Monday, October 13, 2014

गिलहरी

मेरे आँगन आई थी एक गिलहरी आज
            दुपक फुदक के लांग कूद के
                        ढूंढ रही थी कुछ खास

कोने में पड़े एक कूड़ेदान में
           झुक के, चख के, कुछ लिया उठा
                        लौट पड़ी वो, थी जब लांगने को दिवार

मैंने उसे टोक दिया
          सच्चे मन से आग्रह किया

"और ले लो जो भी ले जा रही हो
          छुप छुप कर मत आया करो
                        क्यों इतना घबरा रही हो?"

वो पलट के बोली " माफ़ करना
          ले लेती तेरा सामान, बेहिचक, बेपरवाह
                         पर है जमाना बहुत ख़राब

शरीफों के लीबाज बिकते है अब, मुफ्त काले बाजार
भरोसा बेच आई हूँ, चंद लम्हा जिंदगी बढ़ने को

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