Friday, December 5, 2014

मेरा कमरा

कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ ?
मेरी गलियां बहुत तंग है
रास्ते भी सीधे नहीं
पता भी छोटा नहीं

किराये का एक कमरा है
दरवाज़ा सीधे सड़क पर खुलता है
धूल बहुत आती है
मग़र धूप नहीं

जगह कम है, बस एक बिस्तर ही अट पाता है
उस पर लेटो तो ये कमरा ताबूत नज़र आता है
बल्ब जल गया तो दिन हुआ
न जला तो दिन नहीं

सड़क पार तिरछे में एक कूड़ेदान है
कूड़ा लटकता रहता है उससे जैसे कोई बच्चा
मुंह खोले खाना चबा रहा हो
बहुत गालियां देता है मकान मालिक मेरा
पर लोग यहाँ सुनते नहीं

जब भी बादल रोते हैं
तो आंसू मेरे कमरे तक आ जाते हैं
दिन भर उनके ग़म में शरीक होना पड़ता है
बस वजह कभी पता नहीं

यहाँ तो पखाना जाना भी
मस्जिद की दौड़ लगता है
ऐसे कामों की भी यहाँ कतार लगती है
आने वाला कोई भी हो यहाँ फ़र्क नहीं

बगल में एक बुढ़िया हमेशा खाँसती रहती है
और जब खाँसती नहीं तब सोती है
घरवाले कहते हैं कि दमा है, मुझे तो लगता है टीबी
 हैरां हूँ इन हालातों में वो अब तक मरी नहीं

शाम को कुछ बच्चे खेलने आते हैं
इसी सड़क को पिच बना क्रिकेट खेलते हैं
वो ही यहाँ सबसे खुश नज़र आते हैं
शायद ज़िन्दगी उन्होंने देखी नहीं

खिड़की को देखता हूँ तो
कटे छटे आसमां का पोट्रेट लगती है
सोचता हूँ की एक माला चढ़ा दूँ
के यहाँ इससे ज़्यादा आसमां फिर दिखेगा नहीं

सच कहूँ, ये कमरा पिंजरा लगता है और ये शहर चिड़ियाघर
दूर दूर से इंसान पकड़ कर लाए जाते हैं यहाँ
अपनी अपनी कलाबाजियाँ दिखने को
पता नहीं कभी वापस जा पाएंगे या नहीं

अब तुम ही बताओ
कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ ?

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