Sunday, June 19, 2016

डायरियों के पन्ने भरने

खून से पुते पत्ते, पन्ने

कहानियाँ लिख रहा हूँ ,
जीवन

क्या आदमी जरूरी है ?
एक आवाज सा
मेरी कहानी के लिए ?

मेरी पुरनी डायरियों पे
पपड़ियाँ उभर आई हैं
जखम भर रहें हैं शायद

मुझे अफ़सोस है
ये अफ़सोस ही तो है
मेरी जिंदगी
अफ़सोस से जिए जाना

रेल गाड़ियों पे छूटे अफ़सोस
उसकी आँखे ओझल हो गई हैं
इंजन की आवाज में

अगर रिश्ते धागे हैं
तो कितने धागे टूटे पड़े हैं मेरे सामने
प्लेटफार्म इन्ही धागों के कूड़े से लदा पड़ा है

मेरा पिछला टुटा धागा भी यहीं कहीं पड़ा होगा न
इसी गुथ्थे में कहीं
"मिल नहीं रहा !"

"मुझे अस्पताल ले चलो "
कोई चिल्ला रहा है
मैं भी ये ही चिल्लाता था पहले

मैं घाव सहित अभी तक टहल रहा हूँ
इलाज फ़िलहाल अभी तक बना नहीं

और इसी लिए समझ सकता हूँ
क्यों किसी ने मदद नहीं की थी
मुझे घाव लगने पर
मेरा घाव उनका घाव होना था

मखियाँ भिनभिना आई हैं
उल्टियां करने मेरे घाव पे
किसी और के घाव की
खून की, मवाद की

पता नहीं कितने घाव चाहिए होते हैं
लाश बन्ने के लिए

पास मेरे कोई तो हस रहा है
जो हस रहा है
वो घाव में हस रहा है क्या ?

मुझे अब तक नहीं आया घाव में हसना
शायद मेरा घाव छोटा है
बड़े घाव वाले ही दिल खोल के हस पाते हैं

अब तक मेरा नया उधड़ा धागा भी
खो चूका है
पुराने उधड़े धागों में

ट्रेन तो अगले प्लेटफॉम तक पहुंच चुकी होगी न ?
और धागे उधेड़ने ?

लहू का स्वाद चख कर मखियाँ जा चुकी हैं
मुझ लंगड़ाते को अकेला छोड़ कर

मैं स्मृतियों को फाड़ कर
पट्टियां बदल रहा हूँ

और पुरानी पट्टियों को चिपका रहा हूँ
डलियों पे पत्तों सा

के अब फिर घर को जाना है
ये सब कुछ लिखने
फिर से
डायरियों के पन्ने भरने



  

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