Wednesday, February 8, 2017

नक्शा

चेहरे पर चलती चींटी
एक अलग सी भन्नाहट पैदा करती है
और हमारे अंदर पैदा होते उस आवेग से
बनता है एक नक्शा

उसके अनमाने पैरों की छाप से उभरती है लकीर
नक्शे सी, बाटती हुई
हमें आपत्ति है उसके बनाये हुए नक़्शे से
और गुस्से से हम झटक देतें है उसे हथेली से
उस क्षण दिख पड़ती हैं हमें
हमारी हथेली और हथेली की लकीरें
उभर आता है नक्शा जिंदगी भर का

वो चीरती रहती है मिटटी को
और फाड् देती है जमीन पर बना नक्शा
जिसे हम मानते हैं
अपना देश अपना गाँव
वो खोदती रहती है अपना नक्शा जमीन के नीचे
जहाँ की फ़िक्र हम करते ही नहीं नक्शा बनाते वक़्त
और साबित करती है हमारी फ़िक्र को खोखला

हम समझते हैं की हमारे हथेली से बनाये नक़्शे से
तय होगा हमारी हथेली का नक्शा
पर वो ऐसा नहीं सोचती
वो जानती है के हर सावन बाद बदल जायेगा उसका ठिकाना
बनाना होगा उसे फिर नया नक्शा
नक्शा उसका हुनर है घमंड नहीं

हम चाहें तो हुनर दिखने की होड़ में
सपाट दीवारों से घेर कर दिखा सकते हैं अपने नक़्शे की हद
और अपनी मूर्खता


नक्शा बनाने वाले की कला है ख्याल है
और समझने वाले की समझ
नक़्शे की समझ दिखता है सझने वाले का हुनर
या मूर्खता
या दोनों

चींटी दिनभर समझती रहती है
भटकने के रस्ते
मिटाती है पुराने नक़्शे
और बनाती है नया नक्शा
कयी और नक्शों का

मेरा देश भी एक नक्शा है
कयी नक्शों का
जिसमे दबे हैं हर नक्शेकार के अनेक ख्याल
कुछ शहर, कई गाँव
बहुत सी सड़कें, नदियां 
थोड़ी खोखली मिट्टी और
चींटियों के अनगिनत घोंसले

कितना हसीन नक्शा है न

एक और चिकोटी
फिर भन्नाहट
किसी ने हमारा नक्शा बदलने की कोशिश की क्या?

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