Tuesday, February 3, 2015

एक सपना

ये चाहत लिए
               उम्मीद बुने
एक सपना उठ पड़ा था

ज्यादा नहीं तो
              कम ही सही
पर हिम्मत कर चला था

जेहन से जेहन
                घुमा वो
आँखों से आँखों
                चूमा वो
मंजर फिर भी उसको न मिला

नीदों से रातें
               लड़ा वो
झगड़ो की वजह
               बना वो
मंजिल फिर भी नजरों में थी ना

ठोकर खा कर जो गिरा वो
अब जा के है ये समझा

रस्ता जो ये मेरा है
थम चल कर ही काटना

उठ जा तू उठ बढ़ जा
चल चल चल चल बढ़ जा

थम जा तू थम थक जा
थक थक थक थक थक जा

सोच जरा


क्यों दूजों की परछाईं ढुढ़े तू
क्यों इतनी खलिश पाले है रे तू
क्यों। …

नजरों में है बस नज़ारे
नजरिये ग़ुम हैं कहाँ

तुझमे जो सपना उठा था
वो खोया है अब कहाँ

घुटने छिल कर जो खड़ा वो
मरहम मरहम को तरसा

हर मुकाम की मोड़ पे जा कर
वो अब है ये बूझा

उठ जा तू उठ बढ़ जा
चल चल चल चल बढ़ जा

थम जा तू थम थक जा
थक थक थक थक थक जा

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