Sunday, August 24, 2014

From the conflict of thoughts: A voice from a city


I opened a factory of its own kind,
To churn up the growing young minds,
Molding them to think my way,
Folding them to gain my gains.

They work for stomach and give their brains,
I give them food according to their shares,
My stamp on their face decides their fate,
The way they please me marks their rate.

I built a dam across their home,
To control the flow of how they grow,
They have to flow it’s the law of nature,
I extract the energy it’s a man-made feature.

Gain and gain, I store it all,
Rain and rain, I pour it all,
Filling the drains with dead desires,
Dark with soot of dreams on fire.

My mammoths of money has roared again,
I became the leader because of my gains,
A feeder of billion hopes,
Chosen by million votes.

Carrying the flag painted by my ancestors,
For service and honor of my mother,
Making them believe that they are unique,
Singing the anthem which I repeat.

From the conflict of thoughts: A voice from a forest


What they call me, I am a tribal.
Lacking in knowledge and not desirable.
I live in open without the walls,
Feed on things which nature gives to all.

I owe the lands open and fertile,
Nourished by nature, young and juvenile.
Where ideas flow without directions of reason,
No hunger, no greed for taste and pleasure.

I remember that evening of rains,
When those dark men came for gains,
Dark coat, dark pants and dark brains,
Called themselves the pioneer of change.

Comfort and pleasure was the offer they made,
Money was the measure for the offer we claim.
Money and money they pour it all,
Creativity and labor they store it all.

Now I live alone with barren around me,
No one to nurture the life around we,
River of imagination floods no more,
Dams of school control their flow.

I heard a roar by some creature,
They choose a leader for their future,
How can they sell their life so cheap?
Singing the song which he repeats.

Friday, August 22, 2014

कलियाँ

फूल रखती थी वो
                     सजा अपने कमरे में

शायद वजह थे वो
                    उसकी मुस्कान के
                                 उसके ख़्वाब के


एक सुबह घूम रहा था मैं
                   अपनी भिनभिनाती नज्मो के के साथ

जब वो दो खिली कलियों ने
                   मुस्कुरा कर देखा मुझे

जैसे गुजारिश कर रही थी वो
                   उसकी आवाज सुनने को
                             उसके रियाज में सजने को


पंहुचा तो था उसके दरवाजे
                उनकी मखमली  फरियादें लिए अपने हाथ में

पर इससे पहले की कुछ हो पाता
               उसका केवाड़ मैं खटका पाता

एक सुर उसका यूं उतर गया
               साहस मेरा भी चिरक गया

छेड़ ना पाया उसके हसीन रियाज को
               उसकी हसीन आवाज को

छोड़ आया उन कलियों को उसकी अटरिया पे
               हिम्मत ना हुई मुड़ कर आँख मिलाने की

शायद हवा के जोर पर
                पंखुड़ियां हिला रहे थे वो

जैसे खोज रहीं हो अपना
               बिछड़ा किसी भीड़ में

क्या मिली थी तुम उनसे ?
               क्या पोछे थे तुमने उनके आँसू ?

नसीरुद्दीन शाह

के तुम ही हो
                 वो साहस
                 जो हो के भी प्रतिबिंब
                 मेरे मन को आजाद करते हो
                 मेरे सीने के पिंजरे से
                
                 खयालों में बसते हो

के तुम ही हो
                 वो गुब्बारे वाले
                 जिसकी एक आवाज पे
                 गलियों में खिल जाते है चेहरे
                 दौड़ आते है नन्हे कितने कदम आँगन में

                 मुस्कानों में रहते हो


के तुम ही हो भावनाओं के सौदागर
                 मेहफ़ूज़ रखना खुद को

    भावनाए बाजार में बिकती नहीं
                               मिलती नहीं 

Saturday, August 16, 2014

संघर्ष

इन आसुओं में कटी मैंने जिंदगी, पर कोई कही मुझको भुला नहीं
वो चलती आँधी मुझसे ये कह गयी, तेरी यादों में कोई खोया कहीं

गूंगी फरियादें, बेहरी है आदते,
खुरदुरे से दिन है रेशम सी बातें
चाहतों को अब ये पैसों से नापे
पलटती फ़ित्रतो से हिलता जहां ये

कहते है वो इतनी सी बात है
बस चलता जा तू सीधी कतार है
ख्यालों पे परदे दाल के जिंदगी बना लो
और कोई सोंचे तो तुम उसको चुरा लो

इन आंसुओं में कटी मैंने जिंदगी, पर तुमने कभी मुझको समझा नहीं
वो चलती अंधी कब की थम गयी, जाते जाते मुझको तुम सा कर गयी


जलते इंसान

क्यों नहीं उतर आता सूरज जमी पर
बाटने अपनी रौशनी, जगमगाने इस जग को

क्या सोचता है,
                 चौंधियाई आँखों से छुप जायेगे ये मंजर

या डरता है,
                के जलते इंसान, बुझा देंगे उसकी जोत को

महीन कारीगर

कलम के बल पे, समाज से लड़े थे
अतीत की सेज पर, भविष्य के किले थे

कला को कल में बदलने चले थे
उजड़े बसेरों के आशियाँ बने थे

उठती अंधी को बारिश से बंधने निकले थे
सजाने इस जग को अपने रक्त से चले थे

वो महीन कारीगर थे, वो महीन कारीगर हैं

गुलज़ार

इस दरोड़ा ने दिए कई एकलव्य यहाँ

सिर्फ लफ्ज यहाँ, किये लफ्ज़ बयां

बचपन

नानी की  सेवइयां, खेमे यादों की खेवईयां
आंगन की चौपइया, ढूंढे आँखों, खोये चैना 

पोखरे की कोख में, सांसे रोके डुबकी लेना
सावन की मछली को नंगी मुट्ठी से पकड़ना

कानों में डाले उँगली, लाठी पे ताने सीना
बिरहा की धुन गाती चलती यारों की वो सेना

बागों की वो अमिया तोड़े - दौड़े भागे छिपना
मैं - मैं जब चिल्लाती थी वो  चरवाहे गईया

मिट्टी रगड़े दंगल में रोमांच से कुस्ती लड़ना
बाऊजी के नहलाने पर चीख चीख के रोना

ढेबरी की रोशनी से, चमकते थे ये नैना
घुपाली की गर्माहट में कटती थी सर्दी की रैना

पगडंडी  पर लचकते चलते, बचपन था जो बीता
उन मिट्टी के घर की सासों को, फिर तरसे मन मेरा

Thursday, August 14, 2014

जी रहा हूँ

स्याहियों को गोद रहा हूँ
कागजों को भर रहा हूँ
शब्दों में लिख कर मै
खयालों को पोंछ रहा हूँ

जिए जो क़ुछ पल मैंने
उन फलों को बटोर रहा हूँ

हुए जो इन्तेहाँ ऐसे
उन हलचलों को दबोच रहा हूँ

सन्नाटे  जो कह गए
उनमे आवाज भर रहा हूँ

फर्राटे में जो छूट गए
उन्हें याद कर रहा हूँ

आँखों को जो छू गए
उनकी तस्वीर बना रहा हूँ

जो किसी को ना बंधे
वो लकीर खीच रहा हूँ

थकावट के दर्द से भरी
उन नींदों में सो रहा हूँ

आवाज की भीड़ में जो भी सुना
उसे समझ रहा हूँ

अगर ये नशा है
तो मै उसमे धुप हो रहा हूँ

लोग कहते है, क्या कर रहा हु मै
मैं ! मैं तो सिर्फ जी रहा हूँ

 

रिश्ते

ये दोसत, ये प्यार, या हो परिवार
सब रिश्ते है, और कई नाम

ये जब डोर बने और बाँधी गाठ
तब कठपुतली सा नाचा इंसान

चाहता हुँ

तुझे तकते हुए
इन आँखों के दर्द से
अँधा न हो जाऊं

अंधेरों में चलता
तेरे ख्वाबों को पसेरे
कहीं शर्मिंदा न हो जाऊं

तेरे चुनर की चाहत में
आसमा को पकड़ता
एक परिन्दा न बन जाऊं

उजड़े अधूरे सवालों सा
बसता जो खंडहरों में, पुराने शहरों के
एक सन्नाटा ना बन जाऊं

चाहता हुँ बनना गवाह तेरे वजूद का
पर तेरी अनजान नजरों में
एक धुंधली तस्वीर सा ना रह जाऊं

छोटी जिन्दगी

खुदा के है दर से जो मिली
है छोटी सी ये जिन्दगी

सादी सी है पर रंग भरी
रौशनी से धुली पड़ी
पतंगों सा क्यों झूमे फिरे
बाती सा जल जल यूँ मरे

बोलो अगर तो ये बातें हैं
चुभती है, तो ये काटें हैं
जिलो इन्हे तो ये इबादत है
वरना ये सब एक बगावत है

वो आवाज

अल्फाज़ों को जोड़ कर बोलना तो हर कोई सीखता है

जो अल्फ़ाज़ों से दिलों को जोड़े वो आवाज कहाँ ?

Friday, August 1, 2014

पढ़ाई

स्याही स्याही खून बहायें,
               कागजों पे येही
आँखें ना खोल पाएँ,
               ये नन्ही जिन्दगी

 दीवारों के आगे,
                हैं जहां और भी
ये भी ना सोच पाएं,
                कैसी ये बंदगी

सहमे से बैठे हैं,
               डाटों के जोर पे
चलना ना सीख पायें,
               खयालों पे ये कभी

शब्दों को जोड़ के,
              ये लड़ाई है लड़ी
सीधे-साधे मन पे,
              क्या असर वो छोड़ गयी

कड़वी तो ना थी,
               पर है चखाई ये गयी
कैसी पढ़ाई है  ये,
               जो घोटाई है गयी