Wednesday, May 27, 2015

मै तुम्हारे बारे में कुछ जानती हूँ !

मैं तुम्हारे बारे में कुछ जानती हूँ !

क्या ?
      पता नहीं क्या ?

वो....
वो तो नहीं जानती ?
     या ,
           ये तो नहीं ?

वो वाला सच
     जिससे मैं खुद को अँधेरे में अकेले देखता हूँ

या वो वाला सच, खुले छोर के कुएं सा
        जिसे मै बस झांक के चला गया था
                    उसमे कूदा नहीं

या वो साँचा जो किसी और ने बनाया
        अभी तक तोड़ा नहीं
वो ग़लतफहमी थी!
        पता नहीं, पता नहीं

या वो डर
       जिसे मै जूते के तिरछे कोने से मसल गया था
उसकी राख की काजल
       किसी ने लगा तो नहीं ली

कहीं! वो वाली मरी सी आवाज तो नहीं
       जो रात में उठी थी
अरे यार! वो तो बस
        मेरे कन्धों की रगड़ थी

या वो फर्श पे
       फैली सी गलती
जो साफ़ तो की थी
       पर दीवारों पर छींटे भूल गयी

बड़ा ही अजीब माहोल है
       यहाँ सूरज
नाही ढल रहा है
       ना ही उग रहा है
बस फलक के हलक अटका हुआ है
ये उषा की छलांग है?
      या साँझ की डुबकी?

मेरे आँखों के छप्पर पे
      कई जम गयी है
             गंध मार रही है

बहुत नींद आ रही है
       फकत
            अभी तक
                     तुमने बताया नहीं
कि तुम मेरे बारे में क्या जानती हो ?

ऐसे कैसी, कहानी अपनी

जाने कितने, पत्ते टूटे
डालियों से, अपने छूटे

ऐसी , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

तारकोल की, बिछा के चादर
घुमा के पहिये, गाड़ी निकली

धुँआ धुँआ है, हवा हवा है
भूली बिसरी बातें निकली

ऐसी , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

पानी के चेहरे पे,
      ऊँगली से छू के
जो हिलकोरे, हमने थे छोड़े
      आज लहरें बन लौटे

चुपके, दुकपुका के
      आंसू जो निकले
हमने हवाओं से थे जो पोछे
      आज सावन बन लौटे

जितनी भी है
      माकूल है हम उसमे
टेढ़े मेढ़े सही
      आके अटके हैं हम तुझमे

कुछ माफ़ कर दिया है
      कुछ साफ़ कर चले
खामोशियों के पानी से
      यादें घोट चले

ऐसे , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

तिनको की, बना के मुट्ठी
उठा के फेंकी, हवा में फैली

ऐसे , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

पाव फैलाओ चादर नाप के

हाँ! मैंने सुने हैं लोगों के
     कच्चे अंदाज में, वो पक्के मुहावरे
के पाव फैलाओ अपने, चादर नाप के

पर हमारी तो जमीन इतनी लूट गई
के चादर लम्बी रही
     पर फूटपाथ छोटी पद गई

आप कहते हो पाव समेट लो
     जिंदगी के नाम पे
हम तो परछाईंयां समेट लेते है
     हर शाम
अब तो रौशनी दो!

Monday, May 11, 2015

ये गुस्सा

ये माथे से कूद कर
       जो नाक पर आ चढ़ा है

ये गुस्सा
      चाय में नमक सा
               बड़ा अटपटा है

वो रुकता नहीं है वहीं पे
      खुदी को पकड़ के
              गोता लगाता है

और जब गिरता है जमी पे
     तो चिपटे फटे आंसू सा
             दिखता है 

वो मंच, मेरा चबूतरा

टेढ़ा मेढ़ा खीच खांच के
इन शब्दों के चबूतरों पर
जब भी मैं खड़ा होता हूँ

बहुत डर लगता है
टूट जाने का
गिर जाने
बड़े सहज से रखने पड़ते हैं
अक्षर

किसी ए ओ औ पे
लड़खड़ाने का भय
तो किसी छोटी बड़ी ई
पे फिसल जाने का

कुछ बिंदु फ़ांस से
चुभ जाते है अगर
ध्यान भटक जाए तो

पैर अटक जाता है
उन शब्दों के बीच
अगर कदम छोटे पड़ जाये तो

उछलना भी आसान नहीं
कहीं ऊ से ना भीड़ जाए सर

हर बार रखने के बाद सोचता हूँ
के ये चन्द्र बिंदु की टोकरी उठाऊ या नहीं

इन सब के बाद भी
कुछ लफ्ज रह जाते हैं अड़े हुए

तो उन्हें भी ठोक ठाक के पैरों से
बड़े लहजे से चाट चाट के
कोमल करना पड़ता है

और जो कटे छटे गलत
चबाए हुए, थूके हुए से शब्दों
को साफ करने के बाद
जो कुछ भी दीखता है

वो ही मेरा मंच है 

Tuesday, May 5, 2015

कागज रंग रौशनी

कागज ने माँगा रंगों को
       रंगों ने रौशनी
बिन रौशनी, रंग नहीं
       ना कागज की ही खुदी

आँखों की थूक

आँखों की थूक,
सूखी सी,
        उबले गिरे दूध सी

सपनो की मलाई,
पलकों को खिचती,
        रोकती हुई

रौशनी की परछांई,
रौंदती हुई, तोड़ने
       नींद को

जेहेन की जंभाई
पपोटों को मीज
       जगाती

उसे जो रात भर बेसूद थी
    मेरी जुबान
          ये बोलने

"मुझे यकीन नहीं करना
     के मै जिन्दा हूँ
मुझे यकीन यही करना
     के मै जी के भी एक
              सपना हूँ "

वो तालियों से पिटा है

कागज पे चीनी डाल कर
   चबाने की कोशिश की है
अनजाने रहने की जिद पे
   उसने ये हद की है

ये मांस का गुदा
   हड्डी का गुथ्था
गरम रहने को
   किस किस की जेब में ना रहा

पोशम्पा, रिंगा - रिंगा पर
   झूम झूम कर गिरा
इसी बेखुदी में रहने को
   सांसे काली कर पी गया

किसी बूढ़ी लंगड़ाती सलाह के
   अनुभव पे चल के
वास्तविक्ता से वो बस
    दो कश दूर रह गया

वो जानवर है
    दांत हैं उसके पास
पर बस वो चबा सकता है
    काटना मना है

'ट्रेडमिल' पर वो
   बेतुका सा दौड़ता है
किसी की आँखों में अटकने को
   खड़े खड़े भटकता है

एक 'पोर्ट्रेट' बनाने 
  वो भी सच्चे प्यार की
सिंदूर में डुबाए 'ब्रश' को पकडे
  नाजाने कब से खड़ा है

बूह लगती है उसे महक अपनी
   वो धोता है, रगड़ता है
पर हर गुजरती हवा में, गिरेबान से
   किसी को ढूंढता है

और फिर
    जब वो मनचाहा किरदार बन
             मंच पर चढ़ा
    तो तमाशे के अंत में
            वो तालियों से पिटा है

अब
    जब लोगों की समझ से दूर
          वो चाँद को घूरता है
    हर हरकत को बूझता है
           शर्मिंदगी नहीं, अफ़सोस नहीं
बस घूरता है

चाँद को
       घूरता है

Saturday, May 2, 2015

शाम, सावन की

एक बिल्ली ने पंज्जा मारा है
तो ये बिजली चिंगारी सी कड़की है
वो चाँद नाख़ून सा गिरा पड़ा है
थोड़ा गहरा कटा है
जो खून बादलों पर छीटा है
हाँ वो रो रहा है
गिरती बूंदो से साफ़ पता चल रहा है


एक बंजर मेरा तुम्हारा

मैंने एक चाहत में
             उसका कुछ बिगड़ा
उस्ने मूझे उजाड़ के 
            अपनि राहत को पाया

क्योकि जो भी था "मेरा"
           वो था उसके लिए "तुम्हारा"
और जो लगा उसे "अपना"
           वो ना था मुझे "प्यारा"

वाह री हिमाकत
          तुझमे है कितनी ताकत

सब लगे थे चमन गुलजार करने
खुद के खयालों को अमल कर के

भिड़े लड़े, 
शहंशाह भी बने
पर बेजार बंजर के