Wednesday, December 24, 2014

छायावाद का हैंगओवर

फिर वही मय और मयखाना
फिर वही शमा और परवाना

ये छायावाद की मधुशाला का
हैंगओवर अभी तक चल रहा है

जनाब! लैला के आगे जहाँ और भी हैं
मेरे जेहेन में ख़याल और भी है

इन सुखन की तंग दरारों में
छुपे फ़साने और भी हैं


Tuesday, December 23, 2014

ये अहंकार

बहुत जुर्रत कर रहा हूँ
उसे तौलिये से रगड़ हटाने की

ना जाने कैसे जा जमा
काली मेल सा मेरी पीठ पर

ये अहंकार

मल मल के साबुन की थूक से
फेन बना, रहा उसे घुला
पर हर उठते हुबाब में
जो दिखा, बस चेहरा मेरा

मेरे नजरों के दायरों में
वो आता ही नहीं

फकत दूजों के आइनों में
साफ झलकता

अब किस्से पूछू
वो छूटा के नहीं

इस खुदी का वेहम
टुटा के नहीं

बस! जुर्रत कर रहा हूँ
के अब! थोड़ा छिल सा गया हूँ

Monday, December 15, 2014

ये कौन सी सदी है?

यहाँ विचारों की रसाकसी है
शोरों में जुबानें दबी है
नजरियों में एक कजी है

जनाब! ये कौन सी सदी है?

लकीरों की तहरीर

ये खुदा भी एक शायर निकला
जो हांथो की छोटी कागज पे
नसीबों की तहरीर लिखता

और इंसान वाह! वाह! कर
बेहेकता, भटकता चलता
इन लकीरों को समझने को तरसता

Sunday, December 14, 2014

ग़लतफहमी में

वो अंदाजे लगाते रहे मेरी भावनाओं के
वो हमें आजमाते रहे बिन बातों के

बेवजह जायज किया खुदको एक ग़लतफहमी में

चूल्हे वाली - 2

रात जली राख से
              पतीली माज रही थी

उन चिपके, स्याह दागों को
               वो मिटा रही थी

जो बीते लम्हों की जूठन
               वो बहा रही थी

चूल्हे वाली

उपले सुलगे
     पतीली उबली
             हुबाब उठे
                 भूक मिटी

अगली सुबह
     स्याह रात जल
             राख बन
                 चूल्हे पर जमी थी

जो चूल्हे वाली ने
      वो आग भड़कती ही छोड़ दी थी  

पुदीने की चटनी

खेतों से सीपियाँ उठा कर आई
उन्हें घिस वो छिलनी बना कर आई

शब्ज अमियों की चमड़ी उतार कर
मिर्च संग, सिलबट्टे से दबा कर आई

पुदीने की महक से आँगन भर के वो
उसके पसंद की चटनी बना कर आई

कुछ पुराने कदम, आज लौटने को थे
वो अपनी देहलीज़ पुरानी करा कर आई


Friday, December 12, 2014

पियानो (Piano)

तफ्दीश करी एक गूंज ने
सन्नाटे से माहोल में

जब छू दिया मैंने
पियानो की जुबान पे

नाच उठी ये उँगलियाँ
फूल गयी वो शान से

जैसे आवाज मिली गूंगे को
नजाने कितने साल में

एक कानी गुस्से से गुर्रा रही
तो दूसरी देती चुलबुली पुकार

बीच की उँगलियाँ तालमेल बैठाती
अंगूठा रहा भागता हांफ

कोई इसको लांगती
कोई उसको फांद

खिट-खिट खेलते हो बच्चे
जैसे हर शाम

ठहाके उनके धुन ये
चिल्लाना एक साज

कलाइयां मेरी नाच रहीं
सुनके उनका राग

कुछ ऐसे उठी एक तरनुम
नींद तोड़ के बेशुमार

जब पियानो की कमर पे
फिसल गया मेरा हाथ

Tuesday, December 9, 2014

लावारिस

शर्मिंदगी के दामन में लपेट के
वो उसे छोड़ के तो आई थी ये सोच के
कोई उठा लेगा उसे लावारिस समझ के

अगले दिन अख़बार खोल
वो बिखर गयी, सिमट के

कुत्ते उसे खा गए
मांस का टुकड़ा समझ के

न्यूरो साइंटिस्ट (Neuro Scientist)

कुछ ऐसे भी दीवाने होते हैं

जो अपनी सोच की खोज करते हैं
     अपनी मता का मंथन करते हैं

ये वो पंडित हैं

जो माथे की रेखाएं पढ़ते नहीं
     जेहेन की रेखाएं गढ़ते हैं


गांठे

आज बैठे वो
                     गांठे खोल रहा था
 बहुत कशिश कर वो
                     नाख़ून तोड़ रहा था

मुन्तजिर

आग को पानी पी गया
               और पानी को मै

अब मुन्तजिर हूँ आग का
               आ पी ले मुझे


Saturday, December 6, 2014

पूछो उनसे

आशिकी उन्हें पता कहाँ
जिन्होंने नजरें झुका
शम्स से इश्क़
फरमा लिया

पूछो उनसे के
हिज्र क्या है? वस्ल क्या है?
जिन्होंने नजरे मिला
चाँद पे दिल हार दिया है

चेहरा

चाँद, तेरे चहरे पे ये दाग
एक नक़्शे से लगते है

इर्षा होती है तुझसे के
के वहां कोई नहीं है बाटने वाला तुझे

कोई दीवाना होता मुझसा वहाँ
तो भटक पाता बेझिझक बेफिक्र

फिर डर लगता है
के बदल ना जाये ये हुलिया तेरा
 जब ये इंसान पहुचेंगे एक दिन
लेके अपने झंडे

तूने तो देखा ही होगा
कितना हरा घूँघट काटा हमने
कितना गोरा करा
इस सावली जमी को

खैर! तब तक के लिए ही सही
तेरा चेहरा जरा तक लूँ अभी




चाँद सोचता होगा

चाँद को तक तक मैंने
आँखों के सपने दिखाए थे

और सुबह सोचा करता था
के चाँद क्या सोचता होगा मेरे बारे में?

इक रात मेरी नजर चाँद से फिसल
जमी पर गिरी

कुछ ओस की बूंदे
चांदनी आँखों से मुझे देख रही थी

सब की सब हंसी थी
जैसे अपने सपनो का जिक्र कर रही थी

जी चाहा उतर गले लगा लू
पर ये नजारा खोने का डर था

बस सुनते उन्हें ये दुआ कर पाया
के सच हो जाये ये सपने उनके

और अगली सुबह, सोच पड़ा
के चाँद भी कुछ ऐसा ही सोचता होगा
जब देखता होगा मुझपे

Friday, December 5, 2014

अफ्रीका

ये पत्थर कौन सा था ?
जो इस जमी पर मारा था ?
ये अभी तक क्यों टूट रही है ?
शीशे सा क्यों चरक रही है ?
ये दरार कोई नयी सरहद है क्या ?
क्या ये नया मुल्क है ?
इसकी धार पे ये किसका खून है ?
तोड़ने वालों का या जोड़ने वालों का ?
या अभी तक सिर्फ लोग ही मर रहे हैं ?


मेरा कमरा

कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ ?
मेरी गलियां बहुत तंग है
रास्ते भी सीधे नहीं
पता भी छोटा नहीं

किराये का एक कमरा है
दरवाज़ा सीधे सड़क पर खुलता है
धूल बहुत आती है
मग़र धूप नहीं

जगह कम है, बस एक बिस्तर ही अट पाता है
उस पर लेटो तो ये कमरा ताबूत नज़र आता है
बल्ब जल गया तो दिन हुआ
न जला तो दिन नहीं

सड़क पार तिरछे में एक कूड़ेदान है
कूड़ा लटकता रहता है उससे जैसे कोई बच्चा
मुंह खोले खाना चबा रहा हो
बहुत गालियां देता है मकान मालिक मेरा
पर लोग यहाँ सुनते नहीं

जब भी बादल रोते हैं
तो आंसू मेरे कमरे तक आ जाते हैं
दिन भर उनके ग़म में शरीक होना पड़ता है
बस वजह कभी पता नहीं

यहाँ तो पखाना जाना भी
मस्जिद की दौड़ लगता है
ऐसे कामों की भी यहाँ कतार लगती है
आने वाला कोई भी हो यहाँ फ़र्क नहीं

बगल में एक बुढ़िया हमेशा खाँसती रहती है
और जब खाँसती नहीं तब सोती है
घरवाले कहते हैं कि दमा है, मुझे तो लगता है टीबी
 हैरां हूँ इन हालातों में वो अब तक मरी नहीं

शाम को कुछ बच्चे खेलने आते हैं
इसी सड़क को पिच बना क्रिकेट खेलते हैं
वो ही यहाँ सबसे खुश नज़र आते हैं
शायद ज़िन्दगी उन्होंने देखी नहीं

खिड़की को देखता हूँ तो
कटे छटे आसमां का पोट्रेट लगती है
सोचता हूँ की एक माला चढ़ा दूँ
के यहाँ इससे ज़्यादा आसमां फिर दिखेगा नहीं

सच कहूँ, ये कमरा पिंजरा लगता है और ये शहर चिड़ियाघर
दूर दूर से इंसान पकड़ कर लाए जाते हैं यहाँ
अपनी अपनी कलाबाजियाँ दिखने को
पता नहीं कभी वापस जा पाएंगे या नहीं

अब तुम ही बताओ
कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ ?

नफरत

ये नफरत हों किसी भी तरफ
         जलाती पहले पैदा करने वाले को है

गाल

हाथ तुम बनोगे, गाल मै बनुगा
वार तुम बनोगे, आवाज मै बनुगा
जिद तुम रहोगे, विचार मै रहूँगा

तुम कितना भी चाहो, कमजोर मै ना हूँगा



साजिश

सुनी बहुत होगी आदमख़ोर शेरों की कहानी
वो साहस के किस्से, उन शिकारियों की जुबानी

चलो आज पहलु पलट के सुने उन शेरों से कहानी
किसने बनाया उन्हें आदमखोर, या थी ये एक साजिश

Tuesday, December 2, 2014

जब तब

जब की जब होगी
           तब की तब देंखेंगे

अब की अब हो रही
           लब के लब पी लेंगे

मेरी ज़न्नत

छोड़ के उसे
     जो मिला ही छूटने को था

मै चला तो
     लौटने अपने ही घर को था

गुनगुनाते एक तर्रनुम
     दोहराते उसकी यादें
जो था, वो सच्च है
     इस यकीं को मन में बांधे

दफ़तन, हवा के बल
    एक पुरानी वक़ाफात ने
          गिरेबां पकड़
                अपने जानिब खींच लिया

ढूंढते उसे चला
     डर डर कदम रखता
           जेहन को कुरेदता
                 कही फिर तुम ना निकलो

राहत,
    के ये कोई और था
          एक दरख़्त, फूलों से लदा
                 कुछ यूँ लटकता

के मै उन लम्हों को तरस उठता
जब ऐसी ही किसी छाओं में
बीत जाते थे दिन मेरे

एहसास थे उनके रेशम से 
पर रखते यूँ मेहफ़ूज़ मुझे
जैसे हों मेरा आशियाँ
                मेरी इबादत

तेरी जुल्फें
          मेरी ज़न्नत
    

Its a translation of a poem done on a request by a friend.
ये एक नज्म का तजुर्मा है, जो की एक दोस्त की फरमाइश पे किया गया है

Monday, December 1, 2014

खिड़कियाँ

वक़्त ने ये खिड़कियाँ जाम कर रखी थी
कल रात आये तूफां ने इन्हे भी तोड़ दिया
तुझे याद करने को, मुझे मजबूर कर दिया

अंटार्टिका

ऐसा लगता है
        इंसानो से तंग
                 आ कर खुदा ने
                           ये जहां बसाया था

सब तरफ सफ़ेद बर्फ
         और कुछ चुनिंदा
                 साथियों को बुलाया था

एकांत ऐसा बसाया था
          के नींदे खुल जाये

ये हवाएं करे सरगोशियाँ
          और होठ जमे रह जाएँ

जमी यहाँ धड़कती थी
          सीलों की पुकारों से

आसमान चहकता था
          पेंगुइन की किलकारियों से

यहाँ दिन रात नहीं थी
         सरहदे नहीं थी
खुली जमीं थी
चलती जमीं थी
तैरती जमी थी

हाँ सच में
          इंसान से तंग आ के
                    खुदा ने ये जहाँ
                               बनाया था

पर इंसान तो इंसान है
           अपनी चाहतों का गुलाम है
देखो आदतों से उसकी

तप रही ये जमी
टूट रही ये जमी
गल रही ये जमी

जो तबाह हो रही
            खुदा की अपनी सरजमीं