Wednesday, April 13, 2016

नीले चकत्ते

पीला और नीला। दो रंग। अलग रंग।मगर कितने अलग, ये बस महसूस किया जा सकता है समझाया नही जा सकता। ठीक इंसानो की तरह। इंसान अलग होते हैं, सब जानते है मगर कौन कितना अलग है ये शायद कोई नहीं बता सकता। औलादें तक अपनी माँ से इतनी अलग हो सकती है? ये वो सोच रही थी।

"नीला पीला हरा लाल भूरा नारंगी सफ़ेद सब रंगों के कुर्ते है, सब के सब अच्छे, भाभी जी आपकी पसंद पर है। मेरा मानना है रंग अलग होते हैं मगर सभी रंगों को खुसनुमा बनाया जा सकता है बस कारीगर में कला होनी चाहिए। ये सब ब्रांडेड है जी। अब आप ही बताइये काला भला कब किसी जश्न में अच्छा लग सकता है। पर इस काले कुर्ते को देखिये सरे रंग फीके पड़ जायेगे इसके सामने। ये बॉर्डर पर पूरा जरी का काम है। वजन तो देखिये कुर्ते का। कपडा जानदार है। मुझे आँखों पे विश्वाश नहीं हुआ  की  काला भी इतना सुन्दर हो सकता है।" उसने ये कहते कहते अपने भारी बड़े झोले में से एक और कुर्ता निकाल कर सबके सामने रख दिया। पता नहीं क्यों इस 'इंटरनेट' के ज़माने में जहां एक 'क्लिक' पर हजारों कपडे आ जाते हैं, लोग फिर भी उस पंजाबन को अपने घर बुला बुला कर कपडे खरीदते थे। "उसे फैशन की समझ है " ऐसा बगल वाली वर्माइन बोलती थी। किसी को उसकी बातें अच्छी लगती थी। किसी को उसका 'कलेक्शन'। पर जो भी हो वो एक सफल व्यापारी थी। उसे रंग दीखते थे। वैसे नहीं जैसे हम सब को दीखते है। उसे माहोल में रंग दीखते थे। जैसे दिन में बेचते वक़्त उसे हरा रंग महसूस होता था। वैपार उसके लिए ज्यादातर हरा ही था। इन रंगो का कोई मतलब था, नहीं था, पता नहीं पर उसने अपने आप को इस हाल में ढाल लिया था।

काला था उसकी शादी का रंग। ऐसा नहीं था की वो उदास थी। उसे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। ना अच्छा ना बुरा। और शायद इसी लिए उसे इतना बुरा भी नहीं लगा जब उसे पता चला की उसका पति 'गे' है। उसने शादी से बहुत उम्मीदें नहीं थी। वो रात को उठी नारंगी रंग के साथ और बालकनी में जा कर ठहाके मार कर हसने लगी। उसकी हसी उसके शांति से कम भयावनी थी। उसके पति ने अगली सुबह उससे माफ़ी भी मांगी। पूरे तीन महीने लगे इस बात को गलने में। उसके पति ने साफ करा की अगर वो चाहें तो तलाक दे सकती है या शादी में रह के अपनी मर्जी से सम्बन्ध बना सकती है। इन सब के बाद ऐसा भी नहीं था की उसकी जिंदगी में कुछ अच्छा हुआ ही नहीं। सबका तराजू बराबर होता है मरने से पहले।

पीला था वो रंग जब उसकी बेटी पैदा हुई। वो उस वक़्त सच में खुश थी। उसकी शादी की बनावटी सी मुस्कान नहीं थी। या वो बनवटी उदासी जो उसने अपने पति के मरने पर ओढ़ ली थी। वो सच में खुश थी। हाँ वैसे ही जैसे बचपन में खिलौना मिलने पे हम खुश होते हैं और उसे घंटो निहारते रहते हैं। उसने अपने रंगो की आदत को अपनी बेटी में देखा और उसे रंगोली नाम देना चाहा। पर उसके पति ने किसी पसंद की 'नावेल' के किरदार पर उसका नाम त्रिशला रख दिया। वो पहली बार था जब उसे इतना गुस्सा आया की सारे रंग गायब से हो गए और वो पल भर के लिए घबरा गयी। पर चुप्पी कि आदत बरकार रखते हुए उसने कुछ ना बोला। जब पति ने अपने समलैंगिक होने की बात सामने रखी और तीन महीने बाद उसकी मर्जी को वजन दिया तो तराजू घुमा। उसने तलाक नहीं माँगा। उसने त्रिशला को रंगोली बना दिया।

नीला था वो रंग जब उसे पता चला के ये रंग सच्चे नहीं है। इन्हे हर कोई नहीं देख सकता। ये हादसा भी कम भावुक नहीं था। उसने जब जज के सामने गवाही दी तो सब हस पड़े। उस समय पंजाब मटमैले रंग में सना था और और मटमैला होने जा रहा था। एक भावी खालिस्तानी ने उसके किसी रिश्तेदार को खेत में मार दिया। पेशाब करते हुए इसने उसे मौकाए वारदात पे देख लिया। हादसे के बारे में जब उससे पुछा गया तो वो सिलसिलेवार सब बताती गयी। "जी नीला था सब , दवात सा.....  उस आदमी के  चहरे पे नील फैली हुई थी और चाचा का चेहरा नील से सना हुआ "। "बेटा किस नील की बात कर रही हो , क्या वहाँ खून था ?" जज ने पुछा । वो हौसले के साथ बोली "जी वहाँ खून तो था , चाचा जी के पूरे शरीर पर खून था , मगर उस आदमी के चेहरे पे एक नीली सी पापड़ी थी हो हवा तक मे फैली थी और चाचा के चहरे पे वही नील गुदी हुई थी, जैसै दवात में भीग के कागज गुद जाता है "। जज ने उसकी बात समझने की कोशिश की पर ये अनुभव सबके सर के पार था। विरोधी दल के वकील ने इस हालात का सम्पूर्ण फायदा उठाया और अपने मुवक्किल को सजा मिलने से बचा लिया। जो उपहास उड़ा उसका पंजाबन के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। मर्दों से घिरी सभा में वो सिर्फ एक स्त्री के रूप में ही अलग नहीं थी बल्कि एक अनजान अनोखे अनुभव से ग्रस्त पागल भी थी। उसने अपने महौल्ले के बच्चो के साथ खेलना बंद कर दिया और पंजाब की हवाएं बदलने लगी। उसके बाप ने बदलते मौसम को भांपते हुए शेहेर बदला और फिर प्रदेश भी। इस आवाजाही में २ साल बीते। लखनऊ वो शहर था जहा किनारा मिला। इस उथल पुथल ने उसे सम्हलने का मौका नहीं दिया और नीला रंग उसके साथ चिपक सा गया। जैसे शीशे को गरम ठंडा कर आकर देते हैं, रंग देते हैं कुछ वैसे है नीला रन उसकी चमड़ी पर चिपक सा गया था और जो बीच बीच में चकत्तों सा उभर आता था।

काला ही था उसके पति के निधन का रंग। उसे शादी की याद आ गयी। शादी में सबसे अच्छा हिस्सा वही था जब उसे सजाया जा रहा था। चुनरी मे बिखरे रंग, रंग थे, रंगोली थे। वो रंग महसूस कर रही थी। फिर गलियों में रेंगती हुई एक चमकीली बारात आई रात भर ठहरी और उसे ले गयी। उसके इस ख्याल की कतार को अर्जुन कोहली ने अपनी अकड़ी आवाज से तोड़ दिया। अर्जुन सेठ था। लखनऊ में उसके कई व्यापार थे। जिसमे कपड़ों का व्यापार भी शामिल था। "तुम चाहो तो मेरे अमीनाबाद के शोरूम में बैठ सकती हो " उसने रंगोली को गोद से उतारा। "तुम समय लो , कोई जबरदस्ती नहीं है " । कुछ देर शांत रहने के बाद फिर बोला " जसप्रीत ने शायद तुम्हे मेरे बारे में बताया होगा। तुम्हारी और रंगोली की कुछ जिम्मेदारी मेरी भी है। तुम जब चाहें मुझसे मदद ले सकती हो बस किसी को ये बात बताना नहीं। " वो रंगोली को उसके गोद में छोड़ कर चला गया। उसका मन तो नहीं था मगर उसने अर्जुन का दिया हुआ प्रस्ताव मान लिया। वो चाहती तो अपने पति का वैपर बेच कर कुछ सालों की अंदनी कमा सकती थी मगर फिर देवर से झगड़ा करना पड़ता और मामला तब कचेहरी तक जा सकता था। उसे अपने पिता के पास जा कर फिर से एक कमरे भर में कैद भी नहीं होना था। अर्जुन का प्रस्ताव ना सिर्फ उसे आजादी दिलाता बल्कि उसे रंगो से भी करीब करता।

 लाल रंग के साथ आई बेला, जो अर्जुन के शोरूम का सारा काम सम्हालती थी। कहने को अर्जुन की बेहेन हर दिन दुकान पर बैठती थी पर उसे व्यवसाय की उतनी समझ नहीं थी। बेला छोटे से कसबे से लखनऊ तक बड़ी मेहनत से आई थी। उसके बाये हाथ पर गहरे से चोट का निशान था जिसके चलते वो बायाँ हाथ सही से चला नहीं पाती थी। पर उसकी फुर्ती और बातों की चहक उसकी अपंगता पर पर्दा सा डाल देता था। पंजाबन को बेला का साथ मिलना एक अच्छे वक़्त की शुरुवात सा था। पंजाबन अपने रंगो की पकड़ से कपड़ों को खूब पहचानती थी। उसके ग्राहक कभी खली हाथ वापस नहीं जाते थे। बेला ने उसकी ये खूबी को खूब पकड़ा और जल्द ही थोक बाजार की खरीद फरोक में उसे अपना सहपाठी बना लिया। रंगोली में भी रँग दिखने लगे थे। वो भी अब स्कूल जाती, दुकान पर बैठती, शाम को खेलती और रात में माँ से बाते करती। उस साल जब पंजाबन ने बालों में मेहँदी लगाना शुरू किया और रंगोली ने नौंवी का इम्तिहान पास किया। एक शाम बेला शराब पीते वक़्त बोली।
"तू कमाल का बिज़नेस करती है, तुझे तो खुद का काम करना चाहिए। तेरे कस्टमर सबसे वफादार कस्टमर हैं , हमारी दुकान को एक तिहाई कमाई तो सिर्फ तुझसे होती है। ये मोटी सेठानी से मेरा मन जल चूका है। न कुछ करना आता हैं न अपना शरीर हिलाना पड़ता है।बस हमारी मेहनत खाती रहती है।" 
"पता है मुझे, पर सब कुछ पूंजी है , उसके पास पूंजी है हमारे पास नहीं , हमे हमारे काम के पैसे पक्के मिलेंगे, उसे उसकी लागत के पैसे मिले न मिले पता नहीं।  बड़ी चिकचिक है बिज़नेस में, देखो न सब डिप्रेशन के शिकार रहते है जैसे गर्दन पे छुरी लटका के घूम रहे हों "वो थोड़ा मुस्कुराई ।
"देख डिप्रेशन का शिकार तो तू भी है वार्ना अभी ये शराब न पी रही होती , देख बाजार सिर्फ पूंजी से नहीं चलता जान पहचान से भी चलता है । बारा साल मैंने ऐसे ही पसीने से पानी थोड़े ही किया है मेरी भी पहचान है। अपने नाम पे सामान उठा सकती हूँ बस तुझे बेचना होगा "
"आज पहली बार नहीं है जब तू दारु के नशे में ऐसा बोल रही है। पर पता है हम दोनों गिरगिट हैं।"
"मतलब "
"दिन भर जिस दुकान में काम करते हैं शाम को उसी दुकान के ऊपरी गोदान में बैठ दारु पीते हैं। रंग बदल के उसी दुकान को गाली देते हैं। उसी दुकान को लुटने की सोचते हैं और अगली सुबह सेठानी के सामने पुराने रंग में फिर से वही काम करते हैं जो हमेशा से करते आएं हैं "
वो दोनों दुकान के ऊपर वाले गोदान की खिड़की से अमीनाबाद को देखते रहे। बाजार रात की दवात में भीग चूका था और स्ट्रीट लाइट बीच के बचे कुछे कागज सा लग रहा था।

"हरा बनता है नीला और पिला मिल के माँ, पता है " रंगोली ने अपनी माँ से बोला। पंजाबन मुस्कुरा पड़ी उसने हफ़्तों बिताए थे अमीनाबाद की उस गली में जहाँ खौलते रंगों में कपडे रंगे जाते थे। गली नहीं, मानो रंगों की हवेली थी वो सड़क। सड़क तक पे रंग बिखरे होते थे।अमीनाबाद उसकी नजर में एक भव्य जंतु था किसकी पसली पसली में इंसानो की जरूरतों का वैपार चलता है। अमीनाबाद अब तक की उसकी एक तिहाई जिंदगी थी। पिछले दो तिहाई जिंदगी के कई किरदार अब तक जा चुके थे, जो परिवार थे और इस एक तिहाई जिंदगी में और कई किरदार अये थे जो परिवार नहीं थे पर परिवार जैसे थे। सब हादसे से आते थे हादसे से जाते थे ख़बरों के लिफाफे में।
"इन्ही हादसों को इकठ्ठा देखो तो जिंदगी लगती है, घबराओ मत " बेला पास में बैठी सभी औरतों से बोली। ये सारी औरतें अर्जुन की दुकान में कर्मी थी।
"मगर दीदी काम तो चाहिए न" उनमे से एक बोली।
"मैंने अर्जुन साहब से बात करुँगी। पर मैंने सुना है की कोई बड़ा हादसा हुआ है अर्जुन साहब का काफी नुक्सान हुआ है उसमे , उसी की भरपाई के लिए ये स्टोर बिक रहा है । सेठानी की भी तब्यत ख़राब है। जो नया मालिक आएगा वो भी हमे नौकरी दे सकता है। तो घबराओ मत। बात करेंगे। एक डेढ़ महीने में कुछ न कुछ निकले गा। तब तक नौकरी की तलाश करना शुरू करो।.... " बेला बोलती रही मगर पंजाबन खोई रही अपने आकड़ों में के कैसे घर चलेगा, रंगोली की टूशन की फीस और बाकि खर्चा। पर अगर ये सब निकाल भी लिया अपनी पुरानी बचत से,  तो आगे कॉलेज भी है और फिर शादी।
"कोई अंत नहीं है इन समस्याओँ का " बेला पंजाबन की ओर देखते हुए बोली।
"हमे साथ रहना होगा, चलो कल मिलते हैं " सब जाने लगे। बेला ने पंजाबन का हाथ पकड़ उसे रोक लिया।
"चल आज मेरे घर दारु पीते हैं " उसने कहा। पनजबन ने ना हाँ बोला न ना। उसका घर २ कमरों की बिना रौशनी वाली कोठरी थी जहाँ हमेशा एक सी. ऍफ़. अल. जलता और एक अधमरा सा आदमी बिस्तर पर पड़ा रहता था। उसमे तमाम तरीके की टयूब खोसीं हुई थी। उसके कारण कमरा घर कम अस्पताल ज्यादा लगता था। पंजाबन के पूछने से पहले ही बेला बोल पड़ी "वो मेरा पति है और हाँ वो कोमा में है पिछले कई साल से "। ये सब देख उसका मन सिकुड़ सा गया इतने सालों की दोस्ती में वो बेला के बारे में इतना भी न जान सकी, इस बात का उसे अफ़सोस था। उसे चार पेग लगे सम्हलने में। उस शाम लम्बी बात हुई बेला के पति से ले कर अर्जुन के व्यापर तक। आखिर में सिगरेट का धुआं सीने से उड़ेलते हुए पंजाबन बोली "तू हमेशा बिज़नेस करने को कहती थी न चल अब बिज़नेस करते हैं "। बेला हस पड़ी और एक हरा रंग फ़ैल गया।

"लाल साड़ी में फॉल लगा देना और वो लहंगे का डिज़ाइन फाइनल कर दिया है दीदी जी ने उसे बनने के लिए डाल दो" पंजाबन काम में मशरूफ थी। एक छोटे से बेसमेंट में शुरू करा हुआ बिज़नेस चल पड़ा था।शुरुवाती कुछ महीनो में अर्जुन आया था उसे वापस काम पे रखने के लिए उसकी भी तब्यत थोड़ी ढल सी गई थी, पर पंजाबन तब तक आगे बढ़ चुकी थी और वापस मुड़ना जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना था। बेला ने चार - पांच लड़कियों को जुगाड़ा, थोक बाजार से सामान उठाया , पंजाबन उसकी परख करी और घर घर जा कर सामान बेचना शुरू करा। कुछ वफादार  ग्राहकों ने साथ दिया और पंजाबन ने उन्हें निराश नहीं होने दिया। अब अक्सर शादी के मौसम में हजरतगंज से ले कर गोमती नगर तक कई घरों में उसे बुलाया जाता जहाँ वो पूरे घर भर के लिए कपड़े दिखाती। वक़्त वक़्त पर लोग जुड़ते गए, कपड़ों की सिलाई से ले कर फिनिशिंग तक सारा एक नेटवर्क सा बन गया और पंजाबन उसे संचालित करने का काम करने लगी। रंगोली भी इंजीनियरिंग की पढाई करने ग़ज़िआबाद चली गई थी। पंजाबन उसकी पढाई को ना तो ज्यादा समझती थी ना ही ज्यादा पूछताछ करती थी। पर उसे बड़ा होता देख उसे ख़ुशी जरूर होती। कभी कभी जब वो अपने बाल रंगती तो भूरी हुई शामों का भूरा बिता वक़्त दिखाई देता।

नीले चकत्ते से उभर आए थे। रंगोली के कॉलेज से जब फ़ोन आया। पंजाबन अपने देवर के साथ तुरंत गाजियाबाद पहुंच गई और रंगोली को वापस ले आयी। रंगोली एक दम शांत सी है गयी थी। एक अक्षर भी नहीं बोल रही थी। कॉलेज के डॉक्टर ने मनोवैज्ञानिक को दिखने की सलाह दी। रंगोली की ऐसी हालत दिन बा दिन उसे पंजाबन की आखों में सफ़ेद करती जा रही थी। "आपकी बेटी को डिप्रेशन है , मैंने एंटी-डिप्रेस्सन्ट्स लिखी हैं आप इसके डोज़ का ख्याल रखिये गा और हर हफ्ते कौन्सिलिंग करवाइये, ये ठीक हो जायेगी"। अब रातों को उसके बालकनी के फेरे बढ़ गए। वो सिगरेट के धुओँ के बादलों से भरी रहती। अगर जरा सा भी खली होती तो ऐसा लगता जैसे कोई नारंगी हाथों से उसके दोनों कंधे नोच रहा हों। इन सब की दोषी पंजाबन थी , ऐसा नहीं था , पर इसकी शुरुआत पंजाबन से ही हुई थी। पंजाबन के संघर्ष को रंगोली ने जिंदगी भर देखा था। उसे अपनी माँ में एक अलग सी ताकत दिखती थी जो उसे दुनिया से बचाए रखती। उसे अपनी माँ पर बहुत फक्र था और वो उसके लिए बहुत कुछ करना भी चाहती थी। किसी ने कहा "पढाई करो बोर्ड में अच्छे मार्क्स लाओगी तो माँ को बहुत ख़ुशी होगी","अच्छे कॉलेज में जाओगी तो माँ की मेहनत सफल होगी "। रंगोली ने खुद को झोक सा दिया खूब पढाई की। महंगी कोचिंग में दाखिला लिया। पंजाबन भी उसी वक़्त अपने नए बिज़नेस में लगी हुई थी उसके आस पास होती उसकी वाह वाही ने रंगोली की आकांक्षाओं को और भी बढ़ा दिया। मगर उम्मीदों के विपरीत न तो अच्छे मार्क्स आये न ही अच्छा कॉलेज मिला। एक स्टेट लेवल का कोई प्राइवेट कॉलेज मिला।रंगोली मन से टूट सी गई। पंजाबन इन सब से बेखुद रंगोली की गाजियाबाद जाने की तयारी करने लगी। गाजियाबाद पहुंच के भी कुछ सुधरा नहीं रंगोली का पढाई से , मेहनत से मन उचट गया था उल्टा उसे प्यार हो गया। प्यार ने उसे उभारा भी और बिगाड़ा भी। प्यार का अंत भी कुछ अच्छा नहीं हुआ। जिस रात उसके बॉयफ्रेंड ने उसे छोड़ा वो पूरी रात बारिश में बैठी रही उसके इन्तजार में रोते हुए। उसके दोस्तों ने उसे पागल बोला। उसने उनसे बात बंद कर दिया। इम्तिहान हुए। रंगोली फेल हुई। उसने बात ही करना छोड़ दिया। शांत रहते हुए उसने जब २ दिन तक खाना नहीं खाया तो उसकी रूममेट ने वार्डन को बताया। माँ को फ़ोन गया और रंगोली लखनऊ पहुंच गई।

पीला और नीला। दो रंग। अलग रंग। औलादें तक अपनी माँ से इतनी अलग हो सकती है? ये वो सोचने लगी उसके पंखे से लटके शरीर को देख कर। उसके सामने सारी जिंदगी जैसे गुलाटी मार गई। उसे एक भी वाकयात याद नहीं आया जब उसने अपनी जान लेने की सोची हों।उसकी आँखों से आंसू ना बहा। पता नहीं क्यों। सवालों के कौंवे उसे नोचने लगे। क्या रंगों ने उसे बचा रखा था? हमेशा उसका साथ दिया था ? पर रंगोली भी तो रंग थी ? फिर वो क्यों अकेली हो गई ? शायद रंग सहेज के रखे नहीं जाते ? या सहेजे हुए रंग बिखरने के लिए ही होते हैं? रंग क्यों इतने अलग होते हैं ? पता नहीं।

भूरे चश्मो वाला वो बच्चा अपनी माँ के पीछे से पंजाबन को काला कुर्ता दिखाते देख रहा था। वो उसके चहरे का हर हावभाव बड़ी ध्यान से देख रहा था। उसने कुछ तीन हफ्ते पहले सुना था की उसकी बेटी ने आत्महत्या कर ली। "आत्महत्या " ये शब्द उसने पहली बार सुना था और उसके मतलब ने उसे एक नयी सी चीज से परिचित कराया था। "मौत "।  "मतलब मौत से कोई भी खत्म हो सकता है " उसने पुछा। "हाँ " माँ ने बोल। वो सहम सा गया। रात भर में उसने अपनी सारी प्यारी चीजों की मौत का ख्याल कर लिया। अपने प्यारे पीले खरगोश से ले कर माँ तक। "माँ भी " उसने जोर से माँ को पकड़ लिया। माँ काला कुर्ता देखने में मशरूफ थी। वो पंजाबन के चेहरे पे मौत ढूंढने लगा। उसके नजर में वो मौत को जानती थी। मौत की रिस्तेदार सी थी। पर उसके चहरे पर एक भी उदासी की रेखा नहीं निकली। सब इस बात से थोड़ा हैरान थे। पर इन सब के बावजूद उस कमरे में खरीद भी हुई और बिकरी भी। जब वो जाने लगी तो वो बच्चा अपनी चश्मीशि निगाहों से बालकनी की रेलिंग के पीछे छिपे उसे देखता रहा। उसे फिर भी कोई उदासी ना दिखी। बस दिखा तो उसकी चमड़ी पर कुछ नीले चकत्ते।


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