Monday, May 8, 2017

धरोहर : सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'

धरोहर : सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'

लोहे की पटरियों की गड़गड़ाहट, धूमिल की कविता, जिन्हे सुनने में कुचल जाने का डर भी है तो आने वाले कल का रोमांच भी। एक आगाज, बदलाव का। ठहराव से निजाद का । ठहराव जो आजादी के बीस साल बाद तक पैर पसारे बैठा था और  धूमिल को स्वीकार न था । उनकी कविताओं ने उन उमीदों को हवा दी जो आजादी के साथ जन्मी थी और जल्द ही बुझने वाली थी। सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' ने अपनी कविताओं से सवाल किये, सामाजिक विडंबनाओं को उजागर किया, साहस किया उपहास उड़ने का उस व्यवस्था का जिसका सपना सबने देखा था, मगर वास्तविकता में नहीं। धूमिल ने उन जीवंत कठिनाइयों को अपनी कविताओं में प्रकट करा जो रोजमर्रा हो गयी थी । कठिनाइयाँ जिनसे तंग आ कर आजादी का संघर्ष हुआ था, बदलाव हुआ था, और अब फिर से ठहर गयी। वो इस जनतंत्र की असफलताओं से निराश थे । जिसका अंदाजा इन पंक्तियों से ही लगाया जा सकता है -

क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
चुपचाप।

धूमिल , मतलब धुल में मिला हुआ। मटमैला सा। इतना साधारण के आँखों के सामने हो कर भी ना दिखे। धूमिल ऐसे विशेयों के विद्वान है । वो अपने व्यंग के फावड़ों से इन धुल की परतें हटाते हैं। उस पक्ष को समक्ष लाते है जो चर्चा में ही नहीं ख्यालों में भी लुप्त हो चुके हैं । वो उस दौर के कवि है जब भारत एक राजनीतिक मोहभंग से गुजर रहा था।  जिसके पप्रभाव उनकी काव्य शैली पर साफ़ दीखता है | उनकी रचनाओं में उत्पीड़न, स्त्री के अलग अलग रूपों में प्रकट होता है । एक स्त्री जो वस्तु है विज्ञापन के लिए, एक पत्नी जो थामे है एक पेशेवर गरीब की गृहस्ती, एक बुढ़िया जो ताले सी पीछे छूटी हुई है गाओं में, एक पागल गाभिन औरत जो भागती है "शहर की समूची पशुता के खिलाफ"। औरत का चित्रण उनके लिए अनुभूति है -

उस औरत की बगल में लेटकर
मुझे लगा कि नफ़रत
और मोमबत्तियाँ जहाँ बेकार
साबित हो चुकी हैं और पिघले हुए
शब्दों की परछाईं
किसी खौफ़नाक जानवर के चेहरे में
बदल गयी है, मेरी कविताएँ
अँधेरा और कीचड़ और गोश्त की
खुराक़ पर ज़िन्दा है


हिंदी साहित्य में सामाजिक विशेयों को केंद्रित कर बहुत सी कवितायेँ लिखी गयी है, पर धूमिल की कवितायेँ उस जथ्थे में एक दम से अलग दिखाई पड़ती है। ये धूमिल के अंदर के काव्य बोध की प्रचूड़ता को उजागर करता है ।  धूमिल उन चंद कवियों में से है जो कविता को प्रधान रख विषय को सवारते है । शायद इसी लिए उनकी कविताओं का मर्म एक अलग छाप छोड़ता है । एक ऐसा छाप, जहां विषय का नंगापन कविता की कला को बिगड़ता नहीं, और गहरा प्रभाव डालता है । उनके व्यंग बिजली के झटको से लगते है तो विषय की सरलता मलहम सी। वो समस्यों को खुले जख्मों सा छोड़ देते है, विचार करने को । इलाज नहीं देते । स्मरण  करने को मजबूर करते है।  आखिर क्या गलत है ?  और अगर है तो क्यों ?

धूमिल की कविताओं में "लोहे " का विशेष महत्त्व है। ये लोहा एक आक्रामक बगावत को दर्शाता हैं । जो गरीबो के खून में, कुपोषण के चलते, इतना कम हो चूका है की वो अपनी आजादी की ताली तक नहीं बना सकते। ये लोहा एक लगाम है आजादी पे, जिसका स्वाद बनाने वाला लोहार नहीं बल्की वो तबका समझता है जिसके मुह में लगाम है । ये लोहा लोगो के घरों के दरवाजों पर लटके तालों सा है। ये लोहा अलग अलग औजारों सा प्रकट होता है - किलों पे ठीके हुए अनुभव में, चाकू को ढूंढती हुई जरूरत में या निहाई और हथौड़े की दोस्ती में, जो हँसुए को हनने के लिए हुई है । ये लोहा उस दुकान में भी है जिसमे बैठा आदमी हरित क्रांति का सोना है और किसान मिट्टी ।

धूमिल के इसी लोहे ने, बिम्बो में उलझे साहित्य के आइनों को तोड़ फिर से वास्तविकता के करीब लाया। साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब बनाया, बदलाव के लिए । धूमिल की आक्रामकता, जटिलता, विद्रोह भाव, लोहे सी । लोहा जो औजार है, मजदूरों का। लोहा जो जवाब है चाबुक का।

धूमिल धुल है । धुल जो हवाओं को तूफान का नाम,  पैरों को दिशाओं की छाप, फिसल कर वक़्त को माप और आँखों में पड़े तो कष्ट देती है । एक ऐसा कष्ट जो आज तक सार्थक है । इसी लिए धूमिल की कविता आज तक पाठकों में गूंजती है । जवाब ढूंढती है।  वक़्त बदले है। व्यवस्ता बदली है ।  शायद सवाल अब तक बदले नहीं। क्या संघर्ष गलत है या सेहन करना ? ये सवाल शायद धूमिल ने भी पुछा था और जवाब शायद  उनकी इस रचना में है  -

कोइ पहाड़
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है
और कोई आँख
छोटी नहीं है समुद्र से
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है -  
 जो कभी 
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है 

धूमिल की कुछ रचनाए आप लोगो के साथ इस संकलन में साझा कर रहा हूँ । उम्मीद करता हूँ आप लोगों को पसंद आएंगी। 

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