Saturday, January 24, 2015

I wish

Love is as infectious as sorrow,
Do you think, will I see tomorrow,

One rot to other,
Other forgot for another,

I wish, I wish, I wish
If I can kiss this another wish.

Friday, January 23, 2015

हर गिरती बूँद

हर गिरती बूँद का एक आकर होता है

हर भाप होती बूँद का छूटा एक विचार होता है

जमे मलाई की तरह

एक उबलते दूध के हुबाब सा उठते हैं
एक दूसरे पर झपटते फूटते
कंधे पे पाव रख फिर से उठते
जो कहीं तो कुछ जल रहा है
एक लम्बे समय से
इतना वक़्त लगा उठने में
और जो अब उठ रहा है तो यूं बेशुमार

कुछ बारजे लांग कर गिर पड़े, बेसुध, बेकार
जो रह गए पड़े, जमे मलाई की तरह

कुछ ऐसे ही उठे थे ये विचार
इस गलते बदलते शरीर में

कुछ गिर गए है
दौड़ते वक़्त के हाथो से
और जो रह गए है
वो जम रहे है इन डायरी के कागजों पे

अपनों के पहिये

अपनों के पहिये है
अंजानो के रास्ते

रस्ते कुचलते रह गए
पहियों के वास्ते

पहिये बदलते रह गए
रास्तों के वास्ते

Sunday, January 18, 2015

लिव-इन रिलेशनशिप (live-in relationship)

दो ज़माने से रूठे कबूतरों ने
अपने टूटे घोसलों के तिनकों से
देखो! एक नया घोसला बनाया है

के सच्चे प्यार की सच्चाई का
सच्चा अंदाजा लगाया है


ये लाज ना ले जाये ये जमाना

ये लाज
      ना ले जाये
               ये जमाना
बिन पहरे लगा
            इसे बचाना

किस घर में
           घूँघट में
                  छुपा है
या तेरी निगाह में
               बसा है
अगर बूझो
             तो मुझे बताना

ये लाज
      ना ले जाये
               ये जमाना
बिन पहरे लगा
            इसे बचाना



अख्तियरों में
            उसके
                  कमी है
या तेरी
        जुबां में नफ़ी है
सोचो
       क्या ये है बहाना

ये लाज
      ना ले जाये
               ये जमाना
बिन पहरे लगा
            इसे बचाना



रोटी, कपड़ा और मकान

इस चमड़ी पे चमड़ी चढ़ानी है
इस चमड़ी से उड़ते भाप की
ये गर्मी अभी बचानी है
इस गर्मी की जलती आग की
खुराक भी मुझे ही लानी है
इस आग की चिमनी टूट न जाये
एक दिवार की गिरफ्त बनानी है

ये जिंदगी गिरफ्त में
मै जिंदगी की गिरफ्त में
चमड़ी की सलाखें
सांसों में भापे

रहा यही मुकाम
रोटी, कपड़ा और मकान

मिलावट

मेरे दिमाग में
           उठे कुछ ख़याल

जबीं की दिवार पे
           कालिख पोत रहे थे

तिलमिलाया में पूछ पड़ा
          अरे! किसने तुमको जगाया

वो बोल पड़े

तुम्हारी नजरों से जो भी छन कर आया
उसे उबाल रहें है, उसे ही खा रहे हैं

अब इन विचारों में प्रचारों की मिलावट हों
या कोई तुम्हें भटकाना चाहता हों

तो हम क्या करे



ये डायरी खतम होने जा रही है

ये डायरी खतम होने जा रही है
मैंने अनजान लम्हों के चाटे इसके चेहरे पर छपे है
इसके वफादारी की इन्तेहां हुए जा रही है

ये समझ गयी है मेरी सांसे लम्बी है
और इसके कागज कम
इसी लिए थोड़ी सठिया गयी है

बूढी हो गयी है
बॉन्डिंग पर इसके झुर्रियां पड़ गयी हैं
वजन भी थोड़ा बढ़ गया है

कुछ फटे से निशान भी हैं कोनो पे
कुछ पानी के धब्बे हैं किसी बारिश के

अपनी कुचली मुरझाई आँखों से देखती है मुझे
अपने सीने आप बीती स्याहियों की महक समेटे

ये बौखलाती नहीं अब नई नई नज्मों के शोर से
उन्हें अब ये लोरियों से सुलाना जानती है

उसके कागज से मेरे हाथ जब ठंडी चुराते थे, ये बहकती थी
अब सम्हलना जान गयी है, मुझे पहचान गयी है

ये मिलना जरूरी था, अब छूटना जरूरी है
मै एक दिन किसी दराज की ताबूत में दफन कर दूंगा इसे
ये इतना भाप गई है, मतलबी सी हो गयी है

जब मै पन्ने पलटता हूँ पीछे के, कुछ पुरानी बातें बड़बड़ाती है
अनसुना करना लाजमी नहीं, सुन कर चुप रहना मुमकिन नहीं

इस लिए तो ये कलम, आज बगावत कर रहा है
तेरी जुबां गा रहा है
                   तुझसे वफ़ा कर रहा है

Thursday, January 15, 2015

कला! तू कल आई थी

वाह! री कला
    तू कल आई थी
             आज नहीं
    कल फिर आएगी
              पता नहीं

जब भी आती हो
     मिझे थोड़ा बनाती 
               रत्ती सही
      फिर से तो आओगी
                गुमा यही

मै खाता हूँ
       इस कलम को भरने को
बहाता हूँ स्याही
       पर जिन्दा रहने को

के निकल आओगी कभी
        इस नोक की सुराख़ से
जब रगडूंगा इस कागज पे
        इन सुखन में, इबारतों में

तुम मेरे खयालों को पूरा करोगे
         इसी लालच में लिखता हूँ
इन फसलों को कम करोगे
         जेहेन के सच उड़ेलता हूँ

कला! तु कल आई थी
                     आज नहीं
फिर कभी आओगी
                     पता यही

बस इतना कहना है
        अब जब भी आना
                 बिन बताये आना

नोकीली यादें

हर बिछड़ी बीती बातों की, नोकीली यादें है

कुछ मुड़े, पश्मीने रेशों सी गुदगुदा रही है
कुछ अड़े, थोर के काटों सी चुभे जा रही है

Monday, January 12, 2015

तार (wire)

शायद ये  वक़्त ना जायज़ करता कोई भी इनपे
पर फिर भी एक बार मेरी नजर फिरी पड़ी इनपे

ये तार मेरे कमरे के कोने में कितने सुकून से पड़े थे
जैसे अजगर जो महीनों से हिला न हो

पर सोचो हर दिवार कुरेद कर अपनी बाहें फैला रखी है इन्होंने
जैसे कोई ऑक्टोपस ने सिकंजा कस रखा हों मेरे घर पे

कुछ पीतल ताम्बे के नाख़ून लिए
कुछ ऑप्टिक फाइबर मुह खोले हुए

सब बिजली थूकते है, जुबान अलग बोलते है
कुछ हवाओं से सरगोशियाँ कर दूजों से बाते करते हैं

अब सोचता हूँ तो लगता है

ये मेरे बारे में कितना जानते हैं
अपनी इस चमड़ी के नीचे कितना छुपाते हैं

किसी की खुसी, किसी के गम
हालत जस्बात, बेवजह की बकवास

क्या नहीं निगल रखा इन्होने
क्या नहीं चख रखा इन्होने

पर फिर भी कितना विचलित मै
पर फिर भी कितने शांत ये

लगता है ये इस जहाँ को ज्यादा समझते है
जो इनकी डिजिटल जुबान में ये जहाँ -

शुन्य एक
एक शुन्य, में छपा है

Saturday, January 10, 2015

नफरत के अंधेरे

इन दीवारों को क्या रगड रहा है
ये किससे इतनी नफरत कर रहा है

के अंधेरे ये पोछने से मिटते नहीं