Sunday, July 20, 2014

बेबस का इंक़लाब


चाँद के चेहरे पर जो काले काले निशान है,
सूरज की लाल आग के ये लाल से प्रहार है,
रोया रे चँदा तू खड़े अकेले सबके सामने,
पर छुप गयी आवाज़ वो प्रकाश के अंधकार मे |

सूरज ने फिर बनाई सबपे अपनी ऐसी ढोंस है,
ना सुन सका इंसान, ना सुन सका भगवान है,
सफेद आचरण है, सफेद ये करम है,
कोई जो पूछे सूरज से, तो कहता ये भ्रम है |



क्यों चुप हुआ चँदा रे, क्यों छुप गया चँदा रे,
खट्टे से आँसू उसके सूखे पड़े है फर्श पे,
साँसों मे एक सिसक है, सीने मे एक कसक है,
प्रतिशोध के ज्वाला से जल रहा ये तन है |


कमजोर दिल मे दौड़ती ये रक्त की प्रवाह है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

युद्ध  के शुरू मे एक सन्नाटे की पुकार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

वीर के लहू से भीगी कहती ये कटार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

सफेद साडीयों से पूछे सिंदूर के निशान है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,


तारों ने सुनी बात वो जो कोई भी ना सुन सका,
लगाई ऐसी घात फिर के सूर्य भी ना बच सका,
खून की लालिमा से बिखरा ये सूर्यास्त है,
चँदा के वारों से कहराई आज फिर ये शाम है|

स्वाहा स्वाहा हो के, आज बन गया वो राख है,
कालिख सा यू बिखर के काली कर गया वो रात है,
उसपे जो चमका चँदा आज बन गया प्रमाण है,
बेबस के इंक़लाब से आज बदला है संसार ये|

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