वो तहज़ीब थी कुछ अजीब सी
या शायद आदत ना थी अजीज की
नाजुक सी डोर रेशम से बनी
मखमल मखमल लफ्जों से सजी
गुलाबों की कली, गोलियों सी चली
घायल करती पर जख्म नहीं
अदा उनकी, तलभ मेरी बनी
उस शाम कभी जब फिर वो मिली
लबों को छूने को, लफ्ज़ खुद में झगड़े
हम पे जब बरसे, तब हम भी तरसे
या शायद आदत ना थी अजीज की
नाजुक सी डोर रेशम से बनी
मखमल मखमल लफ्जों से सजी
गुलाबों की कली, गोलियों सी चली
घायल करती पर जख्म नहीं
अदा उनकी, तलभ मेरी बनी
उस शाम कभी जब फिर वो मिली
लबों को छूने को, लफ्ज़ खुद में झगड़े
हम पे जब बरसे, तब हम भी तरसे
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