Monday, October 13, 2014

अतीत के अतिथि

अँधेरी रातों से उजले सवेरे
काली मंदों से उठते वो चेहरे
तकते है उस रौशनी को
आने वाले कल की उम्मीद को

जहन मे भीगी तर तर वो यादें
लत से जकड़े, सिकुड़े, बेचारे

जालों में फसते
       हर मोड़ पे डरते
 सहमे हुए
       अब तो बन ही गए

अतीत के अतिथि
इस रीत में रत्ती
ना बाती, ना बत्ती
है पड़े जो ये रद्दी



थे बनना चाहे, कमल जब भी वो
कीचड़ में पड़ के कीचड़ बने वो
पहुंच भी ना पाये थे तारे फलक को
गर्दिश में गिर के, गढ़ते रहे वो

उल्फत की साँसों में कल की महक थी
टूटी कसम की, कसक थी, सिसक थी

फ़िक्र करते
        हर कसर को भरते
सहमे हुए
        अब तो बन ही गए

अतीत के अतिथि
इस रीत में रत्ती
ना बाती, ना बत्ती
है पड़े जो ये रद्दी

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