Monday, May 11, 2015

वो मंच, मेरा चबूतरा

टेढ़ा मेढ़ा खीच खांच के
इन शब्दों के चबूतरों पर
जब भी मैं खड़ा होता हूँ

बहुत डर लगता है
टूट जाने का
गिर जाने
बड़े सहज से रखने पड़ते हैं
अक्षर

किसी ए ओ औ पे
लड़खड़ाने का भय
तो किसी छोटी बड़ी ई
पे फिसल जाने का

कुछ बिंदु फ़ांस से
चुभ जाते है अगर
ध्यान भटक जाए तो

पैर अटक जाता है
उन शब्दों के बीच
अगर कदम छोटे पड़ जाये तो

उछलना भी आसान नहीं
कहीं ऊ से ना भीड़ जाए सर

हर बार रखने के बाद सोचता हूँ
के ये चन्द्र बिंदु की टोकरी उठाऊ या नहीं

इन सब के बाद भी
कुछ लफ्ज रह जाते हैं अड़े हुए

तो उन्हें भी ठोक ठाक के पैरों से
बड़े लहजे से चाट चाट के
कोमल करना पड़ता है

और जो कटे छटे गलत
चबाए हुए, थूके हुए से शब्दों
को साफ करने के बाद
जो कुछ भी दीखता है

वो ही मेरा मंच है 

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