Sunday, July 24, 2016

एक पका हुआ सा आदमी था

एक पका हुआ सा आदमी था
ऐसी फसल सा जिसे देख के
आने वाले कई अकाल अंधे पड़ जाएँ
भूखे की सूखी नब्ज फूल जाये
बसंत का त्यौहार, त्यौहार कहलाएँ
पके फलों सा, वो आदमी था

चपोत के रखता था बचपन
सहेज के अलमारी में, कपड़ों सा
वहाँ से अकाल सच में नहीं दीखता था

उसके पाँव का अंगूठा
मेरे मुठी बराबर
और मुट्ठी थाम वो कहता दुनिया मुट्ठी बराबर
तो क्या अंगूठा मुट्टी बराबर ?
या दुनिया अंगूठे बराबर ?

एक पका आदमी था मेरे पास
थोड़ा पके पके बालों वाला पका पका
पानी से भरी चमड़ी वाला
जो हर खरोच पे फट जाये
बड़ा समतल सा आदमी था
फटने से पहले
पकी खुसबू से बसंत को भरने

पके आदमी का और पक जाना
आँखों के नीचे वक़्त गाला के भरते जाना
झुर्रियां बनाना, ये बुरी बात नहीं
क्योंकि पका आदमी कभी रोता नहीं
मुझे हमेशा मन करता है
उसकी झुर्रियों को सहला के
हलके हलके दबाने का
कब से इकठ्ठा करे वक़्त को
आँखों से निकालने का
जैसे बसंत के आम की चोपी छूट आती है तोड़ने पे
और घाव दे जाती है चमड़ी पे छूट जाने पे
मन करता है वैसे ही कुछ घाव
अपने साथ ले आने का

पका आदमी हर सुबह सहेज के रखा जाता है
डब्बों में, कार्टून में, और भेजा जाता है बाजार में
जाते जाते वो मिझे अलविदा कहना नहीं बहुलता
वो पूरे दिन वहाँ मुह टेढ़ा करे बैठा रहता है
के किसी ग्राहक को पसंद नहीं आ जाये
और हर शाम बिना बीके वापस आ जाता है
मुझे कच्चा देखने

उसने आज अपनी सर्दी की शाल
अलमारी में रख दी है, चपोत के, सहेज के
और हस कर बोला है, "चलो मेरे गांव चलो"
"बसंत आया है ", और मैं रस्ते भर सोचता रहा
के बसंत इसका कौन सा रिश्तेदार है
जिसे ये इतना मिलना चाहता है

पके खेत के बीचो बीच खड़ा पका आदमी
हवा के विपरीत देखता, पके आम सा आकर्षक लग रहा है
पके खेत, पके बाल उसके विपरीत हवा से दिख रहे हैं
पर मैं, मैं तो होठ के कोने पे चोपी का दाग लिए
पका आम खाता रहा