Thursday, December 8, 2016

मैराथन

दम लगा रे।
दम लगा रे। 
दम लगा ना

आजमाना खुद को
तो लगा ना
- 2

फासला अभी है
पर ज्यादा दूर नहीं है
फासला अभी है

एड़ियों के दम पे
दम लगाना। .....

माथे के ये पसीने
चले फसलों को पीने
हाथों की मुट्ठी खिंचे
आ तू

सीने के ये पतीले
हाँफें, सांसों को खींचे
गर्मी की भाप बन
आ तू

फीतों से है बंधी
दो पैरों की ये जोड़ी
भागें चड़ें दौड़े
ना थामें

गलियां चौराहे
पैरों से हैं सब नापे
जब भी पकड़े सड़क 
ना रुकें

फासला अभी है
पर ज्यादा दूर नहीं है
फासला अभी है

एड़ियों के दम पे
दम लगाना। ....

Wednesday, November 9, 2016

एकांतवास

एक आदमी पर्वत के एकदम नीचे,
पत्थर पे, पत्थर से, पत्थर की भाषा लिख रहा है
लिख रहा है पत्थर को ,
एक पत्थर सी भाषा में।

पत्थर जो अगर काटे जायें,
जोड़े जायें, तो बन सकते हैं ईमारत तक।
कड़े जबड़ों की ईमारत
ईमारत पर्वत सी
जिसे वो पर्वतारोही
चढ़ रहा है
पढ़ रहा है
धीरे धीरे

आज सुबह ही उसने
गरम किया है अपना नाश्ता
पत्थर के चूल्हे पर लकड़ियों से
लकड़िया, जिन्होंने सीखा है
पत्थरों को काट के उगना

वो भी कुछ ऐसा ही सीखना चाहता है
सीख रहा है
उसकी उँगलियों पर पत्थर के स्वाद हैं

पर्वत को चढ़ना
ईमारत को चढ़ने जैसा है
जिसकी आखरी मंजिल तक पहुचना
जिंदगी भर का काम है
मंजिल चोटी है
चोटी तक पहुचने की सनक
सिर्फ पर्वतारोही समझ सकता है

पत्थरों पे पत्थरों से टिकी चोटी
जिसके सारे कोण को समझ कर वो
चढ़ जाना चाहता है
पर्वत को
और महसूस करना चाहता है
एकांत जो इन पत्थरों ने नसीब किया है
एक दूसरे पर चढ़ के
एकांत पत्थर सा

उसने बांध ली है पेटी
जिसका वजन कमर से एड़ी
और एड़ी से जमीन तक फैला हुआ है
वो चढ़ रहा है उस जगह तक
जहाँ जंगल के जानवर
इंसानो से डरते नहीं
वो बोलते रहते हैं अपनी अपनी भाषा
जिन्हें वो समझता नही
वैसे वो अब इंसानो की भाषा भी नहीं समझता
पत्थर की भाषा जो सीख रहा है

वो जानता है पत्थर से पत्थर टकराने की आवाज
आवाज भाषा नहीं है
पतली मिटटी जो पानी संग बह जाएगी
पत्थर की भाषा का पतन है
मट्टी जो बनेगी गेंहू, आटा, आदमी और आदमी की भाषा
पर पत्थर की भाषा नहीं
पत्थर की भाषा
पत्थर में है।

इमारत की आखिरी मंजिल पर बैठा
वो आदमी जानता है की
कितना कठिन है
पत्थरों की इस भाषा को सीखना
इसे सीखने में
उसकी उँगलियाँ जुबान हो चुकी हैं
फेफड़े पतली हवा ले चूल्हे हो चुके हैं
और टखने हो चुके हैं पत्थर

वो चोटी पे बैठा आदमी
देख रहा है दुनिया को दूसरे कोण से
और बोल रहा है
पत्थरों की भाषा
जिसे कोई नहीं सुन सकता
                      समझ सकता






Monday, October 24, 2016

एक सुबह की हताशा

"इस शहर को इन आवारा जानवरों से मुक्त करना चाहिए
बगैर इन्हें हटाये विकास नहीं हो सकता "

एक आवारा कुत्ते की मौत पे कुछ यूँ मातम बनाया गया

उसके गर्दन पे फटे चमड़े से बहते लहू ने
ना जाने कितनों की सुबह बर्बाद की
मगर सबकी नहीं
सामने वाली कोठी में रहते
बूढ़े चाचा स्मृतियों में खो गए
कुत्ते की मौत पे
और याद कर बैठे अपने बचपन के पालतू कुत्ते को
जिसे साप ने डस लिया था
कुल तीन महीने हो चुके है
वो बिस्तर से उठे नहीं हैं
इन्तेजार मे हैं डसे जाने के

अगर ये जानवर जंगल मे मरा होता
तो क्या सब मातम बनाते
या वहाँ भी कोई खुश होता
मुफ्त का गोश्त खाने को

महात्मा का अधूरा आंदोलन

शहर के ऊपर उड़ते पंछी
हर शाम, हर सुबह
निकल आते हैं
महात्मा का अधूरा आंदोलन लिए
एक अहिंसात्मक आंदोलन।

वो उड़ते रहते हैं दिन भर
चहकते, बिलखाते
सुनने वाला शोर का आदि हो चूका है।

वो उड़ते रहते हैं
के कब ये महासमर रुकेगा
कब वो भागता आदमी एक बार ऊपर देखेगा
समर जारी है।

वो दिन में बैठ आते हैं
लंबी इमारतों की खिड़कियों पे
आंदोलन लिए
उस दिन के लिए
जब खिड़की वाला खोलेगा कुण्डी
हवा का रुख देखने
सहानभूति से।

सहानभूति, हाँ! महात्मा वाली सहानभूति
कच्ची मिटटी की सहानभूति
जिसे पकने में मजदूर का श्रम,
सांचो का आकर, भट्टी की आग
और एक लम्बा वक़्त लगता है।

शाम होते ही वो उतर आते हैं
चौराहे पर खड़े अकेले पेड़ पर
जिसके पत्ते दिन की धूल चाट चाट
काले पड़ चुके हैं।

वो उतर आते हैं
रेल के प्लेटफार्म पर
छज्जों के नीचे
छज्जे जो उनके घर नहीं हैं
छज्जे जो पेड़ की छांव नहीं हैं
वो जानते हैं के यहाँ घोसला नहीं बन सकता
बस देह टिकाने की जगह मात्र हैं।

वो जान चुके हैं की
इंसान कब सोता है कब जगता है
इसी लिए उन्हें हमदर्दी है
उस प्लेटफार्म के चौकीदार से
जो कभी नहीं सोता
और बदले में वो उस पर बीट नहीं करते
वो बीट करते हैं उस सफ़ेद कमीज पर
जिसका मालिक सुबह ६ बजे
उठ कर प्लेटफार्म पर ऊंघता रहता है
सोने के लिए।

अहिंसात्मक आंदोलन हमेशा अहिंसात्मक नहीं रहता।




Friday, September 30, 2016

अवसाद में

ए तुम्हे पता है ना
के कितना कुछ बदल जाता है
तुम्हरे बिन

जब दोनों साथ में लेटते हैं
एक दूजे की सांसे चुराते हुए
ज़माने से

अकेले मैं ठंडा पड़ जाता हूँ
जब सांस लुटा आता हूँ
जैसे ठोकर खोये को पुछा नहीं हों किसी ने
कई दिनों से

उधड़े मांस पे फटे निशान
मेरी दिशाएं तुझपे
बढे तापमान सा तेरा लहू
तुम्हे छूना, जिन्दा होना
गर्माहट सा
तुम्हे न छूना जिन्दा हुए जाना
ठण्ड सा

तुमने कुछ टाके थे काटे
मुझपे
लगता है पचपन साल बाद
अगर खो भी दूँ एहसास
याद कर के खुश रहूँगा
काटे हुए वो निशान
अवसाद में

नीला आसमान टेढ़ा हो चूका है
पंछी बवंडर मचा रहे हैं
मेरी पीठ पे झुनझुनी सी है
मेरे पाँव गल से गए हैं
मेरी आँखों की कोख में तुम बैठी हो
नहीं, उम्मीद की तरह नहीं
एक लम्बी रिसती याद सी   

Monday, August 29, 2016

नवाबी

ऐ हुजूर, ओ हुजूर, जी हुजूर
ऐ हुजूर, ओ हुजूर, जी हुजूर


अरे नवाबी , अहा नवाबी , ओहो नवाबी
छाये रे .....

फूल स्पीड में सड़क का गड्ढा कभी नजर ना आवें रे .....

अरे नवाबी , अहा नवाबी , ओहो नवाबी
छाये रे .....

अरे हियँ सट्टावें, हुआँ सट्टावें छुरा नजर ना आवें रे ....

अरे नवाबी , अहा नवाबी , ओहो नवाबी
छाये रे .....

अरे ता था थैया
कभी पासा पहिया
भाई प्यादा भटका जावे रे .....


अरे नवाबी , अहा नवाबी , ओहो नवाबी
छाये रे .....

अरे खुजली मचती जाये रे
अरे तलवा चाटता जाये रे
अरे परफ्यूम नहीं लगाए रे
अरे गंजा मांग बनाए रे
अरे...

अरे क्या ?

Friday, August 5, 2016

पानी में दिखने वाला आदमी

वो मुझे अक्सर दिखता था वहम मे, अनजाने मे
वहम, जेहेन में ज्यादा देर टिकता नहीं, बारिश के पानी सा 

वो अचानक से टिक जायेगा 
इसका अंदेशा मुझे था नहीं 
वैसे बारिश के पानी भी टिकते हैं 
गहराई में, शान्त 
आपको दीखते नहीं 
इसका मतलब ये नहीं की वो टिकते नहीं 

वो भी शांत ही रहता था, मूक 
बेजुबान सा मुझे गूँधता रहता 
कहीं तो गहराई में 
सच कहूँ मैंने कभी जनने की कोशिश नहीं की 

मैं कठोर सा जब ज़माने पे गुस्सा 
बारिश में भीगता रहता था
वो अक्सर मुझे सड़कों के गड्ढों में 
घुलता सा दिख जाता था 
हालात के हिलकोरों में झूलता हुआ 

अक्सर कोई आती जाती गाड़ी 
मुह कुचल देती थी उस गड्ढे का 
पर कुछ वक़्त में 
वो फिर वहीँ होता था 
हालात को मजबूर करता हुआ 

मुझे नौकरी मिल गयी 
ना कुचले जाने की 
मैंने खुसी से उस सड़क के किनारे बैठी भिखारन को 
उम्मीद से ज्यादा पैसे दिए 
तब मुझे बोध हुआ 
बेरोजगारी का 
बार बार कुचले जाने का 

पानी में रहते आदमी में 
मुझे एहसास दिलाया 
परछाईं महज रोशनी में रखी वस्तु की नहीं होती 
वस्तु भी परछाईं होती है
फर्क रौशनी के पड़ने का है 

रौशनी मुझपे नहीं पड़ी 
और आज मेरी नौकरी चली गयी 
पर मैं बेरोजगार तब हुआ 
जब उस भिखारन ने मेरी भीक वापस कर दी
और बदले में रख लिया थोड़े सा बारिश के पानी
जहाँ वो आदमी अक्सर दिखा करता था   


Tuesday, August 2, 2016

आजमा ना

आजमा ना आजमा ना
आजमा ना आजमा ना

ना मिलेगी ये जमी
ना मिलेगा आसमां

ढूंढता हूँ मैं जिसे
वो यहाँ रहता भी क्या?


हलके कागजों से बने
तिनके तिनके सपने

हलके कागजों से बने
तिनके तिनके सपने

बचपन की लहरों पे चल पड़े

छोटे भी, खोटे, भी सब खिलौना रख लिए
कट्टी कर के इस जमाने से चल दिए

पर न मिला वो ठिकाना
चलता रहा आजमाना


हर खिलौना, छूट गया
कागजों का, ये जमाना

हर खिलौना, छूट गया
कागजों का, ये जमाना

ना रही मेरी जमी ये, ना रहा आसमां
अब तो बस कर ऐ जिंदिगी आजमा ना
आजमा..... ना.....

आजमा ना आजमा ना
आजमा ना आजमा ना

आजमा ना आजमा ना
आजमा ना आजमा ना

आजमा ना आजमा ना
आजमा ना आजमा ना

Sunday, July 24, 2016

एक पका हुआ सा आदमी था

एक पका हुआ सा आदमी था
ऐसी फसल सा जिसे देख के
आने वाले कई अकाल अंधे पड़ जाएँ
भूखे की सूखी नब्ज फूल जाये
बसंत का त्यौहार, त्यौहार कहलाएँ
पके फलों सा, वो आदमी था

चपोत के रखता था बचपन
सहेज के अलमारी में, कपड़ों सा
वहाँ से अकाल सच में नहीं दीखता था

उसके पाँव का अंगूठा
मेरे मुठी बराबर
और मुट्ठी थाम वो कहता दुनिया मुट्ठी बराबर
तो क्या अंगूठा मुट्टी बराबर ?
या दुनिया अंगूठे बराबर ?

एक पका आदमी था मेरे पास
थोड़ा पके पके बालों वाला पका पका
पानी से भरी चमड़ी वाला
जो हर खरोच पे फट जाये
बड़ा समतल सा आदमी था
फटने से पहले
पकी खुसबू से बसंत को भरने

पके आदमी का और पक जाना
आँखों के नीचे वक़्त गाला के भरते जाना
झुर्रियां बनाना, ये बुरी बात नहीं
क्योंकि पका आदमी कभी रोता नहीं
मुझे हमेशा मन करता है
उसकी झुर्रियों को सहला के
हलके हलके दबाने का
कब से इकठ्ठा करे वक़्त को
आँखों से निकालने का
जैसे बसंत के आम की चोपी छूट आती है तोड़ने पे
और घाव दे जाती है चमड़ी पे छूट जाने पे
मन करता है वैसे ही कुछ घाव
अपने साथ ले आने का

पका आदमी हर सुबह सहेज के रखा जाता है
डब्बों में, कार्टून में, और भेजा जाता है बाजार में
जाते जाते वो मिझे अलविदा कहना नहीं बहुलता
वो पूरे दिन वहाँ मुह टेढ़ा करे बैठा रहता है
के किसी ग्राहक को पसंद नहीं आ जाये
और हर शाम बिना बीके वापस आ जाता है
मुझे कच्चा देखने

उसने आज अपनी सर्दी की शाल
अलमारी में रख दी है, चपोत के, सहेज के
और हस कर बोला है, "चलो मेरे गांव चलो"
"बसंत आया है ", और मैं रस्ते भर सोचता रहा
के बसंत इसका कौन सा रिश्तेदार है
जिसे ये इतना मिलना चाहता है

पके खेत के बीचो बीच खड़ा पका आदमी
हवा के विपरीत देखता, पके आम सा आकर्षक लग रहा है
पके खेत, पके बाल उसके विपरीत हवा से दिख रहे हैं
पर मैं, मैं तो होठ के कोने पे चोपी का दाग लिए
पका आम खाता रहा

Sunday, June 19, 2016

डायरियों के पन्ने भरने

खून से पुते पत्ते, पन्ने

कहानियाँ लिख रहा हूँ ,
जीवन

क्या आदमी जरूरी है ?
एक आवाज सा
मेरी कहानी के लिए ?

मेरी पुरनी डायरियों पे
पपड़ियाँ उभर आई हैं
जखम भर रहें हैं शायद

मुझे अफ़सोस है
ये अफ़सोस ही तो है
मेरी जिंदगी
अफ़सोस से जिए जाना

रेल गाड़ियों पे छूटे अफ़सोस
उसकी आँखे ओझल हो गई हैं
इंजन की आवाज में

अगर रिश्ते धागे हैं
तो कितने धागे टूटे पड़े हैं मेरे सामने
प्लेटफार्म इन्ही धागों के कूड़े से लदा पड़ा है

मेरा पिछला टुटा धागा भी यहीं कहीं पड़ा होगा न
इसी गुथ्थे में कहीं
"मिल नहीं रहा !"

"मुझे अस्पताल ले चलो "
कोई चिल्ला रहा है
मैं भी ये ही चिल्लाता था पहले

मैं घाव सहित अभी तक टहल रहा हूँ
इलाज फ़िलहाल अभी तक बना नहीं

और इसी लिए समझ सकता हूँ
क्यों किसी ने मदद नहीं की थी
मुझे घाव लगने पर
मेरा घाव उनका घाव होना था

मखियाँ भिनभिना आई हैं
उल्टियां करने मेरे घाव पे
किसी और के घाव की
खून की, मवाद की

पता नहीं कितने घाव चाहिए होते हैं
लाश बन्ने के लिए

पास मेरे कोई तो हस रहा है
जो हस रहा है
वो घाव में हस रहा है क्या ?

मुझे अब तक नहीं आया घाव में हसना
शायद मेरा घाव छोटा है
बड़े घाव वाले ही दिल खोल के हस पाते हैं

अब तक मेरा नया उधड़ा धागा भी
खो चूका है
पुराने उधड़े धागों में

ट्रेन तो अगले प्लेटफॉम तक पहुंच चुकी होगी न ?
और धागे उधेड़ने ?

लहू का स्वाद चख कर मखियाँ जा चुकी हैं
मुझ लंगड़ाते को अकेला छोड़ कर

मैं स्मृतियों को फाड़ कर
पट्टियां बदल रहा हूँ

और पुरानी पट्टियों को चिपका रहा हूँ
डलियों पे पत्तों सा

के अब फिर घर को जाना है
ये सब कुछ लिखने
फिर से
डायरियों के पन्ने भरने



  

Saturday, June 18, 2016

बारात की भीड़ में

एक वक़्त जा रहा है
   जा चूका भी है

इस तूफान का अंत कहाँ है

यार धुल बहुत है
तुम सुनाई दे रहे हो
पर दिख नहीं रहे

ज्यादा दूर नहीं
पर बहुत दूर

मुझे पता है तुम भी यहीं हो
                            फंसे

हिस्सों में दिख भी जाते हो
तो आसमान लगते हो
जो कभी भी पूरा मिला नहीं

बहुत पुराना शहर है
हर दिन कोई दिवार गिरती ही रहती है यहाँ
हवाएं आखिर जीत ही जाती है
आँधियाँ आषाढ़ की

शायद फिर अब कभी ना मिले वो चमक
आँखों में हमारे तुम्हारे
पर चमकेगी रेत आँखों की
चाँद के चढ़ते ही

"मैं सुन सकता हूँ तुम्हें
जरा जोर से बोलो "

"खैरियत रखना "

इस धुल धुंध में
दुन्धला के रहना

"बस यार खैरियत रखना"




Monday, May 23, 2016

नीले मेघा

ये सावन, ये भीगा सा सावन
छप से मुझे छू कर गया

झीनी सी चादर में
छनते हुए बादल ने
बूंदों को झटक दिया

नीले मेघा, नीले मेघा
टप से गिर, छलके जा

नीले मेघा, नीले मेघा
टप से गिर, छलके जा

Wednesday, April 13, 2016

नीले चकत्ते

पीला और नीला। दो रंग। अलग रंग।मगर कितने अलग, ये बस महसूस किया जा सकता है समझाया नही जा सकता। ठीक इंसानो की तरह। इंसान अलग होते हैं, सब जानते है मगर कौन कितना अलग है ये शायद कोई नहीं बता सकता। औलादें तक अपनी माँ से इतनी अलग हो सकती है? ये वो सोच रही थी।

"नीला पीला हरा लाल भूरा नारंगी सफ़ेद सब रंगों के कुर्ते है, सब के सब अच्छे, भाभी जी आपकी पसंद पर है। मेरा मानना है रंग अलग होते हैं मगर सभी रंगों को खुसनुमा बनाया जा सकता है बस कारीगर में कला होनी चाहिए। ये सब ब्रांडेड है जी। अब आप ही बताइये काला भला कब किसी जश्न में अच्छा लग सकता है। पर इस काले कुर्ते को देखिये सरे रंग फीके पड़ जायेगे इसके सामने। ये बॉर्डर पर पूरा जरी का काम है। वजन तो देखिये कुर्ते का। कपडा जानदार है। मुझे आँखों पे विश्वाश नहीं हुआ  की  काला भी इतना सुन्दर हो सकता है।" उसने ये कहते कहते अपने भारी बड़े झोले में से एक और कुर्ता निकाल कर सबके सामने रख दिया। पता नहीं क्यों इस 'इंटरनेट' के ज़माने में जहां एक 'क्लिक' पर हजारों कपडे आ जाते हैं, लोग फिर भी उस पंजाबन को अपने घर बुला बुला कर कपडे खरीदते थे। "उसे फैशन की समझ है " ऐसा बगल वाली वर्माइन बोलती थी। किसी को उसकी बातें अच्छी लगती थी। किसी को उसका 'कलेक्शन'। पर जो भी हो वो एक सफल व्यापारी थी। उसे रंग दीखते थे। वैसे नहीं जैसे हम सब को दीखते है। उसे माहोल में रंग दीखते थे। जैसे दिन में बेचते वक़्त उसे हरा रंग महसूस होता था। वैपार उसके लिए ज्यादातर हरा ही था। इन रंगो का कोई मतलब था, नहीं था, पता नहीं पर उसने अपने आप को इस हाल में ढाल लिया था।

काला था उसकी शादी का रंग। ऐसा नहीं था की वो उदास थी। उसे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। ना अच्छा ना बुरा। और शायद इसी लिए उसे इतना बुरा भी नहीं लगा जब उसे पता चला की उसका पति 'गे' है। उसने शादी से बहुत उम्मीदें नहीं थी। वो रात को उठी नारंगी रंग के साथ और बालकनी में जा कर ठहाके मार कर हसने लगी। उसकी हसी उसके शांति से कम भयावनी थी। उसके पति ने अगली सुबह उससे माफ़ी भी मांगी। पूरे तीन महीने लगे इस बात को गलने में। उसके पति ने साफ करा की अगर वो चाहें तो तलाक दे सकती है या शादी में रह के अपनी मर्जी से सम्बन्ध बना सकती है। इन सब के बाद ऐसा भी नहीं था की उसकी जिंदगी में कुछ अच्छा हुआ ही नहीं। सबका तराजू बराबर होता है मरने से पहले।

पीला था वो रंग जब उसकी बेटी पैदा हुई। वो उस वक़्त सच में खुश थी। उसकी शादी की बनावटी सी मुस्कान नहीं थी। या वो बनवटी उदासी जो उसने अपने पति के मरने पर ओढ़ ली थी। वो सच में खुश थी। हाँ वैसे ही जैसे बचपन में खिलौना मिलने पे हम खुश होते हैं और उसे घंटो निहारते रहते हैं। उसने अपने रंगो की आदत को अपनी बेटी में देखा और उसे रंगोली नाम देना चाहा। पर उसके पति ने किसी पसंद की 'नावेल' के किरदार पर उसका नाम त्रिशला रख दिया। वो पहली बार था जब उसे इतना गुस्सा आया की सारे रंग गायब से हो गए और वो पल भर के लिए घबरा गयी। पर चुप्पी कि आदत बरकार रखते हुए उसने कुछ ना बोला। जब पति ने अपने समलैंगिक होने की बात सामने रखी और तीन महीने बाद उसकी मर्जी को वजन दिया तो तराजू घुमा। उसने तलाक नहीं माँगा। उसने त्रिशला को रंगोली बना दिया।

नीला था वो रंग जब उसे पता चला के ये रंग सच्चे नहीं है। इन्हे हर कोई नहीं देख सकता। ये हादसा भी कम भावुक नहीं था। उसने जब जज के सामने गवाही दी तो सब हस पड़े। उस समय पंजाब मटमैले रंग में सना था और और मटमैला होने जा रहा था। एक भावी खालिस्तानी ने उसके किसी रिश्तेदार को खेत में मार दिया। पेशाब करते हुए इसने उसे मौकाए वारदात पे देख लिया। हादसे के बारे में जब उससे पुछा गया तो वो सिलसिलेवार सब बताती गयी। "जी नीला था सब , दवात सा.....  उस आदमी के  चहरे पे नील फैली हुई थी और चाचा का चेहरा नील से सना हुआ "। "बेटा किस नील की बात कर रही हो , क्या वहाँ खून था ?" जज ने पुछा । वो हौसले के साथ बोली "जी वहाँ खून तो था , चाचा जी के पूरे शरीर पर खून था , मगर उस आदमी के चेहरे पे एक नीली सी पापड़ी थी हो हवा तक मे फैली थी और चाचा के चहरे पे वही नील गुदी हुई थी, जैसै दवात में भीग के कागज गुद जाता है "। जज ने उसकी बात समझने की कोशिश की पर ये अनुभव सबके सर के पार था। विरोधी दल के वकील ने इस हालात का सम्पूर्ण फायदा उठाया और अपने मुवक्किल को सजा मिलने से बचा लिया। जो उपहास उड़ा उसका पंजाबन के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। मर्दों से घिरी सभा में वो सिर्फ एक स्त्री के रूप में ही अलग नहीं थी बल्कि एक अनजान अनोखे अनुभव से ग्रस्त पागल भी थी। उसने अपने महौल्ले के बच्चो के साथ खेलना बंद कर दिया और पंजाब की हवाएं बदलने लगी। उसके बाप ने बदलते मौसम को भांपते हुए शेहेर बदला और फिर प्रदेश भी। इस आवाजाही में २ साल बीते। लखनऊ वो शहर था जहा किनारा मिला। इस उथल पुथल ने उसे सम्हलने का मौका नहीं दिया और नीला रंग उसके साथ चिपक सा गया। जैसे शीशे को गरम ठंडा कर आकर देते हैं, रंग देते हैं कुछ वैसे है नीला रन उसकी चमड़ी पर चिपक सा गया था और जो बीच बीच में चकत्तों सा उभर आता था।

काला ही था उसके पति के निधन का रंग। उसे शादी की याद आ गयी। शादी में सबसे अच्छा हिस्सा वही था जब उसे सजाया जा रहा था। चुनरी मे बिखरे रंग, रंग थे, रंगोली थे। वो रंग महसूस कर रही थी। फिर गलियों में रेंगती हुई एक चमकीली बारात आई रात भर ठहरी और उसे ले गयी। उसके इस ख्याल की कतार को अर्जुन कोहली ने अपनी अकड़ी आवाज से तोड़ दिया। अर्जुन सेठ था। लखनऊ में उसके कई व्यापार थे। जिसमे कपड़ों का व्यापार भी शामिल था। "तुम चाहो तो मेरे अमीनाबाद के शोरूम में बैठ सकती हो " उसने रंगोली को गोद से उतारा। "तुम समय लो , कोई जबरदस्ती नहीं है " । कुछ देर शांत रहने के बाद फिर बोला " जसप्रीत ने शायद तुम्हे मेरे बारे में बताया होगा। तुम्हारी और रंगोली की कुछ जिम्मेदारी मेरी भी है। तुम जब चाहें मुझसे मदद ले सकती हो बस किसी को ये बात बताना नहीं। " वो रंगोली को उसके गोद में छोड़ कर चला गया। उसका मन तो नहीं था मगर उसने अर्जुन का दिया हुआ प्रस्ताव मान लिया। वो चाहती तो अपने पति का वैपर बेच कर कुछ सालों की अंदनी कमा सकती थी मगर फिर देवर से झगड़ा करना पड़ता और मामला तब कचेहरी तक जा सकता था। उसे अपने पिता के पास जा कर फिर से एक कमरे भर में कैद भी नहीं होना था। अर्जुन का प्रस्ताव ना सिर्फ उसे आजादी दिलाता बल्कि उसे रंगो से भी करीब करता।

 लाल रंग के साथ आई बेला, जो अर्जुन के शोरूम का सारा काम सम्हालती थी। कहने को अर्जुन की बेहेन हर दिन दुकान पर बैठती थी पर उसे व्यवसाय की उतनी समझ नहीं थी। बेला छोटे से कसबे से लखनऊ तक बड़ी मेहनत से आई थी। उसके बाये हाथ पर गहरे से चोट का निशान था जिसके चलते वो बायाँ हाथ सही से चला नहीं पाती थी। पर उसकी फुर्ती और बातों की चहक उसकी अपंगता पर पर्दा सा डाल देता था। पंजाबन को बेला का साथ मिलना एक अच्छे वक़्त की शुरुवात सा था। पंजाबन अपने रंगो की पकड़ से कपड़ों को खूब पहचानती थी। उसके ग्राहक कभी खली हाथ वापस नहीं जाते थे। बेला ने उसकी ये खूबी को खूब पकड़ा और जल्द ही थोक बाजार की खरीद फरोक में उसे अपना सहपाठी बना लिया। रंगोली में भी रँग दिखने लगे थे। वो भी अब स्कूल जाती, दुकान पर बैठती, शाम को खेलती और रात में माँ से बाते करती। उस साल जब पंजाबन ने बालों में मेहँदी लगाना शुरू किया और रंगोली ने नौंवी का इम्तिहान पास किया। एक शाम बेला शराब पीते वक़्त बोली।
"तू कमाल का बिज़नेस करती है, तुझे तो खुद का काम करना चाहिए। तेरे कस्टमर सबसे वफादार कस्टमर हैं , हमारी दुकान को एक तिहाई कमाई तो सिर्फ तुझसे होती है। ये मोटी सेठानी से मेरा मन जल चूका है। न कुछ करना आता हैं न अपना शरीर हिलाना पड़ता है।बस हमारी मेहनत खाती रहती है।" 
"पता है मुझे, पर सब कुछ पूंजी है , उसके पास पूंजी है हमारे पास नहीं , हमे हमारे काम के पैसे पक्के मिलेंगे, उसे उसकी लागत के पैसे मिले न मिले पता नहीं।  बड़ी चिकचिक है बिज़नेस में, देखो न सब डिप्रेशन के शिकार रहते है जैसे गर्दन पे छुरी लटका के घूम रहे हों "वो थोड़ा मुस्कुराई ।
"देख डिप्रेशन का शिकार तो तू भी है वार्ना अभी ये शराब न पी रही होती , देख बाजार सिर्फ पूंजी से नहीं चलता जान पहचान से भी चलता है । बारा साल मैंने ऐसे ही पसीने से पानी थोड़े ही किया है मेरी भी पहचान है। अपने नाम पे सामान उठा सकती हूँ बस तुझे बेचना होगा "
"आज पहली बार नहीं है जब तू दारु के नशे में ऐसा बोल रही है। पर पता है हम दोनों गिरगिट हैं।"
"मतलब "
"दिन भर जिस दुकान में काम करते हैं शाम को उसी दुकान के ऊपरी गोदान में बैठ दारु पीते हैं। रंग बदल के उसी दुकान को गाली देते हैं। उसी दुकान को लुटने की सोचते हैं और अगली सुबह सेठानी के सामने पुराने रंग में फिर से वही काम करते हैं जो हमेशा से करते आएं हैं "
वो दोनों दुकान के ऊपर वाले गोदान की खिड़की से अमीनाबाद को देखते रहे। बाजार रात की दवात में भीग चूका था और स्ट्रीट लाइट बीच के बचे कुछे कागज सा लग रहा था।

"हरा बनता है नीला और पिला मिल के माँ, पता है " रंगोली ने अपनी माँ से बोला। पंजाबन मुस्कुरा पड़ी उसने हफ़्तों बिताए थे अमीनाबाद की उस गली में जहाँ खौलते रंगों में कपडे रंगे जाते थे। गली नहीं, मानो रंगों की हवेली थी वो सड़क। सड़क तक पे रंग बिखरे होते थे।अमीनाबाद उसकी नजर में एक भव्य जंतु था किसकी पसली पसली में इंसानो की जरूरतों का वैपार चलता है। अमीनाबाद अब तक की उसकी एक तिहाई जिंदगी थी। पिछले दो तिहाई जिंदगी के कई किरदार अब तक जा चुके थे, जो परिवार थे और इस एक तिहाई जिंदगी में और कई किरदार अये थे जो परिवार नहीं थे पर परिवार जैसे थे। सब हादसे से आते थे हादसे से जाते थे ख़बरों के लिफाफे में।
"इन्ही हादसों को इकठ्ठा देखो तो जिंदगी लगती है, घबराओ मत " बेला पास में बैठी सभी औरतों से बोली। ये सारी औरतें अर्जुन की दुकान में कर्मी थी।
"मगर दीदी काम तो चाहिए न" उनमे से एक बोली।
"मैंने अर्जुन साहब से बात करुँगी। पर मैंने सुना है की कोई बड़ा हादसा हुआ है अर्जुन साहब का काफी नुक्सान हुआ है उसमे , उसी की भरपाई के लिए ये स्टोर बिक रहा है । सेठानी की भी तब्यत ख़राब है। जो नया मालिक आएगा वो भी हमे नौकरी दे सकता है। तो घबराओ मत। बात करेंगे। एक डेढ़ महीने में कुछ न कुछ निकले गा। तब तक नौकरी की तलाश करना शुरू करो।.... " बेला बोलती रही मगर पंजाबन खोई रही अपने आकड़ों में के कैसे घर चलेगा, रंगोली की टूशन की फीस और बाकि खर्चा। पर अगर ये सब निकाल भी लिया अपनी पुरानी बचत से,  तो आगे कॉलेज भी है और फिर शादी।
"कोई अंत नहीं है इन समस्याओँ का " बेला पंजाबन की ओर देखते हुए बोली।
"हमे साथ रहना होगा, चलो कल मिलते हैं " सब जाने लगे। बेला ने पंजाबन का हाथ पकड़ उसे रोक लिया।
"चल आज मेरे घर दारु पीते हैं " उसने कहा। पनजबन ने ना हाँ बोला न ना। उसका घर २ कमरों की बिना रौशनी वाली कोठरी थी जहाँ हमेशा एक सी. ऍफ़. अल. जलता और एक अधमरा सा आदमी बिस्तर पर पड़ा रहता था। उसमे तमाम तरीके की टयूब खोसीं हुई थी। उसके कारण कमरा घर कम अस्पताल ज्यादा लगता था। पंजाबन के पूछने से पहले ही बेला बोल पड़ी "वो मेरा पति है और हाँ वो कोमा में है पिछले कई साल से "। ये सब देख उसका मन सिकुड़ सा गया इतने सालों की दोस्ती में वो बेला के बारे में इतना भी न जान सकी, इस बात का उसे अफ़सोस था। उसे चार पेग लगे सम्हलने में। उस शाम लम्बी बात हुई बेला के पति से ले कर अर्जुन के व्यापर तक। आखिर में सिगरेट का धुआं सीने से उड़ेलते हुए पंजाबन बोली "तू हमेशा बिज़नेस करने को कहती थी न चल अब बिज़नेस करते हैं "। बेला हस पड़ी और एक हरा रंग फ़ैल गया।

"लाल साड़ी में फॉल लगा देना और वो लहंगे का डिज़ाइन फाइनल कर दिया है दीदी जी ने उसे बनने के लिए डाल दो" पंजाबन काम में मशरूफ थी। एक छोटे से बेसमेंट में शुरू करा हुआ बिज़नेस चल पड़ा था।शुरुवाती कुछ महीनो में अर्जुन आया था उसे वापस काम पे रखने के लिए उसकी भी तब्यत थोड़ी ढल सी गई थी, पर पंजाबन तब तक आगे बढ़ चुकी थी और वापस मुड़ना जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना था। बेला ने चार - पांच लड़कियों को जुगाड़ा, थोक बाजार से सामान उठाया , पंजाबन उसकी परख करी और घर घर जा कर सामान बेचना शुरू करा। कुछ वफादार  ग्राहकों ने साथ दिया और पंजाबन ने उन्हें निराश नहीं होने दिया। अब अक्सर शादी के मौसम में हजरतगंज से ले कर गोमती नगर तक कई घरों में उसे बुलाया जाता जहाँ वो पूरे घर भर के लिए कपड़े दिखाती। वक़्त वक़्त पर लोग जुड़ते गए, कपड़ों की सिलाई से ले कर फिनिशिंग तक सारा एक नेटवर्क सा बन गया और पंजाबन उसे संचालित करने का काम करने लगी। रंगोली भी इंजीनियरिंग की पढाई करने ग़ज़िआबाद चली गई थी। पंजाबन उसकी पढाई को ना तो ज्यादा समझती थी ना ही ज्यादा पूछताछ करती थी। पर उसे बड़ा होता देख उसे ख़ुशी जरूर होती। कभी कभी जब वो अपने बाल रंगती तो भूरी हुई शामों का भूरा बिता वक़्त दिखाई देता।

नीले चकत्ते से उभर आए थे। रंगोली के कॉलेज से जब फ़ोन आया। पंजाबन अपने देवर के साथ तुरंत गाजियाबाद पहुंच गई और रंगोली को वापस ले आयी। रंगोली एक दम शांत सी है गयी थी। एक अक्षर भी नहीं बोल रही थी। कॉलेज के डॉक्टर ने मनोवैज्ञानिक को दिखने की सलाह दी। रंगोली की ऐसी हालत दिन बा दिन उसे पंजाबन की आखों में सफ़ेद करती जा रही थी। "आपकी बेटी को डिप्रेशन है , मैंने एंटी-डिप्रेस्सन्ट्स लिखी हैं आप इसके डोज़ का ख्याल रखिये गा और हर हफ्ते कौन्सिलिंग करवाइये, ये ठीक हो जायेगी"। अब रातों को उसके बालकनी के फेरे बढ़ गए। वो सिगरेट के धुओँ के बादलों से भरी रहती। अगर जरा सा भी खली होती तो ऐसा लगता जैसे कोई नारंगी हाथों से उसके दोनों कंधे नोच रहा हों। इन सब की दोषी पंजाबन थी , ऐसा नहीं था , पर इसकी शुरुआत पंजाबन से ही हुई थी। पंजाबन के संघर्ष को रंगोली ने जिंदगी भर देखा था। उसे अपनी माँ में एक अलग सी ताकत दिखती थी जो उसे दुनिया से बचाए रखती। उसे अपनी माँ पर बहुत फक्र था और वो उसके लिए बहुत कुछ करना भी चाहती थी। किसी ने कहा "पढाई करो बोर्ड में अच्छे मार्क्स लाओगी तो माँ को बहुत ख़ुशी होगी","अच्छे कॉलेज में जाओगी तो माँ की मेहनत सफल होगी "। रंगोली ने खुद को झोक सा दिया खूब पढाई की। महंगी कोचिंग में दाखिला लिया। पंजाबन भी उसी वक़्त अपने नए बिज़नेस में लगी हुई थी उसके आस पास होती उसकी वाह वाही ने रंगोली की आकांक्षाओं को और भी बढ़ा दिया। मगर उम्मीदों के विपरीत न तो अच्छे मार्क्स आये न ही अच्छा कॉलेज मिला। एक स्टेट लेवल का कोई प्राइवेट कॉलेज मिला।रंगोली मन से टूट सी गई। पंजाबन इन सब से बेखुद रंगोली की गाजियाबाद जाने की तयारी करने लगी। गाजियाबाद पहुंच के भी कुछ सुधरा नहीं रंगोली का पढाई से , मेहनत से मन उचट गया था उल्टा उसे प्यार हो गया। प्यार ने उसे उभारा भी और बिगाड़ा भी। प्यार का अंत भी कुछ अच्छा नहीं हुआ। जिस रात उसके बॉयफ्रेंड ने उसे छोड़ा वो पूरी रात बारिश में बैठी रही उसके इन्तजार में रोते हुए। उसके दोस्तों ने उसे पागल बोला। उसने उनसे बात बंद कर दिया। इम्तिहान हुए। रंगोली फेल हुई। उसने बात ही करना छोड़ दिया। शांत रहते हुए उसने जब २ दिन तक खाना नहीं खाया तो उसकी रूममेट ने वार्डन को बताया। माँ को फ़ोन गया और रंगोली लखनऊ पहुंच गई।

पीला और नीला। दो रंग। अलग रंग। औलादें तक अपनी माँ से इतनी अलग हो सकती है? ये वो सोचने लगी उसके पंखे से लटके शरीर को देख कर। उसके सामने सारी जिंदगी जैसे गुलाटी मार गई। उसे एक भी वाकयात याद नहीं आया जब उसने अपनी जान लेने की सोची हों।उसकी आँखों से आंसू ना बहा। पता नहीं क्यों। सवालों के कौंवे उसे नोचने लगे। क्या रंगों ने उसे बचा रखा था? हमेशा उसका साथ दिया था ? पर रंगोली भी तो रंग थी ? फिर वो क्यों अकेली हो गई ? शायद रंग सहेज के रखे नहीं जाते ? या सहेजे हुए रंग बिखरने के लिए ही होते हैं? रंग क्यों इतने अलग होते हैं ? पता नहीं।

भूरे चश्मो वाला वो बच्चा अपनी माँ के पीछे से पंजाबन को काला कुर्ता दिखाते देख रहा था। वो उसके चहरे का हर हावभाव बड़ी ध्यान से देख रहा था। उसने कुछ तीन हफ्ते पहले सुना था की उसकी बेटी ने आत्महत्या कर ली। "आत्महत्या " ये शब्द उसने पहली बार सुना था और उसके मतलब ने उसे एक नयी सी चीज से परिचित कराया था। "मौत "।  "मतलब मौत से कोई भी खत्म हो सकता है " उसने पुछा। "हाँ " माँ ने बोल। वो सहम सा गया। रात भर में उसने अपनी सारी प्यारी चीजों की मौत का ख्याल कर लिया। अपने प्यारे पीले खरगोश से ले कर माँ तक। "माँ भी " उसने जोर से माँ को पकड़ लिया। माँ काला कुर्ता देखने में मशरूफ थी। वो पंजाबन के चेहरे पे मौत ढूंढने लगा। उसके नजर में वो मौत को जानती थी। मौत की रिस्तेदार सी थी। पर उसके चहरे पर एक भी उदासी की रेखा नहीं निकली। सब इस बात से थोड़ा हैरान थे। पर इन सब के बावजूद उस कमरे में खरीद भी हुई और बिकरी भी। जब वो जाने लगी तो वो बच्चा अपनी चश्मीशि निगाहों से बालकनी की रेलिंग के पीछे छिपे उसे देखता रहा। उसे फिर भी कोई उदासी ना दिखी। बस दिखा तो उसकी चमड़ी पर कुछ नीले चकत्ते।


Sunday, March 27, 2016

तेरे चेहरे की वो बदनाम गली

वो पतली सी लकीर
जो नाक के कोने से
टंग जाती है होंठ के कोने तक

वो मुस्कान नहीं है
पर तेरे चहरे पे रहती है
खुसी सी, हसीन लगती है

मांझे सी रगड़ती है
सरकटी नागिन सी बिलखती है
जब भी तु बोलती है

ये वो गली है
जहां हर आँसू फिसल जाता है

बड़ी बदनाम गली है
जो इसे आजतक कोई नाम नहीं मिला है

कोई तो बात है
शायद वहाँ कोई शायर रहता है

जो पड़ताल लेता है तेरे हर आँसू की
और लेता है आराम भरी अँगड़ाइयाँ तेरी मुस्कानों में

वो अपना पता बताने से डरता है
शायद इसी लिए ये गाली शायरी में लापता है


कांच

जो कांच तोड़ रहे हो
तो उसे चिरका के मत छोड़ जाना
थोड़ा हौसला बनाना
और कांच पूरा तोड़ जाना

के दरारें उम्मीदें टिकाए रखती हैं
उम्मीदें खाली बड़ी बेकार होती हैं
नजर वालों को नज़ारे दिखती हैं
पूरे साबुत कांच की

तो अगर जाना
तो एक एक टुकड़ा तोड़ के जाना

क्योंकि अगर जो नजर में पड़ गए
वो नज़ारे पूरे जरूर होंगे

अधूरे खाली रौशनदान में
कांच फिर से होंगे

ये बूढ़ा क्यों पगलता है

वो धुन वाला, खाली कमरे में बैठे
सफेेद बालों के साथ
अपनी बनाई हुई एक पुरानी धुन सुन रहा है
मुस्कुरा रहा है

जैसे वो लंगड़ाता बूढ़ा मजदूर
अपनी जवानी में रखी हुई ईटों को
जवान देखता है
याद करता है
के पीछे वाली खिड़की पे रखी बीम ने
कितने दिन लिए थे घुटने टेकने में

वो मुस्कुरा रहा है
उसे देख, उंगली पकड़े उसका पोता
हस रहा है
कि इतनी सजी ईमारत के पीछे आ कर
इस खिड़की को देख
ये बूढ़ा क्यों पगलता है

वैसे आज वही पोता
मुस्कुरा रहा है
अपनी वो धुन सुन के
जिसके आखरी सुर को उसने भारी कर दिया था
अपने बूढ़े की मौत पर

वैसे एक पोता और भी है
जो हर बार दरवाजे की आड़ से
अपने धुनवाले बूढ़े को देखता है
और सोचता है
कि हमेशा यही धुन सुन कर
ये बूढ़ा क्यों पगलता है 

Tuesday, March 1, 2016

चोरी चोरी रात

कोरी कोढ़ी
          बोरी बोरी रात
नकचढ़ी निगोड़ी
          चोरी चोरी रात

खत फाड़ के भी ना पढ़ा
पता था क्या लिखी थी बात

सड़क से खुरच जाएगी
पर फिर भी निकली वो नंगे पाव

कोरी कोढ़ी
          बोरी बोरी रात
नकचढ़ी निगोड़ी
          चोरी चोरी रात

आढ़ी टेढ़ी, नंगी पुंगी
ऐसे गोरी सर्दी गिरी उस साल

उल्लू ने भी सपना देखा
उस रात पहली बार 

कोरी कोढ़ी
          बोरी बोरी रात
नकचढ़ी निगोड़ी
          चोरी चोरी रात

वहां कुछ बूंदो ने

वो आँखों का कोना हैना
जहां तुम्हारा काजल थोड़ा फैला रहता है
साझ की तरह

वहां कुछ बूंदो ने
घर बना लिया है
शायद मौसम बदल गया है
सावन आ गया है

मैंने तब से पलके नहीं झपकाई
बेचारों की बस्ती टूट जाएगी 
और उन्हें शेहेर बदलना पड़ेगा
तुम्हारी तरह

Monday, February 22, 2016

हरा पत्ता

दिन गरम होता है । स्कूल की छुट्टी की तरह । उसने अपने गलों से महसूस करा था हर दिन । और जिस दिन ऐसा नहीं होता उस दिन जरूर कुछ अलग होता है, खुश होने के लिए । जैसे की बारिश । पर आज का दिन अचानक से गरम हो गया था, पिछले कुछ दिनों के मुकाबले । ये साल का वो वक़्त था जब स्कूलवाले स्कूल की यूनिफार्म के विषय में शंशय में रहते थे । उसने कोट तो पहन रखा था मगर सर्दी का नमो निशान नहीं था । पर क्योकि छुट्टी के विपरीत स्कूल की अस्सेम्ब्ली ठंडी रहा करती थी तो कोट  पेहेनना भी जरूरी था। ये कोट वैसे बड़े होने की पहचान सा देता था जिसे वो हर बार पहनते और उतारते समय महसूस करा करता था। सर्दिया पसंद थी उसे मगर सर्दियों का जाना नहीं। सर्दियों के लिए वो जुखाम तक झेलने को तैयार था। मगर इस गरम छुट्टी में कोट काफी भरी पड़ रहा था पर फिर भी उसके बड़े होने का एहसास कई गुना बड़ा था। सो ज्यों का ज्यों ही वह स्कूल के गेट के बाहर, आने जाने वाली दो सड़कों के बीच वाली पगडंडी पे टहल रहा था। धुल को स्कूल के काले जूतों से उड़ा कर वो उम्मीद कर रहा था नया आकर बनाने की जिसका कोई मतलब निकल सके। ठीक उन चित्रों की तरह जो उसकी किताबों में शामिल हैं। जिन्हे वो घंटो लम्बी क्लासों में देखता रहता था। उन चित्रों की परिभाषाएं थी मतलब थे। जिन्हे समझने के लिए टीचर रेडियो की तरह बजती रहती थी और कुछ लालायित बच्चे क्रिकेट कमेंट्री की तरह सुनते थे। ऐसा भी नहीं था के उसे ऐसी पढाई पसंद नहीं थी, बस उसे चित्र ज्यादा पसंद थे। मिसाल के तौर पे एक खाली पीरियड में जब टीचर ने सबको चित्र बनाने को बोला तो उसने "रेन वाटर हार्वेस्टिंग" वाला आधे पन्ने का सबसे कठिन चित्र उठाया। वो चित्र बनाने में उसे पूरे ३ पीरियड लगे। मगर उसने उसे पूरा जरूर करा। उस चित्र के लोग उसे बहूत असली जान पड़ते थे।

अपने बाबा के गाओं का कुआँ देख कर उसे हमेशा वो चित्र याद आता था। कुँए में झाक कर वो "वाटर साइकिल" वाले चित्र को याद करा करता था और फिर अपने गाओं वाले चचेरे भाई को पूरी ''वाटर साइकिल" समझाता था। ताकि उसे बता सके उस चित्र के बारे में। गाओं से याद आया की ये पिछले ही गर्मी की छुट्टी की बात थी। और कोट की गर्मी से एहसास हुआ की गर्मी फिर आ रही है। गर्मी पसंद नहीं हैं मगर गर्मी की छुट्टी तो है। उसका चेहरा चमक उठा और तुरंत उँगलियों पर गिन लिया के अभी भी ढाई महीने बाकि हैं, ये गिनती पांच  महीने से बेहतर है जो उसने आखरी बार गिनी थी। वो खुस था और जमीन पर बने आकर के बारे में पूरी तरह भूल चूका था। उसके दिमाग में वो कुआँ था जो आम के बाग के पास था। वैसे उसे गाओं जाना पसंद नहीं था। "गाओं में बिजली बराबर नहीं अति", "गाओं में टीवी नहीं है ","गाओं गन्दा है" । पर गाओं जाना उसकी मजबूरी थी, बाबा के चलते। गाओं गर्मी की छुट्टी थी।   गर्मी में कुँए के ठन्डे पानी को बाटली में भर के, बाग के आमों को उसमे धो के खाने का मजा कुछ और ही था। आम मीठे थे। भाई बेहेन का साथ भी मीठा। मीठी मीठी गर्मी, जैसे नानी की बनाई हुई आम की चटनी जो सबको पसंद थी खिचड़ी के साथ। नानी की बनाई हुई हरी खिचड़ी के साथ। जी हाँ हरी खिचड़ी। उसने आज तक हमेशा पिली खिचड़ी देखि थि मगर नानी हमेशा हरी खिचड़ी ही बनाती थी। ये बात उतनी ही अजीब थी जितना गोबर से मिट्टी के घर को साफ़ करना। गोबर शहरों में गन्दगी थी  जो यहाँ वहाँ सड़को पर गिरे मिल जाती थी। पर गाओं में वही गोबर घर साफ़ कैसे कर सकता है ये बात उसे ये कभी समझ नहीं आई। उसने अपने होठ के कोने पे चिपकी बची इमली को चाट लिया। वो खट्टी थी। आम के बीजों की तरह जो अंत में बच जाते हैं और उन्हें चाटते रहने पे खट्टापन बढ़ता जाता है।

सामने से एक ऑटो रफ़्तार पकडे निकल गया। उसमे बैठे एक लम्बे गोरे आदमी ने चश्मिशी निगाहों से उसे देखा। छड़ भर के लिए। बच्चे ने उसे नहीं देखा। वो जमीन की तरफ मुह करे जमीन देखता रहा। एक पत्ते की ओर।

वो सोच पड़ा। के उसने कहानी में सुना था की शेर कुँए में झाकता है और अपनी परछाईं देखता है। वो घंटों तक कुँए झाकता रहा पर उसे अपनी परछाईं कभी साफ नहीं दिखी। बहुत कुछ दिखा, झिलमिल झूलता हुआ, उसकी परछाईं से घुल मिल कर हिला हुआ, पर अपनी तस्वीर कभी साफ़ ना दिखी। इतने देर तक घूरने के बाद भी जब तस्वीर साफ ना दिखी, वो कहानी से नाराज हो गया। ऐसा भी नहीं था की उसे कहानियाँ पसंद नहीं थी। उसे कहानियाँ उतनी ही पसंद थी जितने के चित्र। और जब उसे मनचाहा चित्र नहीं दिखा तो वो नाराज़ हो गया। गुस्सा किसी पे तो निकलना था। वैसे उसकी भी गलती नहीं थी। उसने जिंदगी में अकेला वही पानी वाला कुआँ देखा था। बाकि जो भी कुँए देखे सब के सब सूखे। ऐसा हो सकता था के उसका कुआँ इतना गहरा हों की उसके पानी तक रौशनी पहुचती ही ना हों। पर वो ये समझना नहीं चाहता था। वो कहानी उसे बहुत प्रिय थी। खैर छोड़ो। इस ख्याल को झटकते हैं। उसने पास में पड़े एक सूखे गोबर के टुकड़े को लात मरी। वो टुकड़ा पास ही उगी छोटी जंगली झाड़ी से जा टकराया और एक नन्ही तितली उड़ पड़ी। तितली। तितली से उसे याद आई वो तितली जिसे उसने पानी पिलाने की कोशिश की थी। वो तितली उसके किताब के एक चित्र से हूबहू मिलती थी। उसे वो कुँए के पास ही गिरी मिली थी। जब उसके चचेरे भाई ने बोला "ये उड़ उड़ के थक गयी है यहाँ पानी पीने आई होगी,चलो उसे पानी पिलाते हैं"। उसने उसे अपने हाथों से पानी पिलाने की कोशिश करी और इसी कोशिश में उसे एहसास हुआ के तितलियों के होठ नहीं होते।होठ नहीं है? होठ नहीं है तो वो इमली कैसे चखती होगी। तितलियों को इमली का स्वाद नहीं पता? उसे इमली बहुत पसंद थी जिसे वो पैसे बचा के छुट्टी के बाद फेरीवाले से खरीद के खाया करता था। वो उदास हो गया। पाव के पास पड़े एक पत्ते को देखने लगा । वो पत्ता उसे एक शांत, चुप होठ सा दिख रहा था। हरे हरे होठ सा। जो अगर उस तितली के पास होता तो वो जिन्दा होती।

पास आ कर एक और ऑटो रुका। वो लड़का अपनी माँ को ऑटो में देख कर मुस्कुराया और दौड़ के ऑटो में चढ़ गया। फिर, फिर कुछ नहीं, अगले ख्याल में एक गरम हवा के झोके के साथ वो हरा पत्ता कहीं खो गया।   









Tuesday, January 26, 2016

अकेली है

मौत की मौत
             मौत है

मौत की जिंदगी
जिंदगी की मौत
            मौत है

बस जिंदगी की जिन्दाजी
            अकेली है

काली सादी तस्वीर

एक काली सादी तस्वीर तुम हो
एक काली सादी तस्वीर मैं

जिसे महीने लगते हैं
कलाकार को

एक झटजा लगता है
रौशनी को

और जिंदगी लगती है
मेरे जेहेन को

हमेशा की तरह

जहाज के मस्तूल को पकडे
         जो आदमी खड़ा है

   वो क्या सोच रहा है

क्या उसने हवाओं पर कब्ज़ा कर लिया है
या उसने हवाओं पर भरोसा कर लिया है

जो भी हों
उसकी उमीदें टूटने वाली है

हमेशा की तरह

इतिहास

इतिहास
रोटी पर जले हुए काले धब्बे सा होता है
जो विजेता के बगल में बैठे चापलूस ने सेका होता है
मुद्दा बनाने के लिए
चापलूसों को रोटी दिलाने के लिए

क्यों नहीं लिखता कोई
उस अकेली सुबह का इतिहास
जो हर दिन जंगल में घूमने आती है

या उस ठंडी हवा में सूखती कमीज पर
जो सूखते सूखते सूख जाती है

या उस आदमी पे
जो आजादी नहीं चाहता था
और आजादी के दिन मारा गया

क्या इतिहास इतना अधूरा है
के अधूरी चीजे उसमे कभी न पूरी हो पाए

या इतिहास पूरी हुई चीजों का संकलन है
जहां अधूरी चीजों की जगह नहीं

मुझे पता नहीं
आप ही बताइयेगा
अपने इतिहास में
नमस्कार

ओये ज्यादा सोच मत

ओये ज्यादा सोच मत
    चेहरा कट के गिर जायेगा

तू इंसान हो जायेगा
    जिंदगी में जिन्दा हो जायेगा

जय जवान जय किसान

सरहद पर एक जवान खड़ा है
ताकि मैं सो सकूँ , सुकून से

ठीक जैसे
एक लैम्पपोस्ट खड़ा रहता है
हर दिन मेरे घर के बहार
ताकि मै सड़क को देख सकूँ

एक किशान भी कहीं
ऐसे ही किसी लैम्पपोस्ट से लटका होगा
और उसके पैर की मझली ऊँगली
जमीन को भूकी होगी

क्योकि मैं तो भूखा नहीं हूँ
और मेरा पेट भरने वाले
भूखा रहना चाहते नहीं

क्योकि धर्म के बाद उपवास की
किसी को आदत नहीं

सरहद का जवान कभी भी ये सोचता होगा क्या ?

उसे भी पता है
अगले सावन
जब सरहद बाड़ में अपना रूख बदलेगी
तब वो लैम्पपोस्ट फिर काम आएगा
कोई लटकेगा या लटकाया जायेगा

वैसे सुना के आज बाजार तीन अंक गिर गया
और मैंने महसूस करा की एक किसान सरहद पर मर गया
और छू कर के देख भी लिया एक जवान को अकेले खड़े खेत में

जय जवान
          जय किसान

कारावास

कारागार कारीगरों की मजबूरी है
       अपरादियों की नहीं

अपराधी को अपराध का पता है
       कारीगर को कारावास का नहीं

जीते जीते

मैं

मैं वो हूँ,
जो मरने के लिए पैदा हुआ है

और हर दिन मरता है
धिरे धीरे

मैं वो हूँ
जो जिन ज्यादा चाहता है
और ज्यादा जीने के लिए जीता है

यूँ तो आसान है भूल जाना ये सब
जीते जीते

सहूलिया है
          जी लीजिये

मगर
    भुला देना
    मिटा देना नहीं होता

Wednesday, January 20, 2016

प्रोफेसर

एक दराज में वो प्रोफेसर रहता था
ठीक वैसे जैसे तुम्हारी वो डुप्लीकेट चाभी
                       या वो जरूरी वाला कागजात
जिसे तुम कब का भूल चुके हो
पर ये जानते हो
               के किसी दिन वो बहुत काम आएगा 

भुला देने की वजह हो चूका हूँ

मेरी आँखों में आसु थे
उसकी हाथों में ठंडी हवा
जो पोत दिया उसने मेरे चहरे पे

मेरे होठ ठंडे पड़ चुके हैं
थरथरा रहे हैं

जैसे बर्फ में पेड़ बादल हो जाते हैं
ऐसे ही कुछ, में किसी का ख्याल हो चूका हूँ
भुला देने की वजह हो चूका हूँ

बड़ा ही मासूम ख्याल है

बड़ा ही मासूम ख्याल है
भीगी हुई रुई सा
आटों की लोई सा
शीशों पे पटकी गई
रौशनी के छर्रों सा

बड़ा ही मासूम ख्याल है
जैसे पानी में कूदा कुछ
पट से, पर दिखा नहीं
मै ढूँढता हूँ
हिलकोरा तो उठा होगा ना कहीं

बड़ा ही मासूम ख्याल है
साहब! बस मैंने उसे पकड़ा नहीं
ना जाने क्यों जाने दिया
साला जेब कुतर गया
मै अभी तक खड़ा वहीँ

बड़ा ही मासूम ख्याल है
कह गया था ग़ालिब कभी
मेरे कानो में अब फुसफुसाहट है
शेरों की, ग़ज़लों की
कबूतरों की, गुटरगूँ की

बड़ा ही मासूम ख्याल है 

Tuesday, January 19, 2016

राग : मेरे घर का

किचन के चूल्हे पर गरम होते दूध से
बाथरूम में रखे छोटे नीले टब तक
उसका विशाल सम्राज्य कायम है

मेरे चौड़े गद्दों का सिंघासन
जहाँ मै कभी कूदता था
या आलास में सुबह से मुह चुराता था
वह अब उस नवाब का अखाडा है
और, मै और मेरी प्यारी तकिया उसके कोने
वैसे गौर करने की बात ये भी है की
इस कोने को अब अंगड़ाई लेने की भी आजादी नहीं है

रंगे काले बालों वाली बूढी नानी
अपने घुटने का दर्द भूल कर, मुस्कुराती है
नीदें खट्टी करती है
पर नाना को फ़िक्र नहीं है
या फ़िक्र है उसे चोट लग जाने की
"अरे! देखो कहीं गिर ना जाएँ"

उसकी माँ, मेरी जनम की दुश्मन
कहती है " ये बिलकुल नहीं रोता"
और याद दिलाती है माँ को
की मै कितना रोया करता था
हुँह! उसे क्या पता नवाबी
रोना तानाशाही का मूलमंत्र है
पर सच कहूँ , ये महाराज तो हस्ते भी नापतोल के हैं
ज्यादा चालाक हैं

मुझे अफ़सोस नहीं
के उसके आँख का एक आंसू
मेरी रात भर की नींद से ज्यादा भारी है
मुझे बस बीच-बीच में याद आता है
वो सम्राज्य, जिसका युग खत्म हो चूका है
और उस तानाशाह की
जो अब इस साम्राज्य में
एक पहरेदार मात्र है


* राग  मेरे भांजे का नाम है जिसके लिये ये कविता लिखी गयी है।