बस की आखरी सीट पर
दोनों कलाइयाँ उलझाए
बैठे थे
सावन की छोटी बुँदे उसके गाल पे
कंधे से लटके इसके हाथ पे
आ आ कर एक एहसास जाता रही थी
दरीचे के खाली कोने से
आने वाले कल को
वो दोनों ढूंढ रहे थे
ये सोच रहे थे
हर कल
ये पल
नसीब होगा के नहीं
दोनों कलाइयाँ उलझाए
बैठे थे
सावन की छोटी बुँदे उसके गाल पे
कंधे से लटके इसके हाथ पे
आ आ कर एक एहसास जाता रही थी
दरीचे के खाली कोने से
आने वाले कल को
वो दोनों ढूंढ रहे थे
ये सोच रहे थे
हर कल
ये पल
नसीब होगा के नहीं
No comments:
Post a Comment