Monday, May 8, 2017

परसाई के लेखों में दिखने वाला आदमी २

मुझे ये कहने की जरूरत नहीं की कुछ आदमी बुरे भी होते हैं। बुराई अपने आप में सार्वलौकिक है। बुराई कुछ इस हद तक हावी है के बहुत से दार्शनिक तो आपकी अच्छाई की बुराई भी दिखा देंगे। जमाना हमेशा से बुराई का था और बुराई का है बस भविष्य ही अच्छाई का होता है। परसाई जी का जमाना भी बुरा ही था। तो उनके लेखों में भी बुराई की चर्चा दिखती है। उनके ज्यादातर लेखों एक पात्र जरूर बुरा होता है । ये बुरा आदमी पूरा बुरा है।  रत्ती भर भी अच्छा नहीं। ये स्वार्थी है, निर्लज है। उसकी निर्लाजता ही उसके व्यक्तिव्य का व्यंग है। ये आदमी अक्सर परसाई जी के घर आता है उनसे अपना दुःख बाटने।  बताने, के दुनिया कितनी बुरी हो गयी है। जमाना बरबाद हुए जा रहा है और ये व्यक्ति इसी विचार से कितना चिंतित है। परसाई अक्सर उनसे ठग लिए जाते है - कबीरा आप ठगाइये। परसाई अपनी लाचारी को उनकी लाचारी से छोटा मानते हुए व्यंग करते हैं। बताते हैं की ये सुविधाभोगी कितना कास्ट सह रहा है।  उसके लाखों की कमाई में हराजों की कमी परसाई के फुटकरों से कितनी अधिक है। और इसी लिए उसका दर्द भी ज्यादा बड़ा है।

परसाई अपनी व्यंग की लाठी क्रूर तंत्र पर नहीं भजते, वो व्यक्ति के व्यक्तित्व की आलोचना करते हैं।  वह दिखाते है की एक ही आदमी प्याज सा कितनी परतें ओढ़े हुए है। अपनी सुविधाओं को बचाता हुआ वह कितने ढोंग रच रहा है।  उसे इन सब का एहसास है, पर वह चालक है , पर सरल बने रहने की पूरी कोशिश कर रहा है।

इस काले आदमी ने बहुत से रूप में परसाई को सताया है।  वह सिर्फ एक कुटिल राजनेता के रूप में प्रकट नहीं होता। वह अक्सर उनका सहायक भी होता है जो अपने नेता की हर बात मानता है। वह इस हद तक आमादा है की परसाई की टूटी टांग पर भी राजनीती खेलता है। वह काला आदमी कभी भुद्धिवादी भी होता है जो किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है और अपनी जाती का गुट बना अपने पद को बचाये हुए है। वह बड़ी दार्शनिक बाते करता है और दूसरी ओर आगबबूला हो उठता है जब उसकी बेटी दूसरी जाती के लड़के से प्रेम कर बैठती है। प्रेम से भी इस काले आदमी को कुछ खास हमदर्दी नहीं है। उसका प्रेम भी खोखला है और स्वार्थ से भरा है।  इस काले किरदार का प्रेम महज एक 'सिक्सटीज का मेलोड्रामा' है जिसमे वह अपनी महबूबा के इन्तेजार में सिगरेट पिता हुआ उसकी राख कॉफ़ी में मिला पी जाता है। उसका अवसाद बनावटी है।  वह ये मान के चलता है की उसकी प्रेमिका सामाजिक अभिमतों के कारण उससे विवाह नहीं करेगी। पर जब उसकी प्रेमिका उससे विवाह करने को राजी हो जाती है तो वह सकपका के बीमारी का बहाना बना उसे अपनी बेहेन बना लेता है। ये काला आदमी समाजवादी क्रांति भी चला चूका है और अक्सर अकेलेपन में फुट के रो पड़ता है। अफ़सोस में, क्योंकि वह उस क्रांति से कुछ हासिल नहीं कर पाया अपने लिए। ऐसी क्रांति और क्रांतिकारियों को परसाई ने बड़े ही कुशलता से "सड़े आलू का विद्रोह" में प्रस्तुत किया है । वह कहते हैं -

   सड़ा विद्रोह एक रुपये में चार किलो के हिसाब से बिक जाता है।

परसाई अक्सर इस काले व्यक्तिव को दर्शाने के लिए लोक कथाओं और धार्मिक ग्रंथो का सहारा भी लेते हैं। ये उनका समझा बुझा हुआ कदम है। वो धार्मिक कथाओं में व्यंग जोड़ कर उन्हें समकालीन कर देते है। उससे कहानी ना सिर्फ और प्रभावशाली बनती है बल्कि और प्रासंगिक भी होती है। वो ऐसी कथाओं से इन ग्रंथो का मजाक नही उड़ाते। वो मानते थे की अगर एक साधारण व्यक्ति को समाजशास्त्र या राजनितिक शास्त्र समझाना है तो उसे उसी के समाज और संस्कृति के उदाहरण देने होंगे। धार्मिक और लोक कथाएं महज एक माध्यम है। सुदामा के चावल , वो ख़ुशी से नहीं रहे, बेताल छब्बीसी, राम का दुःख और मेरा जैसी अनेक कहानियों में ऐसे ढांचे का प्रयोग किया है। इन सभी कहानियों में ये काला किरदार बार बार आता है। इस किरदार को कृष्ण, हातिम ताई, विक्रम जैसे लिबास में देखना अटपटा लगता है पर ये हमारे अंदर छिपे पछपात को सवाल भी करता है। परसाई के व्यंग की यही बारीकी उन्हें अनूठा बनाती है।

     एक काला आदमी है। एक सफ़ेद आदमी है। सफ़ेद की स्वार्थहीनता उसे सफ़ेद बनाता है और काले का स्वार्थ उसे और काला। ये दोनों किरदार अलग अलग रूप में परसाई की कहानियों में मिलते हैं और धुमैली सी तस्वीर बनाते हैं परसाई की। इन सब को पढ़ने लिखने के बाद एक सवाल जरूर उठता है - परसाई खुद क्या थे ? सफ़ेद या काले ?



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