Monday, January 12, 2015

तार (wire)

शायद ये  वक़्त ना जायज़ करता कोई भी इनपे
पर फिर भी एक बार मेरी नजर फिरी पड़ी इनपे

ये तार मेरे कमरे के कोने में कितने सुकून से पड़े थे
जैसे अजगर जो महीनों से हिला न हो

पर सोचो हर दिवार कुरेद कर अपनी बाहें फैला रखी है इन्होंने
जैसे कोई ऑक्टोपस ने सिकंजा कस रखा हों मेरे घर पे

कुछ पीतल ताम्बे के नाख़ून लिए
कुछ ऑप्टिक फाइबर मुह खोले हुए

सब बिजली थूकते है, जुबान अलग बोलते है
कुछ हवाओं से सरगोशियाँ कर दूजों से बाते करते हैं

अब सोचता हूँ तो लगता है

ये मेरे बारे में कितना जानते हैं
अपनी इस चमड़ी के नीचे कितना छुपाते हैं

किसी की खुसी, किसी के गम
हालत जस्बात, बेवजह की बकवास

क्या नहीं निगल रखा इन्होने
क्या नहीं चख रखा इन्होने

पर फिर भी कितना विचलित मै
पर फिर भी कितने शांत ये

लगता है ये इस जहाँ को ज्यादा समझते है
जो इनकी डिजिटल जुबान में ये जहाँ -

शुन्य एक
एक शुन्य, में छपा है

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