Sunday, June 23, 2013

कबीरा जग छोड़ चला रे


कबीरा कुछ बोल चला रे, कबीरा जग छोड़ चला रे,
जीवन म्रीत्यु सब खेल है, मिट्टी से मिट्टी का मेल है,

राह मे उनके आ गया शेर,
कह पड़ा करदूं तेरे टुकड़े अनेक |
सुन कर साधु बोल पडे,
करदे मेरे टुकड़े अनेक,
धरती ही मेरी माता है,
जल तो मेरा दाता है,
मिल कर उनमे सुख पाऊ,
मोक्श मुक्त मैं हो जाऊ |

कबीरा कुछ बोल चला रे, कबीरा जग छोड़ चला रे,
जीवन म्रीत्यु सब खेल है, मिट्टी से मिट्टी का मेल है,

पाँव मे उनके पद गया भुजंग,
कह पड़ा विष से मेरे जल जाएगा ये तन |
सुन कर साधु सोच पड़े,
फिर यू हस के बोल पड़े,
अग्नि से राख मे बन जाऊ,
इस वायु मे घुल जाऊ,
अपने श्रोत मे खो जाऊ,
मोक्श मुक्त मैं हो जाऊ |

कबीरा कुछ बोल चला रे, कबीरा जग छोड़ चला रे,
जीवन म्रीत्यु सब खेल है, मिट्टी से मिट्टी का मेल है,

कवि

हम ख़यालों को ख़यालों से बेगाँठ जोड़ते है,
जनाब ! हम कवि कहलाते हैं |

नही होना माँ मुझको बड़ा


नही होना माँ मुझको बड़ा, नही होना माँ तुझसे जुदा,

तेरी आँचल के सायों मे, मुझको जीना है तेरी बाहों मे,
तेरी उंगली के सहारों से .....

नही होना माँ मुझको बड़ा, नही होना माँ तुझसे जुदा,

बचपन मे सोचा था ये, एक दिन बड़ा बनूगा मैं,
पर घर को जब मैने था छोड़ा, मन ने मेरे मुझसे कहा,
नही होना है मुझको बड़ा, नही होना माँ तुझसे जुदा |

स्टेशन से गाड़ी जो चल पड़ी, तू मेरी आखों से ओंझल हुई,
तब याद आया तेरा कहना...
जल्दी से तू हो जा बड़ा, ना सता माँ को तू इतना |

पर माँ ना समझे तू ये भी जरा, के नही होना है मुझको बड़ा,
ना सताउँगा तुझको पक्का, बस करना माँ तू खुद से जुदा |

नही होना माँ मुझको बड़ा, नही होना माँ तुझसे जुदा |

बेबस का इंक़लाब


चाँद के चेहरे पर जो काले काले निशान है,
सूरज की लाल आग के ये लाल से प्रहार है,
रोया रे चँदा तू खड़े अकेले सबके सामने,
पर छुप गयी आवाज़ वो प्रकाश के अंधकार मे |

सूरज ने बनाई सबपे अपनी ऐसी धोंस है,
ना सुन सका इंसान, ना सुन सका भगवान है,
सफेद आचारद है, सफेद ये करम है,
कोई जो पूछे सूरज से, तो कहता ये भ्रम है |

चँदा रे..... चँदा रे..... चँदा रे.... चँदा रे

क्यों चुप हुआ चँदा रे, क्यों छुप गया चँदा रे,
खट्टे से आँसू उसके सूखे पड़े है फर्श पे,
साँसों मे एक सिसक है, सीने मे एक कसक है,
प्रतिशोध के ज्वाला से जल रहा ये तन है |


कमजोर दिल मे दौड़ती ये रक्‍त की प्रवाह है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

युध के शुरू मे एक सन्नाटे के पुकार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

वीर के लहू से भीगी कहती ये कटार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

सफेद साडीयो से पूछे सिंदूर के नेशन है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,


तारों ने सुनी बात वो जो कोई भी ना सुन सका,
लगाई ऐसी घात फिर के सूर्य भी ना बच सका,
खून की लालिमा से बिखरा ये सूर्यास्त है,
चँदा के वरों से कहराई आज फिर ये शाम है|

स्वाहा स्वाहा हो के, आज बन गया वो रख है,
कालिख सा यू बिखर के काली कर गया वो रात है,
उसपे जो चमका चँदा आज बन गया प्रमाण है,
बेबस के इंक़लाब से आज बदला है संसार ये|

Wednesday, June 19, 2013

हालात

जब लूटे थे बाजार मे, लगा सब बीके ईस जहाँ मे,

अब प्यासा हूँ बनजर मैं, कुछ ना बीके ईस जहाँ मे |

तुम

कुछ तो बात है तुममे, जो तुम कवि के ख्याल मे अभी तक हो,
हर किसी के नसीब मे नही इतना सराहना जाना |

Saturday, June 15, 2013

कीचड़ मे कमल

कीचड़ हूँ मैं, कीचड़ हो तुम,
ये मानता हूँ मैं, ये जानते हो तुम,

अब छोड़ो भी, लग जाओ गले,
चलो मिल कर कहीं उगाएं कमल |

वक़्त की झोक

कड कड धरती को ये नोच,
बस जाते है हर दिन लोग,
जम जम के घरों की धूल,
बढ़ जाते सहरों के बोझ,

पानी को देखो चूस गये ये,
बन के काले मल के जोंख,
सर मे ले कर बुद्धि का ज़ोर,
तानाशाही करते हर रोज,

कभी खुदा, कभी ईशा,
कभी विज्ञान का है ज़ोर,
ज़रूरत के बाजार मे,
सभी बिकते है बेमोल,

मंज़िलों को पकड़ते चलते बेहोश,
ना जाने है किस बात की खोज,
बेमतलब मरते मजबूर,
फिर भी ना बदले इनकी ये सोच,

फिर जब आएगा भूचाल,
हिला के धरती की ये खाल,
ना होगा शोर, ना होगा ज़ोर,
मचेगा सन्नाटा चारो ओर,

समझे ना ईतने से बोल,
रोक सका ना कोई वक़्त की झोक,
टूटे गे घर, टूटे गे लोग,
फिर भी ना टूटे की वक़्त की डोर |

नन्ही जिंदगी

मेरी जिंदगी तो बचपन मे ही रह गयी,
हर दिन चलना सीखती है ये,
और हर सुबह भूल जाती है,
मंज़िलों के फंदे  राहों मे,
झटक लेते, उठा हवा मे,
झूला समझ, हस उठती है ये,
पर गिरती है जब जमी को,
चिल्ला चिल्ला कर रोती है वो,
एक दिन फिर ढल जाता है शाम को,
और फिर चलना सेखती है नयी सुबह को,
छोड़ उन आँसू की ओस सूखे वक़्त की फर्श पर |

कोहराम

कमजोर का सर उखड़ेगा और मजबूत का धड़ कटेगा,
जिंदा वो बचेगा जो ईसे अंजाम देगा |

भेद भाव

भेद भाव तो श्रीस्टी के रग रग मे बसा है,
क्या सूरज भी कभी सबको एक साथ उजाला दे पाया है?

सूरज की दुश्मनी से बेहतर चंदा का साथ है,
चलो आखों को मूंद कर कुछ सपने ही बटोर लो |

चोट की आग

ना कोई मन सखत है, ना कोई मन सरल,
ये जिंदगी की चोटे है, ना किसी आग से कम,

जो कागजों मे लग गयी, तो राख बन गये,
जो कोयेलो मे सुलग गयी, तो शोले बन गये,
और मोम को पकड़ गयी, तो जलते ही रह गये|

हार जीत


ये हार चॅखी जाए ना,
डूबता सूरज, कंठ के नीचे, निगला जावे ना,
फूटते छाले, देते है दाग ये, ऐसे जावे ना,

वो जो रोशनी आखों मे भरी थी,
जिसके साथ से मैने रहें चुनी थी,
वो दीप बुझने पाए ना |
ये हार चॅखी जाए ना |

जब चला था मैं, फूलों की राह पे,
अब जो सूखे पड़े, काटें है आगे,
कैसे ये लोग है? कैसे अंजाने?
वो भी जीता ही क्या, अगर हम ना हारे,

पल के परों पे ना कोई टीके हैं,
पत्थर ईरादे, पत्थर ही रहे हैं,
झोको मे उड़ने पाएँ ना |
ये हार चॅखी जाए ना |

जो उठे है अभी, क्या गीरे थे नही ?
आँसू के बारिश मे, क्या भीगे थे कभी ?
मंज़िलों की साजिश मे, फसा हर माझी है,
घुट के क्यों जी रहा, जब जिंदगी बाकी है|

लहरें जो गिरी, वो फिर से उठेंगी,
चाड़ने गिरने का कोई अंत ही नही,
माझी ये बुझ पाए ना,
ईस हार को चख पाएँ ना |