Monday, February 9, 2015

फ्लाईओवर के नीचे वाला बाजार

इस एकांत को बाजार 
            बहुत मुदत्तों ने बनाया था
उन तदबीरों की औलादें
            आज तक वो किस्से गाती हैं

सामान, हराम, हलाल, बवाल,
            क्या नहीं बिका
खपत, लगत और मुनाफे
            के नाम पे

पर इनकी बढ़ती सड़क पे जकड से
            किसी और बड़े बाजार की रफ़्तार थम रही थी

सो एक चादर फ्लाईओवर की बिछा दी

आज भी चमकीली रौशनी से
             ये बाजार सजता है
पर पत्तंगे सब
             ऊपर से ही उड़ जाते हैं

नीचे कुछ पलायन की
            आधी लाशे भी रहती हैं
वो उन्हें भी
            कुचल जाते हैं

मैं बहरहाल एक छोटा बाशिंदा ठहरा
            तो नुक्सान की कीमत भी छोटी थी
मेरे आँगन में अब चाँद नहीं दीखता
            जो अब वो जगह 'कंक्रीट' के खम्बे ने ले ली है।


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