Sunday, November 30, 2014

दर्द

मै हरगिज चाहता नहीं के तू बन मेरा हमदर्द

फकत ख्वाहिश है बस के तू सुन ले मेरा दर्द

ट्रैन की सीटी

उस जाती ट्रैन की सीटी के साथ
       एक और मौक़ा छूट गया

मेरा घर से भागने का ख्याल
       फिर अधूरा रह गया

Saturday, November 29, 2014

मुंसफी अखाड़ा

ये तराजू कानून का
ये सूई इन्साफ की
क्यों इतनी टेढ़ी रही है ?

ये कटोरा पीड़ितों का
क्यों हमेशा भारी रहा है ?

और कटोरा कसूरवारों का
क्यों इतना खाली रहा है ?

कोई मिलावट कर रहा है
            या धांधली कही
कुछ तो गड़बड़ है
            कहाँ, पता नहीं

जंग लग गयी है
            पुर्जों में अब
हिलने में लगेंगे
            बरसों कई

इधर फाइल कुतर गया
            चूहा कोई
उधर रूह छूट गई
            फैसला नहीं

मुंतजिर आँखे है
            धूल झोकने को
संविधान इतना बड़ा
            ज्ञाता कोई नहीं

हाँ कुछ दावा करते है
            वकालत है पढ़ी
सफ़ेद कॉलर है उनके
            पर पोषक काली बनी

वैसे देखो तो ये कोर्ट
            मंदिर है
जो फरियाद यहाँ पूरी
            होती नहीं

पर आफत में यहाँ
            आते सब है
अंधे खुदा  के फैसले को
            मजलूम सभी

वैसे ये जम्हूरियत का
            मुंसफी अखाड़ा है
मुर्गेबाजी दो पैहलू कि
            एक क़ाज़ी फसा बेचारा है

ये न्याय का मेला लगता
            है कई रोज
पर बिकती यहाँ बस है
            आजादी



Friday, November 28, 2014

जूतियाँ

आज मंदिर में
        मै रो रहा था
                 दुआ कर रहा था
"उसकी रूह को तस्कीं करना "

जब बाहर आया
        तो पैरों की जूतियाँ
                 चुरा ले गया था कोई

कल रात जैसे
        एक हादसे ने
                 चुरा लिया था
एक अजीज का साया मेरे सर से

अफ़सोस!
के अब ये सफर
         भरी धुप में
                 जल जल के करना पड़ेगा
         

Thursday, November 27, 2014

खुदी

मेरी खुदी ने मुझे खुदा का दर्जा दिया है

जो आज फिर उसने मुझे तबाह किया है

ये शाम कभी ना जाये कहीं

ये शाम कभी ना जाये कहीं

सुरों में डूबी, शहद जैसी

अल्फाज मेरे, आवाज तेरी

बहती रहें, कहानी कोई

जुबानी तेरी, लिखाई मेरी

ख़याल मेरे, पहचान तेरी



मिसरेह जो, बन आते हैं

इस तर्रन्नुम में घुल जाते है

चुस्कियाँ, लेके वो

तस्कियाँ, हम पाते हैं

एहतियात भरी, तह कर रखी

एहसास मेरे, सरगम तेरी



किस्मत हुई, ये निस्बत बनी

सूरज ढला, ये शाम उठी

और वक़्त बीता, फिर चाहत हुई

ये शाम कभी ना जाये कहीं

क्या घूरता है?

ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है

रात तो हाथ टटोलने को
     मेरे जिस्म का खाका याद करता है

जेहन की नंगी तस्वीरों में
    मेरे हुस्न को लपेटता है



ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है

मै ये कहती नहीं
     चाहतें छोड़ दे
            ख्वाहिशें तोड़ दे

पर इतना समझ
      मुझमे भी कहीं
            चाहतें, ख्वाहिशें होती हैं



ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है

एक हद मुझमे है
     एक  काबू तुझमे है

वेहशी ना बन तू
     ये ताकत तुझमे है

इंसान मै भी हूँ
     इंसान तू भी है

वो इज्जत दे मुझे
     जो इज्जत है तेरी

ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है
     

गलत

एक सठियाई दिनचर्या
                के तजुर्बों में फसा मै

कुछ यूँ लगा
               के मेरे एहसास तो बहुत हैं
                                       पर पेशा गलत

आज उस बेबस आवाज
               की दास्ताँ सुन मै

वैसा ही लगा
               उसकी रूह की ख्वाहिशें तो बहुत हैं
                                        पर जिस्म गलत

हिज्रत

नालों के पतले पाट पे,
या सड़क के कोने काट के

पाकिस्तान - हिंदुस्तान के तलाक़ से
पैदा अनाथ मुल्क़ के आशियाने बस्ते हैं


घर

ये दीवारें मिट्टी की, कमजोर है
वक़्त कभी भी तोड़ सकता है इन्हे

डर लगता है हमे घर बसाने से
पर तेरा ये महफूज रखने का भरोसा हमपे

एहसास देता है, के हम सम्हाल लेंगे सब
के इन दीवारों के मकान को घर बना लेंगे हम

करवा चौथ

आज रात चाहतों की थाली थामी है
तेरी नजर उतार चाँद पर चढ़ा दी है

आज रब से चाँद जैसी उम्र
तुम्हारे लिए माँग ली है


Monday, November 24, 2014

विश्वशक्तिमान

मुझे बस इतनी शक्ति देना
       के आबादी मिटा सकूँ
सूक्ष्म-अंड की ताकत से
       वीराने बिछा सकूँ

बुद्धिमता तो मुझमे
        कब से है
बस वो औजार दो
        के ज़माने डरा सकूँ

खौफ का बाजार है तेरा
         मै एक दुकानदार बन सकूँ
तेरे अखंड अमन के नारे को
         प्रारम्भ में कर सकूँ


भूत की खोज

एक सुखा रेगिस्तान था
          कुछ दीवाने उसमे बसते थे
रातों में तारे तकते थे
          हसते थे, गाते थे
नक्षत्र की कहानियाँ सुनाते थे
          खुद को अस्ट्रोनॉमर* कहते थे
पर मुझे तो बस
          ख्वाबदा मस्ताने लगते थे

लंबे चश्मे पहन के
          आकाश को चीरा करते थे
के नाजाने कब कोई तारा
          नई कहानी सुना दें
 कहते थे के धरती का भूत
          छिपा है आसमान में
कुछ ऐसे ढूंढते थे अतीत को
          जैसे खोया खिलौना खोजता कोई हो बच्चा


कुछ दूर, एक बुढ़िया टहलती थी
          वो भी अलग दीवानी थी
दिन भर जमी को घूरती थी
          ना हसती थी, ना गाती थी
वो अपनों की कहानियाँ सुनाती थी
          वो अपनी पेहचान छुपाती थी
पर मुझे तो वो एक
          टूटा सा ख्वाब लगती थी

हाथों में खुरपी ले कर
          जमी को खोला करती थी
के ना जाने कब मिल जाये
          उसे हड्डियां अपनों की
दफनाया था जिसे एक तानाशाह ने
          भूत बना, उसके देश की
उदास होती है अतीत पे, कुछ ऐसे
          जैसे खो कर खिलौना बैठी हो कोई बच्ची

प्रेरित (inspired from)
Nostalgia for the Light  by Patricio Guzman
http://en.wikipedia.org/wiki/Nostalgia_for_the_Light


 

Saturday, November 22, 2014

भटक ले

उफ़, एक और चौराहा
    फिर कई रस्ते
        बस एक फैसला
              और बिछड़ना

चलो इन रास्तों को ही छोड़ दे
     अब जरा भटक ले
            लापरवाह दिशाओं में
                 थोड़ा दूर चल लें 

आँखों में चाँद हो
       सांसो में ठंडी हवा
              बातें इस जग की हों
                   और तजुर्बे तेरे मेरे

नजरियों को काट के
       वो जहां देखते रहें
              जो हर दिन सजें
                   बिन तारीफ आशिक की

दुःख को खट्टा, सुख को मीठा
        इमली बना चबाते रहे
               वक्त की घूँघट खोल खोल
                     यादों को शर्मिंदा करे

कभी सोचा है

         यूँ भटक के कैसा लगता है?
               आज वही लिख रहा हूँ
         अगर अच्छा लगे
               तो आ जाना मेरे पास
                       रास्तों को अकेला छोड़ के

             

धुप बत्ती

एक धुप बत्ती
      कुछ उमीदों से सुलगी
      खुदा को खुश करने
      होले होले यु जल के
      आराधना में लीन हो
      वेदना को भूल वो
      मौहोल महकाती रही
      विश्वास चमकती रही

सुबह बस बची तो राख थी
        जो एक झोके में बिखर गयी

ना जाने,
     मुराद पूरी हो
     संतुस्ट चिता में वो फुक गयी

या
     इन्तेजार में
     जवाब के, कमजोर हो वो मर गयी

विद्रोह

लाख आंसू बहा लिए
       अब खून बहाना बाकि है

अंग्रेजों से आजाद हो लिए
       अब अपनों की बरी है

देशद्रोह तो बहुत देख लिए
       अब देश में विद्रोह आनी है

समाज सुधारक बहुत हो लिए
      अब खुद सुधरे की ठानी है

डर

उसे पता क्या स्वाद पानी का
जिसने रेत चबा प्यास बुझाई है

उसे पता कहाँ डर किसी का
जिसके नसीब सिर्फ राख़ आई है

इंसानो सा कवि

फिर से कलम तले
       कागज रोंद रहा है ना
किसी नयी आजादी की
       नज्मे बुन रहा है ना

कवि!  कवि!  कवि!

क्यों ना समझ पाता है तू
ये झूटी जमुरियत की लोरियाँ
सुन सो रहे है
ये उठेंगे नहीं

लो! फिर तू उन्हें जगाने की
        कोशिश कर रहा है ना

उंगलिया तोड़ देंगे वो
जस्बात मरोड़ देंगे वो
सूली चढ़ा कर तुझे
अमर कर देंगे वो

अरे! बेवकूफ! तू फिर भी ये
        उंगलिया चला रहा है ना

ये इंसान है डर तू
ये मिट्टी को भगवान बना
फिर उसे तबाह करते है
मसीहा बनाना आदत है इनकी

क्या! तू इन्हे बदलने की
        कोशिश कर रहा है ना

वाह! कवि वाह!

बहुत हिम्मत है तुझमे
ये कविता जो पूरी करली तुमने
 पर पता है तुझे, शायद नहीं
के तू भी उनसा ही निकला

देख! मेरे इतना माना करने पर भी
        तूने इतनी सी भी सुनी ना  


ढूंढता रहा

जिसे मै दिन भर ढूंढता रहा
       वो रातों में टहलता था

मेरे ख्वाबों को सींच के
       दिन के मंजर लिखता था

गुलाम

ये ज़माने के गुलाम
      अब गुलामी से इश्क़ कर रे हैं

जिस्म पे उभरे नासूरों के
       दर्द को चूम रहे है

रसाकसी

इन फिजाओं और मेरे सीने के बीच
        ये सांसों की रसाकसी चलती रही

उसमे फसा मै एक डोर से
       जिसके टूटने को  मुंतजिर जिंदगी कटी है

Tuesday, November 18, 2014

रूह

हर जिस्म की बोतल खोल के
मौला ने एक रूह दी है

जैसे अँधेरे को दीप ने
एक लौ की रौशनी दी है

Monday, November 17, 2014

आग - 2

जिनके दिलों में आग हो
उन्हें सीना जलने का डर कहाँ

जिनके आँखों में ख्वाब हो
पैरों को उनके थकना पता कहाँ

तुझमे भी वो ख्वाब है
के वो आग है तो रौशन कर जहाँ

मंजिल जो रूठ जाये तो
रास्तों को साथी तू बना



मुमकिन कभी
     हो हर चाल सही

जो भटका नहीं
    कैसा राही वो भी

खुद की खुदी सम्हाल कर
    ख्वाहिशों को आजाद कर

के ढूंढ वो वजह
    जिसके लिए था तू चला



देख खुद को
    आईने में कभी

जिंदगी सिमटी
    जेहेन में तेरी

चेहरा बदल गया है
     आवाज रगड़ गयी है

देख खो तो नहीं गयी
     मुस्कान ये तेरी


जिनके दिलों में आग हो
उन्हें सीना जलने का डर कहाँ

जिनके आँखों में ख्वाब हो
पैरों को उनके थकना पता कहाँ

हावड़ा ब्रिज

मिसरे थे, लफ्ज़ थे, अल्फ़ाज़ थे
      कुछ मीठे, कुछ खट्टे, कुछ आपस में लड़े थे

पर सब एक कागज पे
      एक नज्म में सिमटे थे

हावड़ा ब्रिज पर खड़े
     वक़्त ने आज वो कागज फाड़ फेका है

हुगली के चैहरे पर तैरते
    सब बिछड़ रहे हैं

ये टुकड़े हस रहे हैं
     तड़प रहें हैं

सब साथ में कभी एक हसीं नज्म थे
अब साथ में सब बस यादें लिए हैं

Friday, November 7, 2014

आग

जिनके दिल में आग हों
      उन्हें सीना जलने का डर कहां

जिनकी धड़कन शोला ना हों
      उन्हें जिंदगी का मतलब पता कहां

कला

तेरी कला ही यूँ बेमिसाल है
      जैसे आइनों सा चित्रकार है

जी करता है, तोड़ दूँ इसे, देखने को
     की क्या ये सच में आइना है
     



Monday, November 3, 2014

जहां

कृष्ण में बचपना भी है
                कृष्ण में ही जहां भी

मुख खोल के कृष्ण का
                घबरा गयी यशोदा भी

अचम्भे में ये सोच रही
                क्या सत्य जहाँ का सरल यही

ऋषि मुनि विद्वान भिड़े
               जहां समझने में कितने मिटे

पर क्या वो समझ पाएंगे कभी
              के नासमझ है ये जहां खुद ही