Sunday, August 16, 2015

तो अब खो भी दो इसे

दिन अच्छे भी होते हैं
      लोग बुरे भी
            मगर जिंदगी नहीं

तो
अब खो भी दो इसे

किसी के हो भी गए
    तो लिफाफों में, दराजों में
            बीत जाएगी

किसी के ना हुए
    तो यूँ ही
           धूल बन जाएगी

ये सजावट
    जैसे तारों की
           हर दिन

तो
अब खो भी दो इसे

भला ये किसके काम आएंगे

जैसे बरसात का पानी
      बारिश के बाद
वो चमकीला कागज
      उपहार के बाद
जिस्म की मैल
      धुलने के बाद
मेरी ये बात
      जुबां के बाद

दिन अच्छे भी होते हैं
      लोग बुरे भी
            मगर जिंदगी नहीं

इसी लिए

मै मरने का ख़याल भी
      रातों को लाता हूँ
के आँखे बंद करने से
      डर लगता है

Thursday, August 13, 2015

तीसरी मंजिल का कोना

वो 'स्ट्रीट लाइट'
             पेड़ के पीछे वाली 
पत्तों की पलकों से मुझे अनदेखा सा करती है 

मैं पीला पड़ जाता हूँ 
            हर रात उसकी रौशनी में,
                                   बीमार 

पसीजा सा मेरा बिस्तर, 
एक गीली जमीन सड़ने को 

मैं सराबोर
       वंचित आसमान 

जो दीखता तो है मगर कोई छू नहीं सकता 

या 
वो खिड़की के बहार 
तीसरी मंजिल का कोना 

जिसे छू तो सकते हैं मगर कोई कोशिश नहीं करता 

मैं सराबोर 
      वंचित सपना 

हाँ !
    वही तीसरी मंजिल का कोना

Sunday, August 2, 2015

वो काल मेरे चेहरे पर

स्याह रातों पे
            स्याहियां फेंकते थे
                             हम तुम

इंक पेन से
           और जो हाथों पे
                            फ़ैल जाती थी
तुम कहती थी
          अपने बालों पे पोछ लो
काले में काला
          छुप जायेगा

मै बारिशों को
          भूल गया था

वो काल मेरे चेहरे पर
          साफ़ दिखता है
                          सभी को
बस मुझे नहीं

के तुम थी
          तुम हो नहीं
स्याहियाँ सूखी है
          खत्म नहीं हुई
बादल सूख गए है
          सफ़ेद से, पर है वहीं
मुन्तजिर है, दवात के
         जो रात फिर कभी हुई नहीं