभा नहीं देती।"

"पुराना खिलाड़ी " महज मुलाकातों तक सीमित नहीं रहता, वो परसाई के घर पर बिना किराए चार माह रहता हैं और जाते जाते उनसे कुछ नकद पैसे भी ले जाता हैं। परसाई इन सब के बवजूद अपने व्यंग्य से उसका समर्थन करते ही दीखते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए विशेष स्थान हैं परसाई की नजरों में। इसकी वजह शायद उस व्यक्ति की असन्तुस्टी ही हैं जो उसे बार बार निरस्वार्थ सामाजिक चिंतन को मजबूर करती हैं। ऐसे व्यहवार के पीछे कोई आर्थिक स्वार्थ नहीं छुपा। इसी लिए शायद परसाई उनके अलहड़पन को वो निर्विरोध स्वीकारते हैं। मेरी नजर में परसाई के ऐसे बर्ताव की एक और वजह भी हो सकती है। ऐसे निष्पक्ष किरदार अपनी असन्तुस्टी से परसाई के आतंरिक मनोभाव का प्रतिनिधित्व करते हैं। परसाई के लेखों से अगर व्यंग्य निकाल कर देखा जाएँ तो ये असन्तुस्टी साफ़ दिखाई देती है। इसे यु भी कह सकते हैं की महज परसाई का व्यंग ही उन्हें उनके इस नायकों से अलग करता हैं। परसाई खुद को ऐसे किरदार से काफी करीब पाते हैं । या शायद परसाई खुद ही वो किरदार हैं ।

परसाई इन किरदार का व्यंग्यात्मक रूप से एक और पहलु भी प्रस्तुत करते हैं। वो दिखाते हैं की कैसे यह आदमी अपने विचारों से अपने आस पास के लोगों को परेशान कर देता हैं। "मनीषी जी" भी एक ऐसे ही किरदार हैं। वो सिद्धांतो के पक्के हैं और समाजसुधार के लिए प्रतिबद्ध। मगर उनके भी कई प्रयास लोगो को अखरते हैं ।

"एक बार अनाथालय से भागी हुई तीन-चार तिरस्कृत और लांछित लड़कियाँ मनीषी के आश्रम में आई । मनीषी ने उन्हें 'धर्मपुत्री' मान लिया। दो चार दिन में उनके यहाँ 'धर्मपुत्र' भी आने लगे और जब इन 'धर्मपुत्रों' ने उनकी 'धर्मपुत्रियों' को 'धर्मपत्नियाँ' बनाने का उपकर्म किया तो मुहल्लेवालों ने बड़ा हल्ला-गुल्ला मचाया । वो लड़कियाँ 'धर्मपिता' को छोड़कर भागीं । अभी भी मनीषी बड़े दर्द से धर्मपुत्रियों को याद करते हैं। "

" मनीषी जी" जैसे नायक बार बार "रामदास ", "वह क्या था ", " निठल्लेपन का दर्शन " जैसी अनेक कहानियों में उठ आते हैं।ऐसे मिले जुले निरूपण से परसाई की कहानियाँ अंत में अपने इन नायकों के बारे में कुछ ऐसा छाप छोड़ती हैं जहाँ उनके लिए सहानभूति भी होती हैं और उनके रवैये से छटपटाहट भी।

हरिशंकर परसाई, हिंदी साहित्य में दोधारी तलवार के सबसे सक्षम योद्धा हैं। उनका व्यंग्य ही इसका प्रमाण हैं। उनकी कहानियों में किरदार सफ़ेद या काले रंग में दिखाए जाते हैं। पर उनके साहित्य का भूरा रंग देखने के लिए सम्पूर्ण साहित्य को एक साथ देखना जरूरी हैं। इस लेख में मैंने उनकी रंगावली के सफ़ेद किरदारों को छूने की कोशिश की हैं।

यह लेख परसाई की कहानियों में उजागर होने वाले किरदारों का चरित्र विश्लेषण करने का एक प्रयास हैं। ये विश्लेषण उनकी लघु कथात्मक व्यंग्य रचनाओं से प्रभुत्वता प्रेरित हैं। इन लेखों को मैं एक क्रमबद्ध तरीके से प्रकाशित करूँगा। उम्मीद करता हूँ की आपको इस शृंखला का ये पहला लेख पसंद आएगा। धन्यवाद।




धरोहर - शमशेर बहादुर सिंह

हर बारिश में दो तरह की बूंदे होती हैं, एक मोटी भारी सी जो सीधे हवाओं को चीर कर जमीं पर पटक जाती है और दूसरी नन्ही हलकी लेहराहती सी, जो चुपके से आ, बैठ कर, गुदगुदाती है।  शमशेर की कवितायेँ कुछ ऐसी ही हलकी बूंदो सा अपने पाठकों को छूती है। उनके जिस्म में एक रूह के होने का एहसास दिलाती। उन लम्हों का एहसास दिलाती, जिन्हे जिया तो गया है पर जेहेन के किसी कोने में मुड़े टुडे कागज सा फेक दिया गया है।  उनमे दर्द है। एकालाप है । और बहुत सी गूंज । 

शमशेर बहादूर सिंह, एक ऐसे कवि थे जो समाज से ज्यादा जिंदगी और जिंदगी से ज्यादा खुद के करीब की कवितायेँ लिखते थे । वो अपनी कविताओं को काफी निजी रखते थे । इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि साहित्य से इतने लम्बे जुड़ाव के बावजूद भी उनका उनकी कविताओं का पहला संख्लन १९५६ में प्रकाशित हुआ। वो मानते थे की कला एक निजी अनुबूति है, प्रचार की चीज नही। उनकी इस निजीपन की परछाईं उनकी कविताओं में साफ़ देखि जा सकती है।

"मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
            जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल
            एक कण।
- कौन सहारा!
            मेरा कौन सहारा!
"

 इसी एकाकीपन का नतीजा है की उनकी कविताओं में एक ऐसा दर्पण मिलता है जिससे हर कोई जुड़ पाता है। उनकी अभिव्यक्ति की सरलता, विशय की गंभीरता और अर्थ की गहराई उनके अनुभवों की विशालता का परिमाप देती है। उनकी पंक्तियाँ "टूटी हुई बिखरी हुई " है, मगर अधूरी नहीं । उनमे दर्द है निराशा नहीं । अवसाद है अवसान नहीं । उनमे बारीकी है । प्रेम है । वो मांगती है मगर छीनती नहीं ।

"हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
           ...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
           जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।"


अपनी कविताओं में शमशेर कभी "एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता" सुबह को शाम से मिलाता, तो कभी काल से होड़ लेता जीतता हारता, कभी चलता है "लेकर सीधा नारा", तो कभी गाता है "अमन का राग" बाहों में दुनिया को बांधते हुए। उनके अंदर का सहज प्रेम उनके मार्क्सवादी आक्रोश के साथ प्रतिवाद नहीं करता। दोनों बल्कि मखमली रेशम की तरह एक दूसरे में बारीकी से घुल-मिल कर एक सुनेहरा दृश्य बनाते है। शमशेर विचारों से प्रगतिशील थे और आदत से प्रयोगवादी। उनकी कई कविताओं में 'इम्प्रेशनिस्म' और 'सुर्रियलिस्म' की प्रचूड़ता है । " दिन किशमिशी रेशमी गोरा " जैसी कविता में दिन का ऐसा चित्रण इंसान के मानसिक इन्द्रियों के बटवारे को नाही सिर्फ झगझोरता है बल्कि उसकी सोच को भी मरोड़ता है । वहीं  "बैल" जैसी कविता में, नीरस समाज पे गुस्सति, तरस खाती हालातों पर बड़े सहजता से टिपड़ी की है । उनकी कविताओं में जिंदगी के उन छोटे मगर गहरे लम्हों का इतना सुन्दर दृश्य स्थापित करती हैं के कभी कभी विश्वास नहीं होता के इन भावनाओं की इतनी सरलता से भी व्याख्या की जा सकती है।

शमशेर हिंदी और उर्दू के बीच की वो समतल जमीन है जहा की हरी गीली घास पर बेझिझक दौड़ा जा सकता है | उनकि दोनों भाषाओं की कमान हमें ये छूट देती है। ये घुलिमिली सी जुबान उनकी कल्पना को और भी उजागर करती है। शमशेर की कविताओं में कोई पछपात नहीं है। किसी विचारों का आभाव नहीं है। अगर कुछ है तो बस कला, रंग, राग और एक आवाज। आवाज जो चिल्लाती नहीं, समझाती नहीं। एक आभास देती है। शमशेर की कार्यशाला में आइने हैं, बहुत से आइने, जो सिर्फ बिम्ब नहीं बनाते, वो कैनवास भी हैं, या शायद शमशेर खुद!
"आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
           मुझे लिखो और मुझे पढ़ो।
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो।
आईनो, मैं तुम्‍हारी जिंदगी हूँ।"

शमशेर एक चौड़े पाट वाली बहती नदी हैं जिसका श्रोत निराला और मुक्तिबोध में है मगर कोई छोर नहीं। वो एक खुला महासागर हैं, जिनके कोनो को नापना अभी बाकि है। शमशेर अद्वितीय हैं। शमशेर अतुलनीय हैं। क्योकि शमशेर सहज भी हैं, तो शमसेर प्रगतिशील भी हैं, शमशेर में मार्क्सवाद भी हैं, तो एक अकेलापन, जिंदगी से नजदीकी भी। इसके चलते शमशेर को किसी कठघरे में बाटना मुमकिन नहीं । मुझे लगता है, अगर साहित्य के इतने बटवारे के बाद, कोई जमीन बचती है, अंटार्टिका सी, जहां किसी का राज्य नहीं। तो शायद वहां शमशेर हैं। एक कवि कविताओं का । सिर्फ और सिर्फ कविताओं का । जिसको सिर्फ उसी की रचना से समझा जा सकता है।


कवि घंघोल देता है
    व्यक्तियों के जल
हिला-मिला देता
      कई दर्पनों के जल
जिसका दर्शन हमें
    शांत कर देता है
और गंभीर
अन्त में।

इस संकलन में शमशेर को समेट पाना नामुमकिन है। इतने से कागज में शायद उनकी परछाईं ही अट पायेगी और यही मेरी कोशिश है। उनके शब्दों के बीच की दरारों में , पंक्तियों से बटी खाइयों में, अर्थ की तलाश में उतरना मुश्किल भी है और रोमांचकारी भी।  उम्मीद करता हूँ आप उसे महसूस कर पाएंगे।


धरोहर - बाबा नागार्जुन

बाबा नागार्जुन का काव्य संग्रह अद्वितीय है इसमें कोई दो राय नहीं है । बाबा नागार्जुन का काव्य क्यों अनूठा था इस लेख में मैं इसकी चर्चा भी करूँगा। मगर इन सब कारणों से ज्यादा जरूरी एक सवाल ये भी है के आज के युग में कहाँ है नागार्जुन?

बाबा नागार्जुन की कविताओं की आवाज में फुहरपन है। इस बात को इस सदी के सभी आलोचक मानते हैं। कोई इसे गाओं का अल्हड़पन , बीहड़पन कहता है तो कोई खड़ी बोली का प्रभाव । इन सब का प्रमुख श्रोत मैथली और भोजपुरी के शब्दों का सचेत प्रयोग है। नागार्जुन का काव्य, लोक साहित्य के आँगन जैसा ही जो शहरों से भी दीखता है। नागार्जुन की ये कोशिश जन चेताना में प्रबल है, सफल है। निस्संदेह वो एक सफल जन कवी हैं। जन की बोली को जन चेतना से जोड़ते हैं। ऐसी कविताओं में वग्मिता का न होना असम्भव है । इन सब के ऊपर उनके कविताओं के बिम्ब उनके दर्शन से इतने विषम होते है के एक अटपटा सा आभास देते हैं। ये बिम्ब उनका एक ऐसा चित्रण करते हैं जिसमे वो एक विद्वान गवार से दीखते हैं। जिसने एक हाथ से कंधे पे रखे हल को थाम रखा है और दूजे से कलम को। जिसके मुख से निकले फुहार से सब्द सत्य की परिभाषा हैं। इन्ही कारणों से वो साहित्य में अनाथ से लगते है और शायद इसी लिय एक अलग काव्य शैली का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। एक ऐसी काव्य शैली जिसके चलते उन्हें अपने प्रारंभिक साहित्यिक काल में स्वीकृति प्राप्त करने में वक़्त लगा मगर अने वाले वक़्त में उस काव्यस्वर को एक अलग स्थान मिला। ऐसा स्थान जहां जहाँ श्रोता के रूप में पहुंचना सरल है मगर कवी के रूप में अत्यन्त कठिन।

नागार्जुन के साहितिक जीवन की शुरुवात एक "यात्री" के रूप में हुयी। उन्होंने भारत के अलग अलग हिस्सों में सफर किया और जीवन भर एक "यात्री" रहे । इस यात्री ने अनेक विचारधाराओं को स्वीकारा, परखा और त्यागा। अलग अलग आंदोलनों का हिस्सा बना। विचरदरओं में बह कर आखें बंद कर लेना उन्हें स्वीकृत नहीं था। इसी लिए जब भारत की डगमगाती वामपंथी विचारधारा से उनका पाला पड़ा तो उन्होंने सवाल करा -

क्या लाल ? क्या लाल?
मेरी रोशनाई लाल !
आपकी कलम लाल !
इनकी किताब लाल !
उनकी जिल्द लाल !
किसी के गाल लाल !
किसी की आँखे लाल !
क्या लाल ! वह लाल !

ऐसी अपने से साभिप्राय बहार जाने की प्रवृति ने उनके काव्य को विषम और विशाल बनाया। इस प्रवृति का ही असर है जो उन्हें प्रभुत्व आलोचक कवी के रूप में भी उभारता है। उन्हों ने  महात्मा गांधी, नेहरू, इंद्रा और जयप्रकाश तक तो अपनी कविताओं में फटकारा है। गांधीवाद से लिप्त भारत पर, महात्मा गांधी की सौवीं पुण्यतिथि पर कहते हैं

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!

सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!

ये छवि उनकी अनेक कविताओं में दिखती है। कभी इंग्लैंड की महारानी के भारत भ्रमण पर व्यंग करते हुए कहते है "आओ रानी " तो कभी बाल ठाकरे की राजनीती को ललकारते हुए बोलते है "बर्बरता की ढाल ठाकरे"। उनकी आलोचना का पैमाना इतना कठोर है की वो कभी कभी अपनी खुद की आलोचन भी करते हैं

प्रतिबद्ध हूँ, संबद्ध हूँ, आबद्ध हूँ लाख-लाख मुखड़ों के तरुण हुलास में…
आबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा आबद्ध हूँ!

उनकी आलोचन को ईधन देता है उनका व्यंग। नागार्जुन का व्यंग निर्भय है। नागार्जुन के व्यंग पर नामवर सिंह कहते हैं "व्यंग की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है "। कविताओं का छंदों में लिखा जाना और उसके ऊपर उपहासजनक व्यंग, लोरियों सा सुनाई पड़ता है। "बाकी बच गया अण्डा" और "अकाल और उसके बाद" जैसी कविताएं इसका प्रमाण हैं। यह कला उनके आलोचना को और निखारती हैं। यह  नागार्जुन ही हो सकते हैं जो एक कीचड़ से सनी "पैने दाँतों वाली" मादा सूअर को भारत माता की बेटी होने के दर्जा देते हैं। उसके इस अधिकार को आवाज देते हैं। वो ही हैं को जयप्रकाश के आंदोलन को "खिचड़ी विप्लव" कह सकते हैं। नागार्जुन भारत की परस्पर राजनीतिक विफलताओं पे वो धूमिल सा निराश नहीं होते, विचारधारा पर व्यंग से कमान कस्ते हैं। उनकी कविताओं से दैनीय से दैनीय स्तिथि उपहासनिय लगती है भरसक नहीं। इसका एक कारण उनके जीवन काल में हुए भारत के कई राजनैतिक प्रयोग भी हो सकते है। जिसने उनकी विचारधारा को एक बीहड़ सा आकर दे छोड़ा था। इन सब से उनकी कविता एक निरन्तर उत्पीड़न से तंग तबके के सूत से बंधी दिखाई पड़ती है।

वो न ही प्रगतिशील कवियों की श्रृंखला में आते हैं न ही नई कविता का हिस्सा लगते हैं, अनाथ से। फिर भी उन्हों ने अपने काव्य के साथ जितने प्रयोग एक जीवन में किये वो अतुलनीय है। उन्हें समकालीन आलोचकों द्वारा संत कबीर तक की उपमान दी गयी है।

तो आज के युग में कहाँ है नागार्जुन ? क्या वो तबका चला गया जिसका नागार्जुन पक्ष रखते थे या उस तबके में अब कोई नागार्जुन नहीं बचा या उस नागार्जुन को अब हम सुनना नहीं चाहते ? इन सवालों पर विमर्श जरूरी है। इस अंक में नागार्जुन की कुछ प्रसिद्ध कविताएं साझा कर रहा हूँ। उन्हें पढियेगा और इन सवालों के बारे में जरूर सोचियेगा।

पैने दाँतों वाली


धूप में पसरकर लेटी है

मोटी-तगड़ी,अधेड़,मादा सूअर…
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली !
लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुँहे छौनों की रग-रग में
मचल रही है आखिर माँ की ही तो जान !
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है !

पैने दाँतोंवाली…