शहर के ऊपर उड़ते पंछी
हर शाम, हर सुबह
निकल आते हैं
महात्मा का अधूरा आंदोलन लिए
एक अहिंसात्मक आंदोलन।
वो उड़ते रहते हैं दिन भर
चहकते, बिलखाते
सुनने वाला शोर का आदि हो चूका है।
वो उड़ते रहते हैं
के कब ये महासमर रुकेगा
कब वो भागता आदमी एक बार ऊपर देखेगा
समर जारी है।
वो दिन में बैठ आते हैं
लंबी इमारतों की खिड़कियों पे
आंदोलन लिए
उस दिन के लिए
जब खिड़की वाला खोलेगा कुण्डी
हवा का रुख देखने
सहानभूति से।
सहानभूति, हाँ! महात्मा वाली सहानभूति
कच्ची मिटटी की सहानभूति
जिसे पकने में मजदूर का श्रम,
सांचो का आकर, भट्टी की आग
और एक लम्बा वक़्त लगता है।
शाम होते ही वो उतर आते हैं
चौराहे पर खड़े अकेले पेड़ पर
जिसके पत्ते दिन की धूल चाट चाट
काले पड़ चुके हैं।
वो उतर आते हैं
रेल के प्लेटफार्म पर
छज्जों के नीचे
छज्जे जो उनके घर नहीं हैं
छज्जे जो पेड़ की छांव नहीं हैं
वो जानते हैं के यहाँ घोसला नहीं बन सकता
बस देह टिकाने की जगह मात्र हैं।
वो जान चुके हैं की
इंसान कब सोता है कब जगता है
इसी लिए उन्हें हमदर्दी है
उस प्लेटफार्म के चौकीदार से
जो कभी नहीं सोता
और बदले में वो उस पर बीट नहीं करते
वो बीट करते हैं उस सफ़ेद कमीज पर
जिसका मालिक सुबह ६ बजे
उठ कर प्लेटफार्म पर ऊंघता रहता है
सोने के लिए।
अहिंसात्मक आंदोलन हमेशा अहिंसात्मक नहीं रहता।
हर शाम, हर सुबह
निकल आते हैं
महात्मा का अधूरा आंदोलन लिए
एक अहिंसात्मक आंदोलन।
वो उड़ते रहते हैं दिन भर
चहकते, बिलखाते
सुनने वाला शोर का आदि हो चूका है।
वो उड़ते रहते हैं
के कब ये महासमर रुकेगा
कब वो भागता आदमी एक बार ऊपर देखेगा
समर जारी है।
वो दिन में बैठ आते हैं
लंबी इमारतों की खिड़कियों पे
आंदोलन लिए
उस दिन के लिए
जब खिड़की वाला खोलेगा कुण्डी
हवा का रुख देखने
सहानभूति से।
सहानभूति, हाँ! महात्मा वाली सहानभूति
कच्ची मिटटी की सहानभूति
जिसे पकने में मजदूर का श्रम,
सांचो का आकर, भट्टी की आग
और एक लम्बा वक़्त लगता है।
शाम होते ही वो उतर आते हैं
चौराहे पर खड़े अकेले पेड़ पर
जिसके पत्ते दिन की धूल चाट चाट
काले पड़ चुके हैं।
वो उतर आते हैं
रेल के प्लेटफार्म पर
छज्जों के नीचे
छज्जे जो उनके घर नहीं हैं
छज्जे जो पेड़ की छांव नहीं हैं
वो जानते हैं के यहाँ घोसला नहीं बन सकता
बस देह टिकाने की जगह मात्र हैं।
वो जान चुके हैं की
इंसान कब सोता है कब जगता है
इसी लिए उन्हें हमदर्दी है
उस प्लेटफार्म के चौकीदार से
जो कभी नहीं सोता
और बदले में वो उस पर बीट नहीं करते
वो बीट करते हैं उस सफ़ेद कमीज पर
जिसका मालिक सुबह ६ बजे
उठ कर प्लेटफार्म पर ऊंघता रहता है
सोने के लिए।
अहिंसात्मक आंदोलन हमेशा अहिंसात्मक नहीं रहता।
No comments:
Post a Comment