Thursday, September 3, 2015

हर साल, एक दिन

हर साल,
         एक दिन
पत्ते दर पत्ते,
         हर्फ़, हर हर्फ़ 
पढ़ता हूँ
        याद करता हूँ
लिखावट अपनी
        बसंत की
अब तो हो गई
       ये आदत भी पुरानी
 
कहानी हमारी

हर साल,
        एक दिन
मैं पाता हूँ
        के छाँव बढ़ जाती है
पेड़ की
        उम्र सी
फिर तितलियाँ आती है
        शहद, पिछले मौसम की
मै थोड़ा भुला देता हूँ
        मै थोड़ा बढ़ा चढ़ा देता हूँ

कहानी हमारी

हर साल,
        एक दिन
मैं अफ़सोस करता हूँ
        जो इतना कम मिलता हूँ
बस इतने में
       काम कैसे चलता है
पर देखो हर दस्तक
       ये दरखत खड़ा रहता है
नीला पड़ जाता है
       फैल जाती है स्याही

कहानी हमारी

हर साल,
        एक दिन
थाम कलाईयाँ
        डालियाँ
पतझड़ से पहले
        सूख जाए
बर्फ कर लेता हूँ
        सब ख़याल
के सर्दी के बाद
        फिर लिखनी है

कहानी हमारी


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