Monday, October 24, 2016

एक सुबह की हताशा

"इस शहर को इन आवारा जानवरों से मुक्त करना चाहिए
बगैर इन्हें हटाये विकास नहीं हो सकता "

एक आवारा कुत्ते की मौत पे कुछ यूँ मातम बनाया गया

उसके गर्दन पे फटे चमड़े से बहते लहू ने
ना जाने कितनों की सुबह बर्बाद की
मगर सबकी नहीं
सामने वाली कोठी में रहते
बूढ़े चाचा स्मृतियों में खो गए
कुत्ते की मौत पे
और याद कर बैठे अपने बचपन के पालतू कुत्ते को
जिसे साप ने डस लिया था
कुल तीन महीने हो चुके है
वो बिस्तर से उठे नहीं हैं
इन्तेजार मे हैं डसे जाने के

अगर ये जानवर जंगल मे मरा होता
तो क्या सब मातम बनाते
या वहाँ भी कोई खुश होता
मुफ्त का गोश्त खाने को

महात्मा का अधूरा आंदोलन

शहर के ऊपर उड़ते पंछी
हर शाम, हर सुबह
निकल आते हैं
महात्मा का अधूरा आंदोलन लिए
एक अहिंसात्मक आंदोलन।

वो उड़ते रहते हैं दिन भर
चहकते, बिलखाते
सुनने वाला शोर का आदि हो चूका है।

वो उड़ते रहते हैं
के कब ये महासमर रुकेगा
कब वो भागता आदमी एक बार ऊपर देखेगा
समर जारी है।

वो दिन में बैठ आते हैं
लंबी इमारतों की खिड़कियों पे
आंदोलन लिए
उस दिन के लिए
जब खिड़की वाला खोलेगा कुण्डी
हवा का रुख देखने
सहानभूति से।

सहानभूति, हाँ! महात्मा वाली सहानभूति
कच्ची मिटटी की सहानभूति
जिसे पकने में मजदूर का श्रम,
सांचो का आकर, भट्टी की आग
और एक लम्बा वक़्त लगता है।

शाम होते ही वो उतर आते हैं
चौराहे पर खड़े अकेले पेड़ पर
जिसके पत्ते दिन की धूल चाट चाट
काले पड़ चुके हैं।

वो उतर आते हैं
रेल के प्लेटफार्म पर
छज्जों के नीचे
छज्जे जो उनके घर नहीं हैं
छज्जे जो पेड़ की छांव नहीं हैं
वो जानते हैं के यहाँ घोसला नहीं बन सकता
बस देह टिकाने की जगह मात्र हैं।

वो जान चुके हैं की
इंसान कब सोता है कब जगता है
इसी लिए उन्हें हमदर्दी है
उस प्लेटफार्म के चौकीदार से
जो कभी नहीं सोता
और बदले में वो उस पर बीट नहीं करते
वो बीट करते हैं उस सफ़ेद कमीज पर
जिसका मालिक सुबह ६ बजे
उठ कर प्लेटफार्म पर ऊंघता रहता है
सोने के लिए।

अहिंसात्मक आंदोलन हमेशा अहिंसात्मक नहीं रहता।