Thursday, August 14, 2014

जी रहा हूँ

स्याहियों को गोद रहा हूँ
कागजों को भर रहा हूँ
शब्दों में लिख कर मै
खयालों को पोंछ रहा हूँ

जिए जो क़ुछ पल मैंने
उन फलों को बटोर रहा हूँ

हुए जो इन्तेहाँ ऐसे
उन हलचलों को दबोच रहा हूँ

सन्नाटे  जो कह गए
उनमे आवाज भर रहा हूँ

फर्राटे में जो छूट गए
उन्हें याद कर रहा हूँ

आँखों को जो छू गए
उनकी तस्वीर बना रहा हूँ

जो किसी को ना बंधे
वो लकीर खीच रहा हूँ

थकावट के दर्द से भरी
उन नींदों में सो रहा हूँ

आवाज की भीड़ में जो भी सुना
उसे समझ रहा हूँ

अगर ये नशा है
तो मै उसमे धुप हो रहा हूँ

लोग कहते है, क्या कर रहा हु मै
मैं ! मैं तो सिर्फ जी रहा हूँ

 

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