Tuesday, February 3, 2015

आवाजों की दुनीया

कभी आँखे बंद कर
             आवाजों से ये जहाँ देखना
शोर, हल्लों, झगड़ों की
             परतें उचाड़ कर देखना
कुछ मिले तो उसे
             पहचान कर देखना

एक चिड़िया चीख रही होगी
            किसी का पेट भरने को
जो उसे भी बस आवाज का सहारा है

ये शहर गुर्राता सा लगेगा
             चोट खाए कुत्ते की तरह
जो दूर बन रही बिल्डिंग की सलाखें घोपी जा रही है

कुछ कीड़े दिन को भी जागते है
             बकबकाते है
ना जाने किस्से क्या कहते है

हर कोनो से ठोकर खाती इन हवाओं की
             सिसकिया सुनाई देंगी
जो इन्हे दर्द तो है पर जिस्म पे निशान नहीं है

और अगर फिर भी कुछ ना सुनाई दे तो

अपने रागों को थर्राती धड़कनो को सुन्ना
उछलते दिल की नाकाम तदबीरों को सुन्ना
के कब से जकड रखा है इसे सीने की कैद में

ये जहाँ मुमकिन है
               आँखों के अंधेरों में
 नजरों के पर्दों के पीछे
                जब सिमटी आवाजे
मेरे ख्यालों के कंधे पे
                सर रख कर सोती है

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