Wednesday, October 28, 2015

नीले मेघा

ये सावन
       भीगा सा सावन 

झटक के आँचल 
       मुझपे गया 

छोटी सी बूंदो ने 
       फिसल के मेरे काँधे से 
रूह को मेरे 
       छू दिया 

नीले मेघा 
       ओ नीले मेघा 
टप से गिर 
       छप के जा
नीले मेघा 
       ओ नीले मेघा
मिट्टी की
       महक उड़ा


दुनिया सी माचिस

एक कब्र ये डिबिया
हजारों तीलियों की
                       माचिस

हर एक, सर कलम करवाने
जल जाने को तैयार, ये मुर्दों की
                      दुनिया

मेरे नशे के काम आती है
ये जेबों में कब्रिस्तान सी
                     माचिस

ये भी सच है, सट जाये अगर तो
शमशान बन जाएगी ये
                     दुनिया

बुझ जाने पर भी, आखरी शोले तक
पलकें खीच के देखती है ये
                     माचिस

और मेरा घर जलने पर भी
कैसे आँखे मूंद लेती है ये
                     दुनिया

हर बार, रगड़ खाने पर
पहली चिंगारी पर, गुर्राती है ये
                     माचिस

पर चीख पर, मजबूर की
शांत रहती है, ये संटी खायी सी
                     दुनिया
                 
हवाओं से बुझ जाती है
बारिशों में पसीज जाती है ये
                    माचिस

जैसे दीवारों के पीछे
छुप जाती है, पीठ सटा के ये
                   दुनिया

है सस्ती, अठ्ठनियों में बिकती
पर फिर भी है तलभशुदा की मज़बूरी ये
                  माचिस

एक तलभ ऐसी भी है, मसीहों की
जिसके सामने, सस्ती पड़ जाती है ये
                  दुनिया

कभी दत्तों में दबाये हुए
मसूड़ों को खुजलाती हैं ये
                  माचिस

कभी दातों तले चबा जाती है
उँगलियाँ, घबराई ये
                 दुनिया

है लाल,
      हों धुँआ,

बच राख
     सब फूंका

ये माचिस से दुनिया
ये दुनिया सी माचिस


                       

Tuesday, October 27, 2015

इंसान हो गए हैं

जैसे दिवार रिस रिस के
      काई हो जाती है
            आशियाँ हो जाती है
मै भी रिस के
     इंसान हो गया हूँ
            मकान हो गया हूँ

हर दिन, एक दिन
     एक तिनका
           चोच से खीचना
आसान नहीं होता

एक सपना हक़ीक़त में
     हलका नहीं होता

एक दिन में
     दिन और रात होते हैं
सब बराबर और
     समान होते है
फिर उनमे कुछ
     रविवार होते हैं
क्योकि मेरे मन में
     विचार होते हैं
घंटे होते है
     मिनट होते है
          माप होते हैं

पर इन सब के अलग
    एहसास होते हैं
इस लिए ना लम्हों
    के हिसाब होते हैं
मेरे कितने कितने
    आकार होते हैं
कितने भरोसे
    बेकार होते हैं
मेरे दिन के यहाँ
     वैपार होते हैं
रूपये पैसे
     बर्बाद होते है
फिर उनपे बेहेस
     और प्रचार होते है
नेताओं के वैचारिक
     पुलओ होते हैं
हम भाषणों में फिर भी
     जवाब ढूंढते है
गरीबों को यहाँ
     मजदूर कहते है
शहरोँ में होक भी
     बहुत दूर लगते हैं
कर्जों में बंधे
     वो मजबूर लगते हैं

मेरे दिन के
   इतने आयाम होते है
पता नही कितने
   बेकार होते है
पर फिर भी सनक
   हर बार करते हैं
के लोग कहते है
   वो इंसान हो गए हैं
इस शेहेर में बहुत से
   मकान हो गए हैं
थोड़े रिस जो गए है
   पुराने हो गए है
काईयों से पुते पत्थर
   अब खामोश रहते है 

इतना आसान नहीं है

हर रात, अंगड़ाई से
       चादर जो खीच लेती है वो
मेरे ऊपरी कंधे पे ठंड
      आ बैठती है, पालतू सी
मै उसे हटा नहीं पाता,
      एक सौदा वहीँ जम जाता है नींद का

मौत
     कुछ यूँ सोती है मेरे बगल में


दिन में  जब परछाईं सहम के
     सिकुड़ जाती है
वो गर्दन के
      सिराहने बैठ
 हर पल को विडंबना बना
       फुसफुसाती है कान में

मौत
    तब बहुत काइयां लगती है


जब लिखते लिखते
   मेरा दायां हाथ
बहिने का क़त्ल करना चाहता है
   के क्यों इतने
निरस्त हो ? मुर्दा हो ?
   सवाल गूंजता है

मौत
    तब बहुत हस्ती है मुझपे


वो नाचते हुए आती है
    मेरे कन्धों को छू नाखून से
गुदगुदाती ऐसे
    के हसी भी आये
और सहा भी ना जाये
    तड़पता, मै

मौत
    मुझसे ज्यादा खुस नजर आती है    


जैसे अंधेरा
घने पेड़ों के नीचे
रौशनी में
गुमनाम रहता है

चाँदनी, रात में
सर्द हवा से
दात कटकटाते पत्तों पर
सुनसान रहती है

वैसे थोड़ी मौत जिन्दा रहती है
         जताने
के जिन्दा रहना भी
     इतना आसान नहीं है



Thursday, October 8, 2015

नसीर शाह - 2

तेरे माथे की लकीरें
          मुझे किताबें लगती हैं
आवाज की खराशें
          मजारें लगती हैं
जिन्हे पढ़ के, सुन के
         दुआएं लगती हैं

तेरे कमरे की दीवारों पे
         तस्वीरें चलती हैं
मुझे पता है तेरी मेज पे
         कहानियाँ पड़ी है
जिन्हे चख के, तुमने
         ये जवेदानियाँ रचीं हैं
       
के तुम ही हो
          जिसकी कला
           मेरी आराम कुर्सी
           जिसपे टेक
           सर लगा
           जिंदगी
           चाँद देखती है

के तुम ही हो
          वो इत्र
          जो लग जाये
          तो महकें
          हर बार, बार बार
          जेहेन में
          खयालों में

के तुम ही हो
         वो टेढ़े मेढ़े से
         चित्र
         गुदे हुए
         आखरी पन्नों पे
         जो हंसाते हैं 
         जब तुत्तलातें हैं


के तुम ही हो
         भावनाओं के सौदागर
         मेहफ़ूज़ रखना खुद को
         के भावनाए
         बाजार में
         बिकती नहीं
         मिलती नहीं