Wednesday, February 8, 2017

तारों भरी रात की अनपढ़ कल्पना

हर शाम गाँव में एक आदमी
अँधेरा बन रात हो जाता है

रात जो बनाती रहती है
गाँव को एक कल्पित महल, रात भर

आदमी की अनपढ़ता
आदमी की कल्पना को जिन्दा रखती है

उस अनपढ़ को पसंद है तारों की बूंदे, तारों की हलचल
अपने चहरे पर

वो नहीं जानता के तारे क्यों टिमटिमाते हैं?

एक रात की तितली अपने पंख खोल कर बैठी
और एक शान्त तालाब का किनारा हो गयी

किनारा जिसके दोनों ओर प्रतिबिम्ब हैं एक दूसरे के, तितली से
किनारा जिसके दोनों काले पंख पर चाँद है, तारे हैं, चमकते हुए

वो नहीं जानता के तारे क्यों टिमटिमाते हैं?

वो बस मानता है की रात की ये तितली
किनारे पर बैठे पंख हिला रही है धीरे धीरे
और पैदा कर रही है टिमटिमाहट तारों की
आकाश में, तालाब में , सोने से पहले

तालाब में फिर कुछ हलचल हुयी 
एक छपाक के हिलकोरे भर से
वो तितली हवा में गुम गयी

वो आदमी एक दम शान्त
नींद भरी आँखों से
आंखे लगाए देखता रहा
तालाब के किनारे को
और इन्तेजार करता रहा
के रात की वो तितली फिर कब आ बैठें

वो चबाता रहा कच्ची सुपारी
ताकि कर सकें अपनी जुबान को और कच्चा
जिन्दा रख सकें अपनी कल्पना की गुंजाइश
और फिर कर सके उस कल्पित महल में
तारों भरी रात की अनपढ़ कल्पना


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