Friday, February 6, 2015

पिरामिड समाज का

लपेट दो पट्टियों से मुझे
के एक जख्म भी न दिखने पाएं
जो कोई फ़ायदा उठा लेगा

चपेट दो चाहतों में मुझको
के दूसरों की मुस्कान भी न दिख पाए
जो मै मंजिल से भटक जाऊंगा

समेट दे ये तजुर्बे मुझमे
के सेहमने के काम आएंगे कभी
जो आज उन्ही के डर से मरा लेटा हूँ

चढ़ा दो कफ़न नजरियों के
गिरा के ताबूत में जिंदगी की
कहोगे जिन्दा रहना है यही

और फिर
और फिर क्या
कुछ नहीं

ईट सटा ईट, ताबूत सटा ताबूत
बनाओ गे पिरामिड समाज का
के ये मजार है वजूद इंसान का

असमानता ढांचे में है,
हर कोई इसे है जनता
पर अपनी ईट हिलाने को कोई नहीं है मानता

जो थूकता है ऊपरी मंजिल से कोई
निचे वाला उसी को आपस में बाटता
फिर कहते ये नियम है न इसे कभी टालना

कभी गुस्से में थूकता हूँ ऊपर भी
वो गिरता वापस आ हम पर ही
फिर कहते है देखो कुदरत भी चाहती है यही

और फिर
और फिर क्या
कुछ नहीं

मैंने अपनी ईट खीच ली

No comments:

Post a Comment