Saturday, February 28, 2015

कितना मीठा है

अपने जेहन के भगौने में ये
ख़याल उबाल उबाल, खोया बना

एक मिठाई सी नज्म में परोस रखा है
जरा चख कर बताना के ये कितना मीठा है

Friday, February 27, 2015

जो भी चाहो

मै पैदा होने का क़र्ज़ बीते वक़्त से चूका रहा था
मै बीते बरस के मातम का जश्न माना रहा था

ये आधा काला कोयले सा
ये आधा जला सफ़ेद राख सा
दो हिस्सों में बटा
कटा वक़्त मेरा

मै तो ये मान के बैठा था की ये आग कल की
कब की बुझ गयी होगी
पर वो एक चिंगारी
हवा से उठ के आई
जैसे किसी ने झोका हो मेरी ओर

 फिर पूरा दिन
मेरा मन उसमे जल जाने की जिद में दौड़ा
और मै उसे सम्हालने की

जब थकी पलकों तले
असू को नींद में सान के
मै सो रहा था
तब एक रूठी आवाज ने बस ये कह कर उठा दिया
"तुम  हर वक़्त, जो भी चाहो, वो मिल नहीं सकता " 

एक रसोई का दरीचा

एक दरीचे ने उनके बीच हुए झगड़े को
मेरे नजरों में बैठा दिया
हफ्ता बीत गया है वो दरीचा फिर नहीं जला

'फ्रीजर' में उनके कितनी बर्फ जम गयी है
कोई उसे उँगलियों से खरोच के निकालने वाला नहीं है
लगता है उस घर में कोई बच्चा नहीं है

Friday, February 20, 2015

श्श्श्श्श्श्श्श्स………

वो छत पर गयी थी ये सोच कर के
           सिसकियाँ हवाओं में श्श्श्श्श्श्श्श्स………
                                                    हो जाएँगी

हवाओं ने उसके आंसू तो पोछे
         पर सिसकियाँ हर तरफ फैला दी

मेरी पूरी रात बीत गयी उन्हें इक्कठा करते करते
         उस मिट्टी के गुल्लक में भरते भरते

ये सोच के की किसी दिन फोडूंगा इन्हे
        याद करने इस रात की
                                        तन्हाईयाँ तेरी
                                                        खामोशियाँ मेरी

बाबा का दूसरा बचपन

बाबा हाँ मैं मानता हूँ
        की अब फिर बचपन जीने की तेरी बारी है

जिद करके, लड़ के
        परेशान करने की बारी हैं

मै चिढ़ता हूँ इस बड़े होने की अकड़न से
        पर पता है वक़्त से तो मात खानी है

इस`खिजन का कारण मेरा हसीं बचपन ही है
        जिसकी क्यारी तुम्ही ने छाटी है

मेरे परवरिश में`रखे तिनकों की नजाकत
        हाँ बस तेरी ही मेहरबानी हैं

एक माँ, एक तुम, और गोदी में बैठा मै, तो हम
       पर इस पूरे समीकरण में न मेरी कोई मनमानी है

बाबा हाँ मैं मानता हूँ
      आज तेरी मारफ़त मेरी जिम्मेदारी है

पर अपने इस दूसरे बचपन की मीयाद में
      तुमने अजीब सी जिद कर डाली है

जो इस नयी समीकरण में तुमने
     अपनी माँ चुन्ने की ठानी है


       

Thursday, February 12, 2015

वो कितनी दूर उछला

मैं कंकड़ उठा उठा
             तलाब मे फैंक रहा था

हाँ! देख रहा था
             के कौन सा
                     कितनी छलांग मरता है
                     के कितनी दूर जाता है
                                         डूबने से पहले

फिर वो हथ्थे चढा
             और छूट भी गया

जब तक मै सम्हलता
             वो तो खो भी गया

पता है
      इतनो मे
             बस वो ही एक निकला
             जो उतनी दूर उछला

मेरे लिए
       डूबने 

शायद और अच्छा

खुद को जोड़ जोड़ कर
                बनाने के बाद
                               कई बार तोड़ा है मैंने

ये सोच के की
               अगली बार
                              और अच्छा बनाऊंगा

पर हर बार उतना ही
               ख़राब, बर्बाद रहा मै

अब सोचता हूँ
              छोड़ दूँ ये तोडना जोड़ना

के मै शायद
             और अच्छा
                              बन नहीं सकता

Tuesday, February 10, 2015

साहित्य का मरघट

इस साहित्य के मरघट में
               न  जाने कितने
                              मुर्दे गड़े है

इनकी खालें गलती नहीं
               मांस इनका पिघलता नहीं
                               बस स्थिर पड़े है

जान भरता है कभी
              पढ़ने वाला कोइ                   
अपने तजुर्बों की सांसे
               देता है वही
             
मै इस कब्रिस्तान के चौकीदारों से छुप कर
             ये जमी खोदा करता हूँ
उन बड़ी कब्रों के पीछे वाली
             छोटी कच्ची कब्रें भी खोला करता हूँ

ठहाके मारते हैं
             ये मुर्दे मुझपे
अपनी हिमाकतें याद करते है
             शायद मुझे देख के

हर ढकती कब्र पे
             मै अपना कुछ खो देता हूँ
सच कहूँ तो
             मै पहले सा नहीं रहता हूँ

लोग कहते हैं
            मेरे कागज पे मिट्टी के दाग हैं
शायद मेरे नाख़ून में फसी
            उन कब्रों की खाक है

Monday, February 9, 2015

A stream

There are always sand and boulders in a stream,
The one who are sand, will never have a opinion
The one who are bounders,will just have opinion,
The one who are stream, will direct the sand and avoid the boulders.

लफ़्ज़ों का धर्म

मैंने बहुत भागने की कोशिश करी है
इन नाम देने वालों से

जिस जमी पे पाव रखा
             उसे एक नाम दे दिया
जिस दिवार पे हाथ रखा
             उसे एक पता दे दिया

मेरे जिस्म तक की
             पहचान बनाई है इन्होने

पता है "गुलजार"
            इन्ही से बचने को मैंने लफ्तों को गले लगाया

आज पता चला की इन्होने
           उन्हें भी एक धर्म दे दिया



मकर संक्रांति

आसमान पे "सेल" लगी थी आज
हवाओं की खरीद फरोक थी

सारा मोहल्ला निकला था
लेके झोला पतंगों का


ये मुस्काने

ये मुस्काने
               जैसे चुस्कियां चाय की
जेहन को राहत
               जैसे गुदगुदीयाँ पाव की

एहसास ऐसा
                जैसे तसकींया छाओं की
इल्तिफ़ात करती
                जैसे सरगोशियाँ यार की 

शेहर न मर जाएँ

सब भाग रहे है
          के कही ये शेहर न मर जाएँ

ICU में जो भर्ती है

हर चौराहे पे
          नब्ज़ नप रही है

कभी लाल, कभी हरी है

फ्लाईओवर के नीचे वाला बाजार

इस एकांत को बाजार 
            बहुत मुदत्तों ने बनाया था
उन तदबीरों की औलादें
            आज तक वो किस्से गाती हैं

सामान, हराम, हलाल, बवाल,
            क्या नहीं बिका
खपत, लगत और मुनाफे
            के नाम पे

पर इनकी बढ़ती सड़क पे जकड से
            किसी और बड़े बाजार की रफ़्तार थम रही थी

सो एक चादर फ्लाईओवर की बिछा दी

आज भी चमकीली रौशनी से
             ये बाजार सजता है
पर पत्तंगे सब
             ऊपर से ही उड़ जाते हैं

नीचे कुछ पलायन की
            आधी लाशे भी रहती हैं
वो उन्हें भी
            कुचल जाते हैं

मैं बहरहाल एक छोटा बाशिंदा ठहरा
            तो नुक्सान की कीमत भी छोटी थी
मेरे आँगन में अब चाँद नहीं दीखता
            जो अब वो जगह 'कंक्रीट' के खम्बे ने ले ली है।


भगवान सब देख रहा है

वो बच्चा टुकटुक्की निगाहों से
                        अपने बाप की बद्सलूखी देख रहा था 

मार खाती माँ ने चीख कर कहा
                        पता है  भगवान सब देख रहा है


Friday, February 6, 2015

पिरामिड समाज का

लपेट दो पट्टियों से मुझे
के एक जख्म भी न दिखने पाएं
जो कोई फ़ायदा उठा लेगा

चपेट दो चाहतों में मुझको
के दूसरों की मुस्कान भी न दिख पाए
जो मै मंजिल से भटक जाऊंगा

समेट दे ये तजुर्बे मुझमे
के सेहमने के काम आएंगे कभी
जो आज उन्ही के डर से मरा लेटा हूँ

चढ़ा दो कफ़न नजरियों के
गिरा के ताबूत में जिंदगी की
कहोगे जिन्दा रहना है यही

और फिर
और फिर क्या
कुछ नहीं

ईट सटा ईट, ताबूत सटा ताबूत
बनाओ गे पिरामिड समाज का
के ये मजार है वजूद इंसान का

असमानता ढांचे में है,
हर कोई इसे है जनता
पर अपनी ईट हिलाने को कोई नहीं है मानता

जो थूकता है ऊपरी मंजिल से कोई
निचे वाला उसी को आपस में बाटता
फिर कहते ये नियम है न इसे कभी टालना

कभी गुस्से में थूकता हूँ ऊपर भी
वो गिरता वापस आ हम पर ही
फिर कहते है देखो कुदरत भी चाहती है यही

और फिर
और फिर क्या
कुछ नहीं

मैंने अपनी ईट खीच ली

Thursday, February 5, 2015

रूह की जिद

काल्पनिक दोस्त थे वो
             जैसे रखो वैसे रहते थे वो
हम उनकी जुबां अपनी
             जुबां से बाटते थे
जी वो खिलोने थे
             खेलने के काम आते थे

ये बचपन की आदतें
             बड़ी ख़राब है
जो जिधर भी देखूं
             तो अब भी सब अपने
                       खिलौने ढूंढ रहें है
के टूट रहे है
             या तोड़ रहे है

सब बोलते तो हैं
           पर क्या बोलना है क्या नहीं?
                       ये अभी भी सीख रहे हैं
हाँ आज भी अपनी जुबान
               बाटने पे अड़े हुए हैं

बस लगता है
              के चलना सीख गए है
                          आँखों की पुतलियाँ खीच के झाकना`
तो अपने कुँए में गिरे हुए हैं
             सम्हलना सीख रहे है

ये कैसी हालत है 
             कैसी बेकसी
बस इनके जिस्म बढ़े है
             रूह छोटी

वो फुदकती है
             गिर जाती है
ये रपाट खीच के मारते है
             वो रोती है,
पर हर बार आंसू पोछ कर
             फिर वही जिद करती है

"गोदी चढ़ना है, कोई तो उठा लो "




पिछत्तर प्रतिशत जला आदमी

एक वो रात थी
           जब खुदा ने फरियाद में उसे भेजा
           उतरते उतरते काबुल का एक हिस्सा राख हो गया

उसने जिस दिन
          अपनी पहली नमाज पढ़ी थी फरियाद भरी थी
          खुदा ने उसके अब्बु को सहादत मुकम्मल करी

हाँ वो दिन भी आया
          जब अल्फाज और गोलियाँ दोनों साथ उसकी हथेली चढ़ी
          जिंदगी बनाने की उम्र से पहले, उसने जिंदगी थी ले ली

फिर कल रात
          एक ड्रोन स्ट्राइक में वो बारूद में लिपट गया
           मेरे आँगन आ लेटा, डॉक्टर साहब बोले वो पिछत्तर प्रतिशत जल गया

इसमें नया क्या था
           अंदर की उबाल, अब छालों के हुबाब हो चुके थे
            जितना ही बचा था, उतनी ही तो जिंदगी देखि थी उसने

बाकि तो उसने
             जलने, खाक होने और राख बटोरने में
             खर्च कर दी थी

और आज सुबह
              आखरी सांस भी उसने फरियाद में उड़ा दी
              बदले में खुदा ने, उस फरियाद को पकड़ उसकी रूह खीच ली



         

इजहार

खाली कागज पे
                 बस थी एक दस्तख़त

कुछ ऐसी थी वो
                इजहारे मौहब्बत

इस्तीफा, गवाही
               ऐलान, रेहमत

जो भी हों
               लिख दो किस्मत

देख यूँ
               उनकी ये हिम्मत

मै महिनों तक कलम उठा ना सका
मै खुद को खुदा बना ने सका

जो भी हुआ मुझसे
              उस कागज पे

चार सिकुड़न में लपेट
              मै लौटे आय

              मै एक शायर को लूटा आया
              मै उसको नज्म बना आया




Tuesday, February 3, 2015

आवाजों की दुनीया

कभी आँखे बंद कर
             आवाजों से ये जहाँ देखना
शोर, हल्लों, झगड़ों की
             परतें उचाड़ कर देखना
कुछ मिले तो उसे
             पहचान कर देखना

एक चिड़िया चीख रही होगी
            किसी का पेट भरने को
जो उसे भी बस आवाज का सहारा है

ये शहर गुर्राता सा लगेगा
             चोट खाए कुत्ते की तरह
जो दूर बन रही बिल्डिंग की सलाखें घोपी जा रही है

कुछ कीड़े दिन को भी जागते है
             बकबकाते है
ना जाने किस्से क्या कहते है

हर कोनो से ठोकर खाती इन हवाओं की
             सिसकिया सुनाई देंगी
जो इन्हे दर्द तो है पर जिस्म पे निशान नहीं है

और अगर फिर भी कुछ ना सुनाई दे तो

अपने रागों को थर्राती धड़कनो को सुन्ना
उछलते दिल की नाकाम तदबीरों को सुन्ना
के कब से जकड रखा है इसे सीने की कैद में

ये जहाँ मुमकिन है
               आँखों के अंधेरों में
 नजरों के पर्दों के पीछे
                जब सिमटी आवाजे
मेरे ख्यालों के कंधे पे
                सर रख कर सोती है

एक सपना

ये चाहत लिए
               उम्मीद बुने
एक सपना उठ पड़ा था

ज्यादा नहीं तो
              कम ही सही
पर हिम्मत कर चला था

जेहन से जेहन
                घुमा वो
आँखों से आँखों
                चूमा वो
मंजर फिर भी उसको न मिला

नीदों से रातें
               लड़ा वो
झगड़ो की वजह
               बना वो
मंजिल फिर भी नजरों में थी ना

ठोकर खा कर जो गिरा वो
अब जा के है ये समझा

रस्ता जो ये मेरा है
थम चल कर ही काटना

उठ जा तू उठ बढ़ जा
चल चल चल चल बढ़ जा

थम जा तू थम थक जा
थक थक थक थक थक जा

सोच जरा


क्यों दूजों की परछाईं ढुढ़े तू
क्यों इतनी खलिश पाले है रे तू
क्यों। …

नजरों में है बस नज़ारे
नजरिये ग़ुम हैं कहाँ

तुझमे जो सपना उठा था
वो खोया है अब कहाँ

घुटने छिल कर जो खड़ा वो
मरहम मरहम को तरसा

हर मुकाम की मोड़ पे जा कर
वो अब है ये बूझा

उठ जा तू उठ बढ़ जा
चल चल चल चल बढ़ जा

थम जा तू थम थक जा
थक थक थक थक थक जा