Tuesday, April 9, 2013

तरस

वो कल कल कर के जाते रहे, मेरी उमिदों को तरसाते रहे,

मैं बेसब्री पकड़े बैठा था, वो कल की आस थमाते रहे,

मैं छुप छुप के उन्हे उकसाता रहा, वो मुस्कुरा के अंजान बन जाते रहे,

मैं सदियों की तैयारी कर बैठा था, वो कल के आगे ना बढ़ पाते हैं,

मैं कहना बहुत तो कहता हूँ, पर हर बात कल पे अटक जाती है,

जब आते हैं वो ख्वाबों मैं, उस कल की तरस बढ़ आती है,

मैं हर शाम थाम उन्हे रोकना चाहता हूँ, वो कल कल कह चले जाते हैं|

No comments:

Post a Comment