Wednesday, October 29, 2014

घर का कारागार

इल्जाम लगा दो मुझपे
         ठहरा के मुजरिम
                  जो तोड़े है खिलोने
                             जस्बातों के
                               
पहना के हथकड़ी रिश्तों की
       जुर्म कटवाओ किस्तों में
                 जो घर का कारागार
                             चलाना है   

जान

आज गर्दन खीच के किसी ने
           जान निकाल दी मेरी गली में

के जिंदगी सस्ती पड़ गयी थी
           जिन्दा रहने के दाम से
              

लोग समझ लिए मैंने

लोग समझ लिए मैंने,
             फिर भी खुश ना रहा मै

को खुद को ये ना समझा पाया
            के लोग समझ लिए मैंने

मय

निगलने को वो तेजाब ढूंढता हूँ,
जो दिल पे जमी यादें धुल ले जाएँ

पर मिली निगलने को बस ये मय
जो इन यादों में ही कहीं घुल जाएँ

तजुर्बे

बड़े होने का दावा ठोक, जो अपने तजुर्बों पे इतराते हैं

अपने हलक लटकाये फिरते है वो फंदा

जिसपे लटक उनके बचपन ने खुदखुशी की थी


फटा बादल

एक बादल फटा वादी मे कहीं
कुछ जाने बह गयी उसमे

सुन ये मै सोच पड़ा
कैसा लगता होगा ?
जब बादल फटता होगा ?

दरवाजा खटखटा एक आवाज बोली
मेरा एक अजीज भी बह गया उसमे

सुन ये महसूस हुआ
कैसा लगता होगा
जब बदल फटता होगा

किसी की जरूरत

यूँ  तो हर किसी को हर किसी की जरूरत है
फिर किसी को किसी की जरूरत भी नहीं

बड़ी पेचीदा लोग है, इस पेचीदा जहाँ मे
जो यहाँ बेबसों को बस बेबसी की रेहमत है

Saturday, October 25, 2014

कागज - कलम

अपने होठों से चूम चूम
          न जाने कितनी कहानी
                         कितनी नज्में

लिखी इस कलम ने
         कागज के सीने पे

पर,
ना जाने कौन सी कहानी
         लिख रहे थे आज

के नीली गहरी खरोंचे भी हैं
स्याही से आंसू के छींटे भी हैं

ये कागज मर गया है
         चोट खा खा के

ये कलम भी सूख गयी है
         रो रो के

लगता है दोनों अपनी
         कहानी लिख रहे थे

एक कवि था

एक कवि था
                 रातों में टेहला करता था

जँगल कि राह में
                 पेड़ों के सुकून के बीच

हर सुबह, उसके हाथों
                लगी मिट्टी से, लगता था

रात भर नज्में खोद कर
                आया है किसी वीराने में

आज सुना वो गुजर गया
                मौत का मोड़ ले कर

जंगल से जुगनू भी आये बताने
               के सावन उसकी नज्में ले गया धुल कर

जो अब बची है बस
            उसकी यादें, मेरे जेहेन में
            उसकी नज्में, उनके जेहेन में

आतिशें

कोई बहुत कोशिश कर रहा है
                             मेरा आसमान जलने की

आतिशें छोड़ रहा है जमी से
                             आवाजे भी कर रहा है

चिंगारियां बिखेर के वह
                            काले धुएं भी छोड़ रहा है

कोई बहुत कोशिश कर रहा है
                           मेरा आसमान जलाने की

पर शायद उसे पता नहीं है
                         
हवाओं को काला कर के
                          वो अपनी ही सांसे घटा रहा है

हाईवे

कल रात एक जल्दबाजी
उसका रसता काट गयी

अन्जाम, वो साँप,
बन मांस का लोथड़ा पड़ा रहा

कौवों ने उसको पार लगाना भी चाहा हाईवे से
पर ये जल्द्ब्जियां ही कुछ इतनी बढ़ी थी
सर चीप गई थी उसका टायर का छाप छोड़ कर
लगे रूह छप गई हो उसकी तारकोल की चादर पे

पता नहीं के वो भटका था
या उसके रस्ते आ पड़ा रास्ता था

फिर भी उसकी शहादत को देख बस इतना लगा

के इस काले टैटू की कीमत
कुदरत को उसके खून से अदा करनी पड़ रही है

Monday, October 20, 2014

शमशान

जब मै अपने सर की काली जवानी
    उतार के नदी में बहाने जा रहा था

जी तो बहुत चाहा की उसकी
    कुछ जिंदगी खरीद लू बदले में

फिर बगल में जलती शमशान
   की भट्टी को देख याद आया

की आज शाम तक ये नदी
  उसे भी राख बना ले जाएगी

फिर एक जाती लहर के साथ, वो नदी,
  मेरा पैर खीच, रौब दिखती मालकिन सा बोली

" यहाँ सौदा नहीं वक़्त चल रहा है
   ये चूल्हा शमशान का
       यूँ ही मेरा पेट भरता रहेगा
लोइयों सा नाजुक तू कब तक जियेगा
   आज वो सिका है कल तू सिकेगा
       चल जा यहाँ से, वक़्त बहुत हो रहा है"

सुन मै, बोल वो, कछ शांत हुए
    मुड़, पलटे कदम, उसे बोल आया

" आऊंगा किसी रोज, बनने रोटी तेरे खुराक का
     कुछ लहरों बाद मिलने, साथ देने`इस यार का
 
फ़िलहाल तब तक को, कर विदा, अलविदा"


Friday, October 17, 2014

इस गजल को आवाज ना मिली है

इस गजल को आवाज ना मिली है

तनहा यूँ महरूम ये रही है
ज़माने ने तवज्जुह ना दी है
जब भरी महफ़िल में तुमने कहा
के मुझमे वो बात नहीं है

इस गजल को आवाज ना मिली है

न जाने कब से मुन्तजिर पड़ी है
इस हिज्र के ज़िक्र को बयां कर रही है
हौसला खो बैठी है, तुम्हारे तंज से
के तुम्हारे बातो की बोली ये ज्यादा लगा बैठी है

इस गजल को आवाज ना मिली है

सुरों की पैहरान भी जो ना नसीब हुई इसे
ये रूठी है, थोड़ा टूटी है
जो तुम्हे इसे लबों से लगाना गवारा ना था
ये आँखे सुजा रात भर रोई है

 इस गजल को आवाज ना मिली है

चाँद - तारा

क्या सुनी है वो कहानी
अरे अपने चाँद की कहानी
लैला, मजनू, हीर, इन सब से भी पुरानी
हाँ हाँ तारों को कहानी

वो जमाना, जब धरती ने था पाला
एक चाँद और एक तारा
हाँ वो जमाना, जब था
बस एक ही तारा
धरती के इर्द गिर्द घूम के
दोनों ने अपना बचपन था काटा

एक शाम चाँद जवान हुआ
तारा के हुस्न पे फ़िदा हुआ
जब इश्क़-ए -इजहार हुआ
तो ये गुल गुलज़ार हुआ

फ़िलहाल ब्रम्हांड खुशहाल था
इस नए जोड़े पे निहाल था
पर फिर भी एक तबका बूढ़ी उल्काओं का
ना जाने क्यों परेशान था

रीत के रिवाज निकले
बिन बात के कुछ जात निकले
सुना फरमान अपनी मर्जी का
दोनों पे पैहरे लगा डाले

पर फिर भी एक शाम तारा आई
छुप कर चाँद से मिलने को
उस हाल बेहाल इश्क़ के रस से
सारी रात भिगोने को

नजर लगी, कोई निगाह पड़ी
किसी कोने से, गोली चली
एक उल्का यूँ तारा से भिड़ी
कतरा कतरा वो बिखर गयी

चाँद आज तक आता है
उसे याद करने को
इन तारों को बंटोरने को
उन्हें प्यार करने को

शायद इसी लिए कहते हैं

जब कोई छूट जाता है हमारा
उसे चाहता है कोई हमसे भी ज्यादा
बन जाता है वो एक तारा
उस चाँद का तारा, उस चाँद का प्यारा


Monday, October 13, 2014

अतीत के अतिथि

अँधेरी रातों से उजले सवेरे
काली मंदों से उठते वो चेहरे
तकते है उस रौशनी को
आने वाले कल की उम्मीद को

जहन मे भीगी तर तर वो यादें
लत से जकड़े, सिकुड़े, बेचारे

जालों में फसते
       हर मोड़ पे डरते
 सहमे हुए
       अब तो बन ही गए

अतीत के अतिथि
इस रीत में रत्ती
ना बाती, ना बत्ती
है पड़े जो ये रद्दी



थे बनना चाहे, कमल जब भी वो
कीचड़ में पड़ के कीचड़ बने वो
पहुंच भी ना पाये थे तारे फलक को
गर्दिश में गिर के, गढ़ते रहे वो

उल्फत की साँसों में कल की महक थी
टूटी कसम की, कसक थी, सिसक थी

फ़िक्र करते
        हर कसर को भरते
सहमे हुए
        अब तो बन ही गए

अतीत के अतिथि
इस रीत में रत्ती
ना बाती, ना बत्ती
है पड़े जो ये रद्दी

ये कवितायेँ उनके लिए

ये कवितायेँ उनके लिए -


कुछ लोग जो खास हैं

           और

कुछ लोग जो एहसास हैं

रेपिस्ट (बलात्कारी)

उसने माथे मे मकड़ियों ने
              हमेशा फंदे थे पाले
इंसान में इंसान नहीं
              सामान थे नापे

जिन जिंदगियों को लूट के
              बहाया था नदी में

ये बेशरम, आज उसी नदी में
            अपने पाप धोने आया है

गिलहरी

मेरे आँगन आई थी एक गिलहरी आज
            दुपक फुदक के लांग कूद के
                        ढूंढ रही थी कुछ खास

कोने में पड़े एक कूड़ेदान में
           झुक के, चख के, कुछ लिया उठा
                        लौट पड़ी वो, थी जब लांगने को दिवार

मैंने उसे टोक दिया
          सच्चे मन से आग्रह किया

"और ले लो जो भी ले जा रही हो
          छुप छुप कर मत आया करो
                        क्यों इतना घबरा रही हो?"

वो पलट के बोली " माफ़ करना
          ले लेती तेरा सामान, बेहिचक, बेपरवाह
                         पर है जमाना बहुत ख़राब

शरीफों के लीबाज बिकते है अब, मुफ्त काले बाजार
भरोसा बेच आई हूँ, चंद लम्हा जिंदगी बढ़ने को

गुलाबी सुबह

उस सुनहरी रात के बाद
             पलकों पे सपने नाच रहे थे

के अचानक एक सरगोशी ने
             उनकी सरगम तोड़ दी 



जो उतरा मै आँगन मे
               समझने उस माजरे को
                              मै उतना ही हैरान हुआ

एक खूबसूरत बादल
               इजहारे-इश्क़`कर रहा था
                             उस शम्स से

मुझे देख शर्मा गया
              कर गुलाबी सुबह, वो
                             और भी घबरा गया

आँख माल के मैने
              परखना जो चाहा
                             सपना है, की सच है

वो हौले से
             हवा पकड़े
                            छुप कहीं चला गया

तिरंगे

तिरंगे, तेरे मान को
           अपने कंधे, हर जीत पे लदे
                       मै कब तक चल पाउँगा

सोने, चांदी, ताम्बे
           के पदक, के कवच, तो रहेंगे
                       पर ये सीने झुक जायेंगे

तेरी शब्जियत पे
          तेरे बागवे सिंदूर पे
                       तेरे स्वेत स्वछता पे

नाज  तो बहुत है मुझे
        पर तेरे चक्र को लादता अभिमन्यु
                      इस चक्रव्यूह में कब तक जी पायेगा



मुझे पांडव होने पे गर्व नहीं
        ना कौरवों से भेद
                    पर क्या ये अनेक कभी एक हो पाएंगे



मेरी आँखों में ये भारत
        महाभारत ह, एक युद्ध नहीं
                   पर क्या भविष्य ये सपने देख पायेगा

मैंने थामा है तुझे जिंदगी भर
        मेरे बाद भी तुझे कोई थामेगा
पर तूने मुझे अब ना थामा
       तो मै शायद और ना जी पाउँगा
       
   

ना जाने कब

कल रात कड़की बिजली से
               कुछ अस्मा जल गया मेरा

आज बारिश बह रही थी उससे
              वो जख्म ही था कुछ ऐसा

ना जाने काब भरेगा
             ना जाने कब बारिश रुकेगी
                       ना जाने कब ....

सीलन

हर  रिश्ते का कमरा बनाता हूँ
                     जहाँ हसी के रंग हों

और आँसू की जगह भी ना हो

पर हर सावन वो सीलन बन आते है !

कितना बेकार कारीगर हूँ मैं !


तंज

आलस ओढ़े सो रहा हूँ
                     अब जगाना ना मुझे

ज़माने से रूठा रो रहा हूँ
                     अब मनना ना मुझे


गम  नहीं उस शिकस्त का
                     जो दी एक अनजान ने मुझे


अफ़सोस तो उन तंज का है
                    जो करी मेरे अपनों ने मुझपे
      

सपनो की दुनिया

के सो जाओ सभी
         ये सपनो की दुनिया
                     है सपनो में कहीं

सोना तो है सबको एक दिन
         के पाप बचाये बैठे है! पुण्य कमा के
                    पाप चखेंगे सपनो की दुनिया जा के

चलो आज ही थोड़ा सो लो
         ख़्वाबों में खुद को धो लो
                     थोड़ी खुशियां चोरी कर लो

के आँखें जब खुलेंगी
         तो सुलगा लेंगे कोयले टूटे सपनों के
                     सेक के रोटियां उम्मीद की
                                काट लेंगे ये जिंदगी

मजबूर मजदूर

मुझे संभावनाओं से खेलना नहीं आता,
                 अपनी उँगलियों को गिनना नहीं आता

हाँ मगर अंगूठे की चाप पर पहचान बनी है मेरी
                 पर मुझे उस छाप को पहचानना नहीं आता

मजबूर मजदूर जो भी कह लो
                मुझे दोनों का  फरक नहीं आता

पर  इतनी  समझ है मुझे
                 बोलूंगा अगर बुरा ना मनो

की ए कलम वालो
                तुम्हारी दुनिया में चरचा तो बहुत होती है
 मेरे उलझे हालातों पे
               पर तुममे से किसी को
                           इन्हे सुलझाना नहीं आता