Sunday, July 27, 2014

मृत

है जलती तो लाश उस खेमें में भी
बनती है राख उस सरहद पे भी

चीरा था जिसे इस युद्ध यहीं
चीखें उसकी आती अब भी
आँसू उसके सूखे भी नहीं
परते पड़ती, बढ़ती ही गयीं

उदास ये मन परेशान है
फिर भी ये जानवर अशांत है
खूंखार है, शर्मशार है
आदत का अपनी शिकार है

अगले पों फट फिर उठेगा
साहस की आड़ में रक्त न्रत्य नाचेगा
मृत मचेगा, मृत बचेगा

एक और टूटी दास्ताँ

थी कायनात,
                  जब जुदा करने को हमे
थे गुमशुदा,
                थामे तेरी बाहों को, इश्क़ हमे


है कायनात,
                कर जुदा तुझे मुझसे
हूँ गुमशुदा,
               बिन इश्क़, बाहों में थामे हमे


क्या मिला कायनात को? क्या मिला मुझे?
मिली तो बस वक़्त को, एक दास्ताँ

एक और टूटी दास्ताँ

Wednesday, July 23, 2014

कश्मकश


कश्मकश से जूझती, पग पग डगर को ढूंढती,
ज़हन में ऐसी खूट थी, मुझको हर पल जो तोड़ती,

खीज खीज चला जो दूर मै, खीच खीच आई वो ढूढ़ती,
हरगिज किया ऊसने खफा,
रूठी यहाँ, रूठी वहाँ,
ये दास्ताँ, वो दास्ताँ


ये दास्ताँ ही और थी, अलग थलग मजबूर थी,
काँटों काँचो की चुभन भरी, गुज़री वो दर्द के हद से थी,

बूंदो बूंदो जो खून बहा, आंसू आंसू बहता वो चला,
जीना तो पड़ा उसके भी बिना,
गर्दिश में यहाँ, गर्दिश में वहाँ,
ये बेजुबान, वो बेजुबान,


ये बेजुबान थम थम गिरा, लप झप उठा और फिर गिरा,
नासूर लिए शिकन के बिना, बदन पे सजा निशाँ वो बढ़ा,

आँखों में फिर भी धुल थी, मंजिल बहुत ही दूर थी,
उसपे भी चला, उस साथ बिना,
जूंझता यहाँ, जूंझता वहाँ,
ये कश्मकश, वो कश्मकश

Monday, July 21, 2014

बदलाव

इन दीवारों पर तारीखे रगड़ गयी
वो रात, ये दिन, कुछ बढ़ चलि

बतलाते, हकलाते, मकसद अधूरे ही थे
पर वो मुकाम की घड़ी यूँ बढ़ चलि


जस्बातों के खिलौने

लोग कहते हैं,
                    खिलौने हैं खेलने को
                    पर जस्बातों से ना खेलो

लेकिन,
            सच तो ये भी है
            बचपना जरूरी है जिन्दगी जीने को  

Sunday, July 20, 2014

तहज़ीब उनकी

वो तहज़ीब थी कुछ अजीब सी
या शायद आदत ना थी अजीज की

नाजुक सी डोर रेशम से बनी
मखमल मखमल लफ्जों से सजी

गुलाबों की कली, गोलियों सी चली
घायल करती पर जख्म नहीं

अदा उनकी, तलभ मेरी बनी
उस शाम कभी जब फिर वो मिली

लबों को छूने को, लफ्ज़ खुद में  झगड़े
हम पे जब बरसे, तब हम भी तरसे

बेखुदी

तहकीकात लगा बैठा मन ये
टूटे टूटे सपनो के शहर मे
ढूँढे तेरे वो निशान

बेखुदी बहिशाब इधर है
चाहूं जितना भी वो कम है
ये जहाँ जी कर भी ना मिला

बेबस का इंक़लाब


चाँद के चेहरे पर जो काले काले निशान है,
सूरज की लाल आग के ये लाल से प्रहार है,
रोया रे चँदा तू खड़े अकेले सबके सामने,
पर छुप गयी आवाज़ वो प्रकाश के अंधकार मे |

सूरज ने फिर बनाई सबपे अपनी ऐसी ढोंस है,
ना सुन सका इंसान, ना सुन सका भगवान है,
सफेद आचरण है, सफेद ये करम है,
कोई जो पूछे सूरज से, तो कहता ये भ्रम है |



क्यों चुप हुआ चँदा रे, क्यों छुप गया चँदा रे,
खट्टे से आँसू उसके सूखे पड़े है फर्श पे,
साँसों मे एक सिसक है, सीने मे एक कसक है,
प्रतिशोध के ज्वाला से जल रहा ये तन है |


कमजोर दिल मे दौड़ती ये रक्त की प्रवाह है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

युद्ध  के शुरू मे एक सन्नाटे की पुकार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

वीर के लहू से भीगी कहती ये कटार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

सफेद साडीयों से पूछे सिंदूर के निशान है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,


तारों ने सुनी बात वो जो कोई भी ना सुन सका,
लगाई ऐसी घात फिर के सूर्य भी ना बच सका,
खून की लालिमा से बिखरा ये सूर्यास्त है,
चँदा के वारों से कहराई आज फिर ये शाम है|

स्वाहा स्वाहा हो के, आज बन गया वो राख है,
कालिख सा यू बिखर के काली कर गया वो रात है,
उसपे जो चमका चँदा आज बन गया प्रमाण है,
बेबस के इंक़लाब से आज बदला है संसार ये|