Monday, May 8, 2017

धरोहर - वीरेन डंगवाल

एक आदमी सा शहर, और शहर में बहुत से आदमी । वक़्त बेवक़्त जैसे हवाएं आ कर भर जाती हैं, बदल जाती हैं मौसम । ठीक वैसे ही विचार शहरों की हवा बदल देते हैं । वीरेन डंगवाल, एक ऐसे ही बदलते ज़माने के शहर से कवि हैं । वो जमाना जहाँ बदलाव एक खुले छोर से भविष्य को झटक रहा था और समाज अपने निरंतर संघर्ष से जूझते जूझते तब्को में तब्दील हो रहा था । हर तबके की इस बदलाव को ले कर एक वैचारिक और भावनात्मक प्रतिक्रिया थी । वीरेन जी ने अपने काव्य में इन प्रतिक्रियाओं को शब्द दिए, रूप दिए । जैसे, शहर की रोजमर्रा की पुरानी गतिविधियों के बावजूद कैसे "मोबाइल पर उस लड़की की सुबह" बदल चुकी है । वो खो चुकी है बातों में जो शायद जरूरी हैं, या शायद नहीं भी, पर वो सुबह उसको खो चुकी है ।


वीरेन जी की कई कविताओं में मनुष्य प्रधान है । उसका पेशा, उसका लिबास, उसका मिजाज अगर श्रोत है। तो उसका निजी और सामाजिक परिवेश कविता के दो उब्जाऊ पाट । जिसके बीच फिर बहती है समाजवादी विचारधारा । जो वक़्त की मार सहती है, पूंजीवादी बांधो से टक्कर लेती है। भरती है, फूटती है । कहती है "आँखें मून्दने से पहले याद करो रामसिंह और चलो" । पूछती है सिपाही से -

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना ?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार ?

ये सवाल चेतावनी से हैं, मगर आक्रामक नहीं । वो जगाना चाहते हैं उस मनुष्य को जो इस दलदली सभ्यता में धस रहा है । उसका हिस्सा बन रहा है । "भोंदू की तरह "। ये व्यवस्था भर देती है "अवसाद और अकेलेपन से" जब एक बच्चा कबाड़ी चिल्लाता है "पेप्पोर रद्दी पेप्पोर" खाली सड़क पर । पर फिर भी ओझल रहता है जीवन की तरह "पत्रकार महोदय" के खून सोखे भारी अख़बार की तरह । वीरेन ऐसी ही कई सर्वत्र मौजूद जटिल मुद्दों की शूक्ष्म बारीकियों को अपने सवालों से उठाते हैं । ताकि वो मनुष्य अपनी मता का प्रयोग करें और सोचें । सोचें की यह व्यवस्था अगर ऐसी है तो ऐसी क्यों है ? सोचें के क्यों वो कपडे वाला झंडा, हमारी आजादी का प्रतीक, इतना ऊपर है की उसे आज तक न छू सके । वो फटकारतें हैं "धरती मिट्टी का ढेर नहीं है गधे"। और फिर से दोहराते हैं -

तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीडा की कठिन अर्गला को तोडें कैसे!

एक शहर वीरेन जी की कविताओं में हमेशा उभरता है । ये शहर भारत के कई उन शहरों सा है जो भूमंडलीकरण की तेज रफ़्तार पकड़ रहा है । इसके नागरिक अलग अलग पेशों की पोशाकें पहने हैं । इस शहर में हर बढ़ते शहरों की तरह एक स्टेशन है, सिविल लाइन्स है, नरसिंग होम है, चौराहे है, "समोसे" की दुकान है जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं । एक जंग खाई "तोप" है, कंपनी बाग में, जो इतिहास का अवशेष है । गाँव की ठेठ भाषा है, जिसे शहर का हैमबर्गर पसंद है । कई यातायात के साधन है । एस. एम. एस. हैं, मोबाइल हैं, एन. जी. ओ. हैं, बदलाव है । और इन सब आशावादी संभावनाओं के साथ कुछ संदेह भी है । संदेह के खो ना दे अपनी आवाज इन बाजार के शोर में । बदलाव के नाम पे, बेफजुल मांग पे । डर है के कविता का महानायक, ये मनुष्य, वस्तु न बन जाये खपत और मुनाफे की । इसी लिए वीरेन व्यंगात्मक रूप से कहते हैं -

कुर्ते पर पहिने जीन्स जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं।

वीरेन की कविताओं में प्रगतिशील प्रवाह है । समाजवादी रवैया है । समकालीन बिम्बों की प्रचूड़ता है । एक गेहरी छाप है अपने वक़्त की । अपनी कविताओं में सामाजिक समस्याओं से ले कर प्राकर्तिक बखान तक उन्होंने कई आयाम दर्शाये हैं । कारणवर्ष उनके लेखन की शैली सीमांकित करना मुश्किल है ।

मेरे नजर में वीरेन एक सहारों से कवि हैं । जीवन से भरपूर । जो हर दिन घटित होता रहता है । अखबार छोटा पड़ जाता हैं उसे नापते हुए । विचार सिमट जाते हैं पडोसी बन जाते हैं इस शहर में । कविताओं में ।

हाल ही में २८ सितंबर २०१५ तारीख को हुए उनके निधन से हिंदी साहित्य एक बार फिर अनाथ हुआ । धरोहर का ये अंक मै वीरेन जी के साहित्य को समर्पित रहा हूँ और उनकी कुछ प्रतिनिधि कवितायेँ भी जोड़ रहा हूँ । उम्मीद करता हूँ आप सबको पसंद आएंगी ।

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