जैसे दिवार रिस रिस के
काई हो जाती है
आशियाँ हो जाती है
मै भी रिस के
इंसान हो गया हूँ
मकान हो गया हूँ
हर दिन, एक दिन
एक तिनका
चोच से खीचना
आसान नहीं होता
एक सपना हक़ीक़त में
हलका नहीं होता
एक दिन में
दिन और रात होते हैं
सब बराबर और
समान होते है
फिर उनमे कुछ
रविवार होते हैं
क्योकि मेरे मन में
विचार होते हैं
घंटे होते है
मिनट होते है
माप होते हैं
पर इन सब के अलग
एहसास होते हैं
इस लिए ना लम्हों
के हिसाब होते हैं
मेरे कितने कितने
आकार होते हैं
कितने भरोसे
बेकार होते हैं
मेरे दिन के यहाँ
वैपार होते हैं
रूपये पैसे
बर्बाद होते है
फिर उनपे बेहेस
और प्रचार होते है
नेताओं के वैचारिक
पुलओ होते हैं
हम भाषणों में फिर भी
जवाब ढूंढते है
गरीबों को यहाँ
मजदूर कहते है
शहरोँ में होक भी
बहुत दूर लगते हैं
कर्जों में बंधे
वो मजबूर लगते हैं
मेरे दिन के
इतने आयाम होते है
पता नही कितने
बेकार होते है
पर फिर भी सनक
हर बार करते हैं
के लोग कहते है
वो इंसान हो गए हैं
इस शेहेर में बहुत से
मकान हो गए हैं
थोड़े रिस जो गए है
पुराने हो गए है
काईयों से पुते पत्थर
अब खामोश रहते है
काई हो जाती है
आशियाँ हो जाती है
मै भी रिस के
इंसान हो गया हूँ
मकान हो गया हूँ
हर दिन, एक दिन
एक तिनका
चोच से खीचना
आसान नहीं होता
एक सपना हक़ीक़त में
हलका नहीं होता
एक दिन में
दिन और रात होते हैं
सब बराबर और
समान होते है
फिर उनमे कुछ
रविवार होते हैं
क्योकि मेरे मन में
विचार होते हैं
घंटे होते है
मिनट होते है
माप होते हैं
पर इन सब के अलग
एहसास होते हैं
इस लिए ना लम्हों
के हिसाब होते हैं
मेरे कितने कितने
आकार होते हैं
कितने भरोसे
बेकार होते हैं
मेरे दिन के यहाँ
वैपार होते हैं
रूपये पैसे
बर्बाद होते है
फिर उनपे बेहेस
और प्रचार होते है
नेताओं के वैचारिक
पुलओ होते हैं
हम भाषणों में फिर भी
जवाब ढूंढते है
गरीबों को यहाँ
मजदूर कहते है
शहरोँ में होक भी
बहुत दूर लगते हैं
कर्जों में बंधे
वो मजबूर लगते हैं
मेरे दिन के
इतने आयाम होते है
पता नही कितने
बेकार होते है
पर फिर भी सनक
हर बार करते हैं
के लोग कहते है
वो इंसान हो गए हैं
इस शेहेर में बहुत से
मकान हो गए हैं
थोड़े रिस जो गए है
पुराने हो गए है
काईयों से पुते पत्थर
अब खामोश रहते है
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