Monday, May 8, 2017

धरोहर - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

महानता के कई पैमाने होते हैं और कई आयाम भी।इनके फायदे और नुकसान की काफी लम्बी लिस्ट है। साहित्य इन्ही मापदंडो को समय-समय पे बदलता है और अलग-अलग विचार को धाराएं देता है । आलोचना इस प्रवाह का महत्वपूर्ण हिस्सा है। क्या हमे साहित्य को हमेशा साहित्यकार से जोड़ के देखना चाहिए ? क्या साहित्य साहित्यकार की आत्मकथा समान है ? ये सोचने वाले प्रश्न हैं। इनकी गहनता से उलेख्ना सौरव ने अपने समपादकीय में की है और ये विमर्श के लिए खुले हैं। इस लेख में, आज महानता को हम एक दराज में बंद कर के भूल जाते हैं, कोशिश करते है कविता को कवि और कवि को कविता से साधने की।

कुछ दिनों पहले ही बैंगलोर के एक सम्मलेन में वाद और वाद के वादियों (समर्थकों) पर चर्चा हो पड़ी और मेरे समकक्ष सर्वेश्वर जी की कविता "पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट" झलक आई । कविता ने इतनी लम्बी चली बहस की चंद पंक्त्तियों में निचोड़ दिया था और बतलाया था के मरने के उपरांत भी वादियों का पेट भरा था मगर वादे सुनने वाले का नहीं। ठीक उस "पिछड़े आदमी" की तरह जो हमेशा पीछे चलता था, शांत रहता था, शून्य की और तकते हुए।

लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया।

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविताओं में ऐसी कई जनवादी उत्तेजना है। जो कटाक्ष का रूप ले भीतर घाव करती है।ये तीखी है। इनमे धुमिल की कविताओं सा निराशापन है मगर डरावनी नहीं। निराशापन विचारधाराओं का जो बोलती कुछ है और करती कुछ और। सर्वेश्वर, जो की खुद एक पिछड़े इलाके से थे, इन दोगली विचारधारों के प्रकोप और उत्पीड़न को समझते थे। किसी खेमे का समर्थन ना करते हुए वो आधारभूत धारणाओं को कविताओं के जरिये उठाते थे। धारणाए जो क्रमबद्ध तरीके से समजा में होती आई हैं और होती जा रहीं हैं। "भेड़िया" कविता इसका सफल उद्धरण है, जो तीन हिस्सों में लिखी गयी है। पहले हिस्से में समाज भेड़िये का सामना करता है, दूसरे मे उसे हरता है और तीसरे में नए भेड़ियों को जन्म देता है। कविताओं को भागों में बाट कर एक क्रम में खींचना सर्वेशवर की शैली थी। ये क्रम कई रूप में कारीगर थे। विषय को आसान करने  के अलावा ये निरंतर होते धीमे बदलावों को बड़ी कुशलता से उजागर करते हैं। जो जनचेतना के लिए अनिवार्य है। इन सब के साथ व्यंग्य की प्रचुरता भी है | व्यंग्य जो जरूरी है एक घटना को अलग चश्मों से देखने के लिए। समाज को उदार और सहनशील बनाने के लिए। व्यंग्य की महत्त्व को दर्शाते हुए सर्वेश्वर व्यंग्य करते हैँ -

व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो।

सामाजिक विमर्श उनकी कविताओं एक मात्र बिंदु नहीं था। हालांकि, अगर उनकी समाज केंद्रित कविताओं को पढ़ा जाये तो सर्वेश्वर जी के जीवन और उनके प्रतिवेश का प्रभाव उनके काव्य में साफ़ दीखता है। ऐसी कविताओं को कवि के जीवन से जोड़ कर देखना उतना ही उपयुक्त है जितना सूरज का पश्चिम में ढलना। इन कविताओं में पीछेड़ेपन की हताषाएं है, गरीबी की विषमताएं हैं, मुश्किलें हैं। जो भरसक हैं।

इन सब निराशाओं के बीच, सर्वेश्वर के काव्यबोध का एक और किनारा भी है जहाँ प्रयोगवाद उनकी मेज पर फैला हुआ है और शमशेर सामने बैठे हुए हैं। इसी लिए वो शमशेर का काव्य पढ़ने के बाद कहते है -

उतर आये
कुछ सितारे
व्यथा बोझिल
पलक पर -
नहाती है चाँदनी
डबडबायी झील में।

प्रयोगवाद सर्वेश्वर का एक कवि के रूप में आत्मसंघरश है। ये सर्वेश्वर की अभिलाषा है जो कविता द्वारा उन्हें बतौर कवि की तरह स्थापित करता है। ऐसी कविताओं में कवि से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। ये कविताएँ कवि की कला और साहित्यिक सामर्थ को दर्शाती हैं। वो अपने आप में सबल हैं और इसी लिए ऐसी कविताओं का आंकलन कर पाना कठीन है। सर्वेश्वर के प्रयोगवाद में बिम्ब साधारण है जो उन्हें शमशेर से अलग करते है। ये बिम्ब छोटे है, अनेक है, एक कविता में गुलदस्ते से नजर आते हैं। वहीं दूसरी ओर ये कविता को सरल भी करते हैं। सरलीकरण सर्वेश्वर की कविताओं में साभिप्राय है। ये उनकी कोशिश सी लगती है। शायद इसी लिए सर्वेश्वर बाल कविताओं में महारथ रखते थे। सर्वेश्वर मानते थे जिस देश के पास सफल बाल साहित्य नहीं है वह देश आगे नहीं बढ़ सकता। फलस्वरूप बाल कविताये उनके काव्य का के महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं।

सर्वेश्वर की कविताओं की सरलता ही उनकी ताकत है। ये ताकत उनकी प्रगतिशील विचारधारा को वेग देती हैं। उन्हें और निखारती है, असरदार बनाती है। इसमें कोई दो राय नहीं की सर्वेश्वर एक प्रयोगवादी थे। उनकी प्रयोगवादी कविताओं में यथार्थवाद साफ झलकता है। ज. स्वामीनाथन की पेंटिंग पर लिखी सर्वेश्वर की चार छोटी कविताये इसका उत्तम उद्धरण हैं।जिन्हे ज. स्वामीनाथन की पेंटिंग देखते समय पढ़ना, सहित्य और कला का अनूठा अनुभव है।

इसी के साथ में अपना ये लेख समाप्त करना चाहूंगा। अब अगर आप चाहे तो दराज से महानता को निकाल अपने अपने अंदाज में नाप सकते हैं। हमेशा की तरह इस अंक में सर्वेश्वर जी की कुछ रचांए साँझा कर रहा हूँ। इनमे कुछ बाल कवितायेँ भी हैं। उन्हें खुद भी पढ़े और आस -पास के किसी बच्चे को भी पढ़ाये। धन्यवाद।


भेड़िया २

भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ ।
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फ़र्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।

अब तुम मशाल उठा
भेड़िए के करीब जाओ
भेड़िया भागेगा।

करोड़ो हाथों में मशाल लेकर
एक - एक झाड़ी की ओर बढ़ो
सब भेडिए भागेंगे।

फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल
बर्फ़ में छोड़ दो
भूखे भेड़िए आपस में गुर्रायेंगे
एक - दूसरे को चीथ खायेंगे।

भेड़िए मर चुके होंगे
और तुम ?


भेड़िया ३

भेड़िए फिर आयेंगे।

अचानक
तुममें से ही कोई एक दिन
            भेड़िया बन जायेगा
उसका वंश बढ़ने लगेगा।

भेड़िए का आना जरूरी है
तुम्हें खुद को पहचानने के लिए
निर्भय होने का सुख जानने के लिए।

इतिहास के जंगल में
हर बार भेड़िया माँद से निकाला जायेगा।
आदमी साहस से, एक होकर,
        मशाल लिये खड़ा होगा।

इतिहास जिंदा रहेगा
और तुम भी
और भेड़िया ?






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