Wednesday, December 24, 2014

छायावाद का हैंगओवर

फिर वही मय और मयखाना
फिर वही शमा और परवाना

ये छायावाद की मधुशाला का
हैंगओवर अभी तक चल रहा है

जनाब! लैला के आगे जहाँ और भी हैं
मेरे जेहेन में ख़याल और भी है

इन सुखन की तंग दरारों में
छुपे फ़साने और भी हैं


Tuesday, December 23, 2014

ये अहंकार

बहुत जुर्रत कर रहा हूँ
उसे तौलिये से रगड़ हटाने की

ना जाने कैसे जा जमा
काली मेल सा मेरी पीठ पर

ये अहंकार

मल मल के साबुन की थूक से
फेन बना, रहा उसे घुला
पर हर उठते हुबाब में
जो दिखा, बस चेहरा मेरा

मेरे नजरों के दायरों में
वो आता ही नहीं

फकत दूजों के आइनों में
साफ झलकता

अब किस्से पूछू
वो छूटा के नहीं

इस खुदी का वेहम
टुटा के नहीं

बस! जुर्रत कर रहा हूँ
के अब! थोड़ा छिल सा गया हूँ

Monday, December 15, 2014

ये कौन सी सदी है?

यहाँ विचारों की रसाकसी है
शोरों में जुबानें दबी है
नजरियों में एक कजी है

जनाब! ये कौन सी सदी है?

लकीरों की तहरीर

ये खुदा भी एक शायर निकला
जो हांथो की छोटी कागज पे
नसीबों की तहरीर लिखता

और इंसान वाह! वाह! कर
बेहेकता, भटकता चलता
इन लकीरों को समझने को तरसता

Sunday, December 14, 2014

ग़लतफहमी में

वो अंदाजे लगाते रहे मेरी भावनाओं के
वो हमें आजमाते रहे बिन बातों के

बेवजह जायज किया खुदको एक ग़लतफहमी में

चूल्हे वाली - 2

रात जली राख से
              पतीली माज रही थी

उन चिपके, स्याह दागों को
               वो मिटा रही थी

जो बीते लम्हों की जूठन
               वो बहा रही थी

चूल्हे वाली

उपले सुलगे
     पतीली उबली
             हुबाब उठे
                 भूक मिटी

अगली सुबह
     स्याह रात जल
             राख बन
                 चूल्हे पर जमी थी

जो चूल्हे वाली ने
      वो आग भड़कती ही छोड़ दी थी  

पुदीने की चटनी

खेतों से सीपियाँ उठा कर आई
उन्हें घिस वो छिलनी बना कर आई

शब्ज अमियों की चमड़ी उतार कर
मिर्च संग, सिलबट्टे से दबा कर आई

पुदीने की महक से आँगन भर के वो
उसके पसंद की चटनी बना कर आई

कुछ पुराने कदम, आज लौटने को थे
वो अपनी देहलीज़ पुरानी करा कर आई


Friday, December 12, 2014

पियानो (Piano)

तफ्दीश करी एक गूंज ने
सन्नाटे से माहोल में

जब छू दिया मैंने
पियानो की जुबान पे

नाच उठी ये उँगलियाँ
फूल गयी वो शान से

जैसे आवाज मिली गूंगे को
नजाने कितने साल में

एक कानी गुस्से से गुर्रा रही
तो दूसरी देती चुलबुली पुकार

बीच की उँगलियाँ तालमेल बैठाती
अंगूठा रहा भागता हांफ

कोई इसको लांगती
कोई उसको फांद

खिट-खिट खेलते हो बच्चे
जैसे हर शाम

ठहाके उनके धुन ये
चिल्लाना एक साज

कलाइयां मेरी नाच रहीं
सुनके उनका राग

कुछ ऐसे उठी एक तरनुम
नींद तोड़ के बेशुमार

जब पियानो की कमर पे
फिसल गया मेरा हाथ

Tuesday, December 9, 2014

लावारिस

शर्मिंदगी के दामन में लपेट के
वो उसे छोड़ के तो आई थी ये सोच के
कोई उठा लेगा उसे लावारिस समझ के

अगले दिन अख़बार खोल
वो बिखर गयी, सिमट के

कुत्ते उसे खा गए
मांस का टुकड़ा समझ के

न्यूरो साइंटिस्ट (Neuro Scientist)

कुछ ऐसे भी दीवाने होते हैं

जो अपनी सोच की खोज करते हैं
     अपनी मता का मंथन करते हैं

ये वो पंडित हैं

जो माथे की रेखाएं पढ़ते नहीं
     जेहेन की रेखाएं गढ़ते हैं


गांठे

आज बैठे वो
                     गांठे खोल रहा था
 बहुत कशिश कर वो
                     नाख़ून तोड़ रहा था

मुन्तजिर

आग को पानी पी गया
               और पानी को मै

अब मुन्तजिर हूँ आग का
               आ पी ले मुझे


Saturday, December 6, 2014

पूछो उनसे

आशिकी उन्हें पता कहाँ
जिन्होंने नजरें झुका
शम्स से इश्क़
फरमा लिया

पूछो उनसे के
हिज्र क्या है? वस्ल क्या है?
जिन्होंने नजरे मिला
चाँद पे दिल हार दिया है

चेहरा

चाँद, तेरे चहरे पे ये दाग
एक नक़्शे से लगते है

इर्षा होती है तुझसे के
के वहां कोई नहीं है बाटने वाला तुझे

कोई दीवाना होता मुझसा वहाँ
तो भटक पाता बेझिझक बेफिक्र

फिर डर लगता है
के बदल ना जाये ये हुलिया तेरा
 जब ये इंसान पहुचेंगे एक दिन
लेके अपने झंडे

तूने तो देखा ही होगा
कितना हरा घूँघट काटा हमने
कितना गोरा करा
इस सावली जमी को

खैर! तब तक के लिए ही सही
तेरा चेहरा जरा तक लूँ अभी




चाँद सोचता होगा

चाँद को तक तक मैंने
आँखों के सपने दिखाए थे

और सुबह सोचा करता था
के चाँद क्या सोचता होगा मेरे बारे में?

इक रात मेरी नजर चाँद से फिसल
जमी पर गिरी

कुछ ओस की बूंदे
चांदनी आँखों से मुझे देख रही थी

सब की सब हंसी थी
जैसे अपने सपनो का जिक्र कर रही थी

जी चाहा उतर गले लगा लू
पर ये नजारा खोने का डर था

बस सुनते उन्हें ये दुआ कर पाया
के सच हो जाये ये सपने उनके

और अगली सुबह, सोच पड़ा
के चाँद भी कुछ ऐसा ही सोचता होगा
जब देखता होगा मुझपे

Friday, December 5, 2014

अफ्रीका

ये पत्थर कौन सा था ?
जो इस जमी पर मारा था ?
ये अभी तक क्यों टूट रही है ?
शीशे सा क्यों चरक रही है ?
ये दरार कोई नयी सरहद है क्या ?
क्या ये नया मुल्क है ?
इसकी धार पे ये किसका खून है ?
तोड़ने वालों का या जोड़ने वालों का ?
या अभी तक सिर्फ लोग ही मर रहे हैं ?


मेरा कमरा

कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ ?
मेरी गलियां बहुत तंग है
रास्ते भी सीधे नहीं
पता भी छोटा नहीं

किराये का एक कमरा है
दरवाज़ा सीधे सड़क पर खुलता है
धूल बहुत आती है
मग़र धूप नहीं

जगह कम है, बस एक बिस्तर ही अट पाता है
उस पर लेटो तो ये कमरा ताबूत नज़र आता है
बल्ब जल गया तो दिन हुआ
न जला तो दिन नहीं

सड़क पार तिरछे में एक कूड़ेदान है
कूड़ा लटकता रहता है उससे जैसे कोई बच्चा
मुंह खोले खाना चबा रहा हो
बहुत गालियां देता है मकान मालिक मेरा
पर लोग यहाँ सुनते नहीं

जब भी बादल रोते हैं
तो आंसू मेरे कमरे तक आ जाते हैं
दिन भर उनके ग़म में शरीक होना पड़ता है
बस वजह कभी पता नहीं

यहाँ तो पखाना जाना भी
मस्जिद की दौड़ लगता है
ऐसे कामों की भी यहाँ कतार लगती है
आने वाला कोई भी हो यहाँ फ़र्क नहीं

बगल में एक बुढ़िया हमेशा खाँसती रहती है
और जब खाँसती नहीं तब सोती है
घरवाले कहते हैं कि दमा है, मुझे तो लगता है टीबी
 हैरां हूँ इन हालातों में वो अब तक मरी नहीं

शाम को कुछ बच्चे खेलने आते हैं
इसी सड़क को पिच बना क्रिकेट खेलते हैं
वो ही यहाँ सबसे खुश नज़र आते हैं
शायद ज़िन्दगी उन्होंने देखी नहीं

खिड़की को देखता हूँ तो
कटे छटे आसमां का पोट्रेट लगती है
सोचता हूँ की एक माला चढ़ा दूँ
के यहाँ इससे ज़्यादा आसमां फिर दिखेगा नहीं

सच कहूँ, ये कमरा पिंजरा लगता है और ये शहर चिड़ियाघर
दूर दूर से इंसान पकड़ कर लाए जाते हैं यहाँ
अपनी अपनी कलाबाजियाँ दिखने को
पता नहीं कभी वापस जा पाएंगे या नहीं

अब तुम ही बताओ
कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ ?

नफरत

ये नफरत हों किसी भी तरफ
         जलाती पहले पैदा करने वाले को है

गाल

हाथ तुम बनोगे, गाल मै बनुगा
वार तुम बनोगे, आवाज मै बनुगा
जिद तुम रहोगे, विचार मै रहूँगा

तुम कितना भी चाहो, कमजोर मै ना हूँगा



साजिश

सुनी बहुत होगी आदमख़ोर शेरों की कहानी
वो साहस के किस्से, उन शिकारियों की जुबानी

चलो आज पहलु पलट के सुने उन शेरों से कहानी
किसने बनाया उन्हें आदमखोर, या थी ये एक साजिश

Tuesday, December 2, 2014

जब तब

जब की जब होगी
           तब की तब देंखेंगे

अब की अब हो रही
           लब के लब पी लेंगे

मेरी ज़न्नत

छोड़ के उसे
     जो मिला ही छूटने को था

मै चला तो
     लौटने अपने ही घर को था

गुनगुनाते एक तर्रनुम
     दोहराते उसकी यादें
जो था, वो सच्च है
     इस यकीं को मन में बांधे

दफ़तन, हवा के बल
    एक पुरानी वक़ाफात ने
          गिरेबां पकड़
                अपने जानिब खींच लिया

ढूंढते उसे चला
     डर डर कदम रखता
           जेहन को कुरेदता
                 कही फिर तुम ना निकलो

राहत,
    के ये कोई और था
          एक दरख़्त, फूलों से लदा
                 कुछ यूँ लटकता

के मै उन लम्हों को तरस उठता
जब ऐसी ही किसी छाओं में
बीत जाते थे दिन मेरे

एहसास थे उनके रेशम से 
पर रखते यूँ मेहफ़ूज़ मुझे
जैसे हों मेरा आशियाँ
                मेरी इबादत

तेरी जुल्फें
          मेरी ज़न्नत
    

Its a translation of a poem done on a request by a friend.
ये एक नज्म का तजुर्मा है, जो की एक दोस्त की फरमाइश पे किया गया है

Monday, December 1, 2014

खिड़कियाँ

वक़्त ने ये खिड़कियाँ जाम कर रखी थी
कल रात आये तूफां ने इन्हे भी तोड़ दिया
तुझे याद करने को, मुझे मजबूर कर दिया

अंटार्टिका

ऐसा लगता है
        इंसानो से तंग
                 आ कर खुदा ने
                           ये जहां बसाया था

सब तरफ सफ़ेद बर्फ
         और कुछ चुनिंदा
                 साथियों को बुलाया था

एकांत ऐसा बसाया था
          के नींदे खुल जाये

ये हवाएं करे सरगोशियाँ
          और होठ जमे रह जाएँ

जमी यहाँ धड़कती थी
          सीलों की पुकारों से

आसमान चहकता था
          पेंगुइन की किलकारियों से

यहाँ दिन रात नहीं थी
         सरहदे नहीं थी
खुली जमीं थी
चलती जमीं थी
तैरती जमी थी

हाँ सच में
          इंसान से तंग आ के
                    खुदा ने ये जहाँ
                               बनाया था

पर इंसान तो इंसान है
           अपनी चाहतों का गुलाम है
देखो आदतों से उसकी

तप रही ये जमी
टूट रही ये जमी
गल रही ये जमी

जो तबाह हो रही
            खुदा की अपनी सरजमीं

Sunday, November 30, 2014

दर्द

मै हरगिज चाहता नहीं के तू बन मेरा हमदर्द

फकत ख्वाहिश है बस के तू सुन ले मेरा दर्द

ट्रैन की सीटी

उस जाती ट्रैन की सीटी के साथ
       एक और मौक़ा छूट गया

मेरा घर से भागने का ख्याल
       फिर अधूरा रह गया

Saturday, November 29, 2014

मुंसफी अखाड़ा

ये तराजू कानून का
ये सूई इन्साफ की
क्यों इतनी टेढ़ी रही है ?

ये कटोरा पीड़ितों का
क्यों हमेशा भारी रहा है ?

और कटोरा कसूरवारों का
क्यों इतना खाली रहा है ?

कोई मिलावट कर रहा है
            या धांधली कही
कुछ तो गड़बड़ है
            कहाँ, पता नहीं

जंग लग गयी है
            पुर्जों में अब
हिलने में लगेंगे
            बरसों कई

इधर फाइल कुतर गया
            चूहा कोई
उधर रूह छूट गई
            फैसला नहीं

मुंतजिर आँखे है
            धूल झोकने को
संविधान इतना बड़ा
            ज्ञाता कोई नहीं

हाँ कुछ दावा करते है
            वकालत है पढ़ी
सफ़ेद कॉलर है उनके
            पर पोषक काली बनी

वैसे देखो तो ये कोर्ट
            मंदिर है
जो फरियाद यहाँ पूरी
            होती नहीं

पर आफत में यहाँ
            आते सब है
अंधे खुदा  के फैसले को
            मजलूम सभी

वैसे ये जम्हूरियत का
            मुंसफी अखाड़ा है
मुर्गेबाजी दो पैहलू कि
            एक क़ाज़ी फसा बेचारा है

ये न्याय का मेला लगता
            है कई रोज
पर बिकती यहाँ बस है
            आजादी



Friday, November 28, 2014

जूतियाँ

आज मंदिर में
        मै रो रहा था
                 दुआ कर रहा था
"उसकी रूह को तस्कीं करना "

जब बाहर आया
        तो पैरों की जूतियाँ
                 चुरा ले गया था कोई

कल रात जैसे
        एक हादसे ने
                 चुरा लिया था
एक अजीज का साया मेरे सर से

अफ़सोस!
के अब ये सफर
         भरी धुप में
                 जल जल के करना पड़ेगा
         

Thursday, November 27, 2014

खुदी

मेरी खुदी ने मुझे खुदा का दर्जा दिया है

जो आज फिर उसने मुझे तबाह किया है

ये शाम कभी ना जाये कहीं

ये शाम कभी ना जाये कहीं

सुरों में डूबी, शहद जैसी

अल्फाज मेरे, आवाज तेरी

बहती रहें, कहानी कोई

जुबानी तेरी, लिखाई मेरी

ख़याल मेरे, पहचान तेरी



मिसरेह जो, बन आते हैं

इस तर्रन्नुम में घुल जाते है

चुस्कियाँ, लेके वो

तस्कियाँ, हम पाते हैं

एहतियात भरी, तह कर रखी

एहसास मेरे, सरगम तेरी



किस्मत हुई, ये निस्बत बनी

सूरज ढला, ये शाम उठी

और वक़्त बीता, फिर चाहत हुई

ये शाम कभी ना जाये कहीं

क्या घूरता है?

ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है

रात तो हाथ टटोलने को
     मेरे जिस्म का खाका याद करता है

जेहन की नंगी तस्वीरों में
    मेरे हुस्न को लपेटता है



ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है

मै ये कहती नहीं
     चाहतें छोड़ दे
            ख्वाहिशें तोड़ दे

पर इतना समझ
      मुझमे भी कहीं
            चाहतें, ख्वाहिशें होती हैं



ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है

एक हद मुझमे है
     एक  काबू तुझमे है

वेहशी ना बन तू
     ये ताकत तुझमे है

इंसान मै भी हूँ
     इंसान तू भी है

वो इज्जत दे मुझे
     जो इज्जत है तेरी

ये क्या घूरता है
     मुझे ये क्या घूरता है
     

गलत

एक सठियाई दिनचर्या
                के तजुर्बों में फसा मै

कुछ यूँ लगा
               के मेरे एहसास तो बहुत हैं
                                       पर पेशा गलत

आज उस बेबस आवाज
               की दास्ताँ सुन मै

वैसा ही लगा
               उसकी रूह की ख्वाहिशें तो बहुत हैं
                                        पर जिस्म गलत

हिज्रत

नालों के पतले पाट पे,
या सड़क के कोने काट के

पाकिस्तान - हिंदुस्तान के तलाक़ से
पैदा अनाथ मुल्क़ के आशियाने बस्ते हैं


घर

ये दीवारें मिट्टी की, कमजोर है
वक़्त कभी भी तोड़ सकता है इन्हे

डर लगता है हमे घर बसाने से
पर तेरा ये महफूज रखने का भरोसा हमपे

एहसास देता है, के हम सम्हाल लेंगे सब
के इन दीवारों के मकान को घर बना लेंगे हम

करवा चौथ

आज रात चाहतों की थाली थामी है
तेरी नजर उतार चाँद पर चढ़ा दी है

आज रब से चाँद जैसी उम्र
तुम्हारे लिए माँग ली है


Monday, November 24, 2014

विश्वशक्तिमान

मुझे बस इतनी शक्ति देना
       के आबादी मिटा सकूँ
सूक्ष्म-अंड की ताकत से
       वीराने बिछा सकूँ

बुद्धिमता तो मुझमे
        कब से है
बस वो औजार दो
        के ज़माने डरा सकूँ

खौफ का बाजार है तेरा
         मै एक दुकानदार बन सकूँ
तेरे अखंड अमन के नारे को
         प्रारम्भ में कर सकूँ


भूत की खोज

एक सुखा रेगिस्तान था
          कुछ दीवाने उसमे बसते थे
रातों में तारे तकते थे
          हसते थे, गाते थे
नक्षत्र की कहानियाँ सुनाते थे
          खुद को अस्ट्रोनॉमर* कहते थे
पर मुझे तो बस
          ख्वाबदा मस्ताने लगते थे

लंबे चश्मे पहन के
          आकाश को चीरा करते थे
के नाजाने कब कोई तारा
          नई कहानी सुना दें
 कहते थे के धरती का भूत
          छिपा है आसमान में
कुछ ऐसे ढूंढते थे अतीत को
          जैसे खोया खिलौना खोजता कोई हो बच्चा


कुछ दूर, एक बुढ़िया टहलती थी
          वो भी अलग दीवानी थी
दिन भर जमी को घूरती थी
          ना हसती थी, ना गाती थी
वो अपनों की कहानियाँ सुनाती थी
          वो अपनी पेहचान छुपाती थी
पर मुझे तो वो एक
          टूटा सा ख्वाब लगती थी

हाथों में खुरपी ले कर
          जमी को खोला करती थी
के ना जाने कब मिल जाये
          उसे हड्डियां अपनों की
दफनाया था जिसे एक तानाशाह ने
          भूत बना, उसके देश की
उदास होती है अतीत पे, कुछ ऐसे
          जैसे खो कर खिलौना बैठी हो कोई बच्ची

प्रेरित (inspired from)
Nostalgia for the Light  by Patricio Guzman
http://en.wikipedia.org/wiki/Nostalgia_for_the_Light


 

Saturday, November 22, 2014

भटक ले

उफ़, एक और चौराहा
    फिर कई रस्ते
        बस एक फैसला
              और बिछड़ना

चलो इन रास्तों को ही छोड़ दे
     अब जरा भटक ले
            लापरवाह दिशाओं में
                 थोड़ा दूर चल लें 

आँखों में चाँद हो
       सांसो में ठंडी हवा
              बातें इस जग की हों
                   और तजुर्बे तेरे मेरे

नजरियों को काट के
       वो जहां देखते रहें
              जो हर दिन सजें
                   बिन तारीफ आशिक की

दुःख को खट्टा, सुख को मीठा
        इमली बना चबाते रहे
               वक्त की घूँघट खोल खोल
                     यादों को शर्मिंदा करे

कभी सोचा है

         यूँ भटक के कैसा लगता है?
               आज वही लिख रहा हूँ
         अगर अच्छा लगे
               तो आ जाना मेरे पास
                       रास्तों को अकेला छोड़ के

             

धुप बत्ती

एक धुप बत्ती
      कुछ उमीदों से सुलगी
      खुदा को खुश करने
      होले होले यु जल के
      आराधना में लीन हो
      वेदना को भूल वो
      मौहोल महकाती रही
      विश्वास चमकती रही

सुबह बस बची तो राख थी
        जो एक झोके में बिखर गयी

ना जाने,
     मुराद पूरी हो
     संतुस्ट चिता में वो फुक गयी

या
     इन्तेजार में
     जवाब के, कमजोर हो वो मर गयी

विद्रोह

लाख आंसू बहा लिए
       अब खून बहाना बाकि है

अंग्रेजों से आजाद हो लिए
       अब अपनों की बरी है

देशद्रोह तो बहुत देख लिए
       अब देश में विद्रोह आनी है

समाज सुधारक बहुत हो लिए
      अब खुद सुधरे की ठानी है

डर

उसे पता क्या स्वाद पानी का
जिसने रेत चबा प्यास बुझाई है

उसे पता कहाँ डर किसी का
जिसके नसीब सिर्फ राख़ आई है

इंसानो सा कवि

फिर से कलम तले
       कागज रोंद रहा है ना
किसी नयी आजादी की
       नज्मे बुन रहा है ना

कवि!  कवि!  कवि!

क्यों ना समझ पाता है तू
ये झूटी जमुरियत की लोरियाँ
सुन सो रहे है
ये उठेंगे नहीं

लो! फिर तू उन्हें जगाने की
        कोशिश कर रहा है ना

उंगलिया तोड़ देंगे वो
जस्बात मरोड़ देंगे वो
सूली चढ़ा कर तुझे
अमर कर देंगे वो

अरे! बेवकूफ! तू फिर भी ये
        उंगलिया चला रहा है ना

ये इंसान है डर तू
ये मिट्टी को भगवान बना
फिर उसे तबाह करते है
मसीहा बनाना आदत है इनकी

क्या! तू इन्हे बदलने की
        कोशिश कर रहा है ना

वाह! कवि वाह!

बहुत हिम्मत है तुझमे
ये कविता जो पूरी करली तुमने
 पर पता है तुझे, शायद नहीं
के तू भी उनसा ही निकला

देख! मेरे इतना माना करने पर भी
        तूने इतनी सी भी सुनी ना  


ढूंढता रहा

जिसे मै दिन भर ढूंढता रहा
       वो रातों में टहलता था

मेरे ख्वाबों को सींच के
       दिन के मंजर लिखता था

गुलाम

ये ज़माने के गुलाम
      अब गुलामी से इश्क़ कर रे हैं

जिस्म पे उभरे नासूरों के
       दर्द को चूम रहे है

रसाकसी

इन फिजाओं और मेरे सीने के बीच
        ये सांसों की रसाकसी चलती रही

उसमे फसा मै एक डोर से
       जिसके टूटने को  मुंतजिर जिंदगी कटी है

Tuesday, November 18, 2014

रूह

हर जिस्म की बोतल खोल के
मौला ने एक रूह दी है

जैसे अँधेरे को दीप ने
एक लौ की रौशनी दी है

Monday, November 17, 2014

आग - 2

जिनके दिलों में आग हो
उन्हें सीना जलने का डर कहाँ

जिनके आँखों में ख्वाब हो
पैरों को उनके थकना पता कहाँ

तुझमे भी वो ख्वाब है
के वो आग है तो रौशन कर जहाँ

मंजिल जो रूठ जाये तो
रास्तों को साथी तू बना



मुमकिन कभी
     हो हर चाल सही

जो भटका नहीं
    कैसा राही वो भी

खुद की खुदी सम्हाल कर
    ख्वाहिशों को आजाद कर

के ढूंढ वो वजह
    जिसके लिए था तू चला



देख खुद को
    आईने में कभी

जिंदगी सिमटी
    जेहेन में तेरी

चेहरा बदल गया है
     आवाज रगड़ गयी है

देख खो तो नहीं गयी
     मुस्कान ये तेरी


जिनके दिलों में आग हो
उन्हें सीना जलने का डर कहाँ

जिनके आँखों में ख्वाब हो
पैरों को उनके थकना पता कहाँ

हावड़ा ब्रिज

मिसरे थे, लफ्ज़ थे, अल्फ़ाज़ थे
      कुछ मीठे, कुछ खट्टे, कुछ आपस में लड़े थे

पर सब एक कागज पे
      एक नज्म में सिमटे थे

हावड़ा ब्रिज पर खड़े
     वक़्त ने आज वो कागज फाड़ फेका है

हुगली के चैहरे पर तैरते
    सब बिछड़ रहे हैं

ये टुकड़े हस रहे हैं
     तड़प रहें हैं

सब साथ में कभी एक हसीं नज्म थे
अब साथ में सब बस यादें लिए हैं

Friday, November 7, 2014

आग

जिनके दिल में आग हों
      उन्हें सीना जलने का डर कहां

जिनकी धड़कन शोला ना हों
      उन्हें जिंदगी का मतलब पता कहां

कला

तेरी कला ही यूँ बेमिसाल है
      जैसे आइनों सा चित्रकार है

जी करता है, तोड़ दूँ इसे, देखने को
     की क्या ये सच में आइना है
     



Monday, November 3, 2014

जहां

कृष्ण में बचपना भी है
                कृष्ण में ही जहां भी

मुख खोल के कृष्ण का
                घबरा गयी यशोदा भी

अचम्भे में ये सोच रही
                क्या सत्य जहाँ का सरल यही

ऋषि मुनि विद्वान भिड़े
               जहां समझने में कितने मिटे

पर क्या वो समझ पाएंगे कभी
              के नासमझ है ये जहां खुद ही  

Wednesday, October 29, 2014

घर का कारागार

इल्जाम लगा दो मुझपे
         ठहरा के मुजरिम
                  जो तोड़े है खिलोने
                             जस्बातों के
                               
पहना के हथकड़ी रिश्तों की
       जुर्म कटवाओ किस्तों में
                 जो घर का कारागार
                             चलाना है   

जान

आज गर्दन खीच के किसी ने
           जान निकाल दी मेरी गली में

के जिंदगी सस्ती पड़ गयी थी
           जिन्दा रहने के दाम से
              

लोग समझ लिए मैंने

लोग समझ लिए मैंने,
             फिर भी खुश ना रहा मै

को खुद को ये ना समझा पाया
            के लोग समझ लिए मैंने

मय

निगलने को वो तेजाब ढूंढता हूँ,
जो दिल पे जमी यादें धुल ले जाएँ

पर मिली निगलने को बस ये मय
जो इन यादों में ही कहीं घुल जाएँ

तजुर्बे

बड़े होने का दावा ठोक, जो अपने तजुर्बों पे इतराते हैं

अपने हलक लटकाये फिरते है वो फंदा

जिसपे लटक उनके बचपन ने खुदखुशी की थी


फटा बादल

एक बादल फटा वादी मे कहीं
कुछ जाने बह गयी उसमे

सुन ये मै सोच पड़ा
कैसा लगता होगा ?
जब बादल फटता होगा ?

दरवाजा खटखटा एक आवाज बोली
मेरा एक अजीज भी बह गया उसमे

सुन ये महसूस हुआ
कैसा लगता होगा
जब बदल फटता होगा

किसी की जरूरत

यूँ  तो हर किसी को हर किसी की जरूरत है
फिर किसी को किसी की जरूरत भी नहीं

बड़ी पेचीदा लोग है, इस पेचीदा जहाँ मे
जो यहाँ बेबसों को बस बेबसी की रेहमत है

Saturday, October 25, 2014

कागज - कलम

अपने होठों से चूम चूम
          न जाने कितनी कहानी
                         कितनी नज्में

लिखी इस कलम ने
         कागज के सीने पे

पर,
ना जाने कौन सी कहानी
         लिख रहे थे आज

के नीली गहरी खरोंचे भी हैं
स्याही से आंसू के छींटे भी हैं

ये कागज मर गया है
         चोट खा खा के

ये कलम भी सूख गयी है
         रो रो के

लगता है दोनों अपनी
         कहानी लिख रहे थे

एक कवि था

एक कवि था
                 रातों में टेहला करता था

जँगल कि राह में
                 पेड़ों के सुकून के बीच

हर सुबह, उसके हाथों
                लगी मिट्टी से, लगता था

रात भर नज्में खोद कर
                आया है किसी वीराने में

आज सुना वो गुजर गया
                मौत का मोड़ ले कर

जंगल से जुगनू भी आये बताने
               के सावन उसकी नज्में ले गया धुल कर

जो अब बची है बस
            उसकी यादें, मेरे जेहेन में
            उसकी नज्में, उनके जेहेन में

आतिशें

कोई बहुत कोशिश कर रहा है
                             मेरा आसमान जलने की

आतिशें छोड़ रहा है जमी से
                             आवाजे भी कर रहा है

चिंगारियां बिखेर के वह
                            काले धुएं भी छोड़ रहा है

कोई बहुत कोशिश कर रहा है
                           मेरा आसमान जलाने की

पर शायद उसे पता नहीं है
                         
हवाओं को काला कर के
                          वो अपनी ही सांसे घटा रहा है

हाईवे

कल रात एक जल्दबाजी
उसका रसता काट गयी

अन्जाम, वो साँप,
बन मांस का लोथड़ा पड़ा रहा

कौवों ने उसको पार लगाना भी चाहा हाईवे से
पर ये जल्द्ब्जियां ही कुछ इतनी बढ़ी थी
सर चीप गई थी उसका टायर का छाप छोड़ कर
लगे रूह छप गई हो उसकी तारकोल की चादर पे

पता नहीं के वो भटका था
या उसके रस्ते आ पड़ा रास्ता था

फिर भी उसकी शहादत को देख बस इतना लगा

के इस काले टैटू की कीमत
कुदरत को उसके खून से अदा करनी पड़ रही है

Monday, October 20, 2014

शमशान

जब मै अपने सर की काली जवानी
    उतार के नदी में बहाने जा रहा था

जी तो बहुत चाहा की उसकी
    कुछ जिंदगी खरीद लू बदले में

फिर बगल में जलती शमशान
   की भट्टी को देख याद आया

की आज शाम तक ये नदी
  उसे भी राख बना ले जाएगी

फिर एक जाती लहर के साथ, वो नदी,
  मेरा पैर खीच, रौब दिखती मालकिन सा बोली

" यहाँ सौदा नहीं वक़्त चल रहा है
   ये चूल्हा शमशान का
       यूँ ही मेरा पेट भरता रहेगा
लोइयों सा नाजुक तू कब तक जियेगा
   आज वो सिका है कल तू सिकेगा
       चल जा यहाँ से, वक़्त बहुत हो रहा है"

सुन मै, बोल वो, कछ शांत हुए
    मुड़, पलटे कदम, उसे बोल आया

" आऊंगा किसी रोज, बनने रोटी तेरे खुराक का
     कुछ लहरों बाद मिलने, साथ देने`इस यार का
 
फ़िलहाल तब तक को, कर विदा, अलविदा"


Friday, October 17, 2014

इस गजल को आवाज ना मिली है

इस गजल को आवाज ना मिली है

तनहा यूँ महरूम ये रही है
ज़माने ने तवज्जुह ना दी है
जब भरी महफ़िल में तुमने कहा
के मुझमे वो बात नहीं है

इस गजल को आवाज ना मिली है

न जाने कब से मुन्तजिर पड़ी है
इस हिज्र के ज़िक्र को बयां कर रही है
हौसला खो बैठी है, तुम्हारे तंज से
के तुम्हारे बातो की बोली ये ज्यादा लगा बैठी है

इस गजल को आवाज ना मिली है

सुरों की पैहरान भी जो ना नसीब हुई इसे
ये रूठी है, थोड़ा टूटी है
जो तुम्हे इसे लबों से लगाना गवारा ना था
ये आँखे सुजा रात भर रोई है

 इस गजल को आवाज ना मिली है

चाँद - तारा

क्या सुनी है वो कहानी
अरे अपने चाँद की कहानी
लैला, मजनू, हीर, इन सब से भी पुरानी
हाँ हाँ तारों को कहानी

वो जमाना, जब धरती ने था पाला
एक चाँद और एक तारा
हाँ वो जमाना, जब था
बस एक ही तारा
धरती के इर्द गिर्द घूम के
दोनों ने अपना बचपन था काटा

एक शाम चाँद जवान हुआ
तारा के हुस्न पे फ़िदा हुआ
जब इश्क़-ए -इजहार हुआ
तो ये गुल गुलज़ार हुआ

फ़िलहाल ब्रम्हांड खुशहाल था
इस नए जोड़े पे निहाल था
पर फिर भी एक तबका बूढ़ी उल्काओं का
ना जाने क्यों परेशान था

रीत के रिवाज निकले
बिन बात के कुछ जात निकले
सुना फरमान अपनी मर्जी का
दोनों पे पैहरे लगा डाले

पर फिर भी एक शाम तारा आई
छुप कर चाँद से मिलने को
उस हाल बेहाल इश्क़ के रस से
सारी रात भिगोने को

नजर लगी, कोई निगाह पड़ी
किसी कोने से, गोली चली
एक उल्का यूँ तारा से भिड़ी
कतरा कतरा वो बिखर गयी

चाँद आज तक आता है
उसे याद करने को
इन तारों को बंटोरने को
उन्हें प्यार करने को

शायद इसी लिए कहते हैं

जब कोई छूट जाता है हमारा
उसे चाहता है कोई हमसे भी ज्यादा
बन जाता है वो एक तारा
उस चाँद का तारा, उस चाँद का प्यारा


Monday, October 13, 2014

अतीत के अतिथि

अँधेरी रातों से उजले सवेरे
काली मंदों से उठते वो चेहरे
तकते है उस रौशनी को
आने वाले कल की उम्मीद को

जहन मे भीगी तर तर वो यादें
लत से जकड़े, सिकुड़े, बेचारे

जालों में फसते
       हर मोड़ पे डरते
 सहमे हुए
       अब तो बन ही गए

अतीत के अतिथि
इस रीत में रत्ती
ना बाती, ना बत्ती
है पड़े जो ये रद्दी



थे बनना चाहे, कमल जब भी वो
कीचड़ में पड़ के कीचड़ बने वो
पहुंच भी ना पाये थे तारे फलक को
गर्दिश में गिर के, गढ़ते रहे वो

उल्फत की साँसों में कल की महक थी
टूटी कसम की, कसक थी, सिसक थी

फ़िक्र करते
        हर कसर को भरते
सहमे हुए
        अब तो बन ही गए

अतीत के अतिथि
इस रीत में रत्ती
ना बाती, ना बत्ती
है पड़े जो ये रद्दी

ये कवितायेँ उनके लिए

ये कवितायेँ उनके लिए -


कुछ लोग जो खास हैं

           और

कुछ लोग जो एहसास हैं

रेपिस्ट (बलात्कारी)

उसने माथे मे मकड़ियों ने
              हमेशा फंदे थे पाले
इंसान में इंसान नहीं
              सामान थे नापे

जिन जिंदगियों को लूट के
              बहाया था नदी में

ये बेशरम, आज उसी नदी में
            अपने पाप धोने आया है

गिलहरी

मेरे आँगन आई थी एक गिलहरी आज
            दुपक फुदक के लांग कूद के
                        ढूंढ रही थी कुछ खास

कोने में पड़े एक कूड़ेदान में
           झुक के, चख के, कुछ लिया उठा
                        लौट पड़ी वो, थी जब लांगने को दिवार

मैंने उसे टोक दिया
          सच्चे मन से आग्रह किया

"और ले लो जो भी ले जा रही हो
          छुप छुप कर मत आया करो
                        क्यों इतना घबरा रही हो?"

वो पलट के बोली " माफ़ करना
          ले लेती तेरा सामान, बेहिचक, बेपरवाह
                         पर है जमाना बहुत ख़राब

शरीफों के लीबाज बिकते है अब, मुफ्त काले बाजार
भरोसा बेच आई हूँ, चंद लम्हा जिंदगी बढ़ने को

गुलाबी सुबह

उस सुनहरी रात के बाद
             पलकों पे सपने नाच रहे थे

के अचानक एक सरगोशी ने
             उनकी सरगम तोड़ दी 



जो उतरा मै आँगन मे
               समझने उस माजरे को
                              मै उतना ही हैरान हुआ

एक खूबसूरत बादल
               इजहारे-इश्क़`कर रहा था
                             उस शम्स से

मुझे देख शर्मा गया
              कर गुलाबी सुबह, वो
                             और भी घबरा गया

आँख माल के मैने
              परखना जो चाहा
                             सपना है, की सच है

वो हौले से
             हवा पकड़े
                            छुप कहीं चला गया

तिरंगे

तिरंगे, तेरे मान को
           अपने कंधे, हर जीत पे लदे
                       मै कब तक चल पाउँगा

सोने, चांदी, ताम्बे
           के पदक, के कवच, तो रहेंगे
                       पर ये सीने झुक जायेंगे

तेरी शब्जियत पे
          तेरे बागवे सिंदूर पे
                       तेरे स्वेत स्वछता पे

नाज  तो बहुत है मुझे
        पर तेरे चक्र को लादता अभिमन्यु
                      इस चक्रव्यूह में कब तक जी पायेगा



मुझे पांडव होने पे गर्व नहीं
        ना कौरवों से भेद
                    पर क्या ये अनेक कभी एक हो पाएंगे



मेरी आँखों में ये भारत
        महाभारत ह, एक युद्ध नहीं
                   पर क्या भविष्य ये सपने देख पायेगा

मैंने थामा है तुझे जिंदगी भर
        मेरे बाद भी तुझे कोई थामेगा
पर तूने मुझे अब ना थामा
       तो मै शायद और ना जी पाउँगा
       
   

ना जाने कब

कल रात कड़की बिजली से
               कुछ अस्मा जल गया मेरा

आज बारिश बह रही थी उससे
              वो जख्म ही था कुछ ऐसा

ना जाने काब भरेगा
             ना जाने कब बारिश रुकेगी
                       ना जाने कब ....

सीलन

हर  रिश्ते का कमरा बनाता हूँ
                     जहाँ हसी के रंग हों

और आँसू की जगह भी ना हो

पर हर सावन वो सीलन बन आते है !

कितना बेकार कारीगर हूँ मैं !


तंज

आलस ओढ़े सो रहा हूँ
                     अब जगाना ना मुझे

ज़माने से रूठा रो रहा हूँ
                     अब मनना ना मुझे


गम  नहीं उस शिकस्त का
                     जो दी एक अनजान ने मुझे


अफ़सोस तो उन तंज का है
                    जो करी मेरे अपनों ने मुझपे
      

सपनो की दुनिया

के सो जाओ सभी
         ये सपनो की दुनिया
                     है सपनो में कहीं

सोना तो है सबको एक दिन
         के पाप बचाये बैठे है! पुण्य कमा के
                    पाप चखेंगे सपनो की दुनिया जा के

चलो आज ही थोड़ा सो लो
         ख़्वाबों में खुद को धो लो
                     थोड़ी खुशियां चोरी कर लो

के आँखें जब खुलेंगी
         तो सुलगा लेंगे कोयले टूटे सपनों के
                     सेक के रोटियां उम्मीद की
                                काट लेंगे ये जिंदगी

मजबूर मजदूर

मुझे संभावनाओं से खेलना नहीं आता,
                 अपनी उँगलियों को गिनना नहीं आता

हाँ मगर अंगूठे की चाप पर पहचान बनी है मेरी
                 पर मुझे उस छाप को पहचानना नहीं आता

मजबूर मजदूर जो भी कह लो
                मुझे दोनों का  फरक नहीं आता

पर  इतनी  समझ है मुझे
                 बोलूंगा अगर बुरा ना मनो

की ए कलम वालो
                तुम्हारी दुनिया में चरचा तो बहुत होती है
 मेरे उलझे हालातों पे
               पर तुममे से किसी को
                           इन्हे सुलझाना नहीं आता

 

Sunday, September 28, 2014

फ़ांस

अरे! ये कितनी यादें भर दी थी तुमने मुझमे
       जो अरसा बीते अब तक बह रही हैं आँखों से

जो टुटा था तुझमे मुझमे,
                              उसके जख्म तो भर गए है

पर शायद एक फ़ांस छूट गयी है अंदर
जो अब तक चुभ रही है

के आज रात चाँद की सुई से
               उसे भी निकालना पड़ेगा

                             के तुझे अब भूलना पड़ेगा




Thursday, September 25, 2014

ओबैद

कुछ लोग ख्यालों के जहां में रहते है
कुछ ख्यालों को जहां में बदलते हैं

जो जहां सोचा था तुमने दीवारों के पार बरसों पहले
आज उसी दिवार पर बैठा मै वो जहां देख रहा हूँ

तुमने सच कहा था ओबैद
                     ये जहां खूबसूरत है
                                  बहुत खूबसूरत है


तेरे सपनो के मंच पे, आज खड़े कितने सपने हैं
जो तेरा एक सपना पूरा है, हुए कितने अधूरे पूरे हैं

के तुझसे ये हुजूम बना, इस हुजूम मे मैं शरीक हुआ
ये मेरा नसीब है, जो तेरे खयालों के करीब हूँ 

तुमने सच कहा था ओबैद
                       ये हुजूम हसीन है
                                    बहुत हसीन है

Wednesday, September 24, 2014

अजनबी

कहते है बंजारा, अकेला, अजनबी मुझे
जो खुद दीवारें ओढ़े रहते हैं

सर्दी

एक मुट्ठी आसमान
                    कोई डाल देता मुझपे
                                        तो शायद एक और सर्दी काट लेता मै

आज अख़बार बोल रहा था
                   कुछ लोग मर गए कल रात
                                        ठंड से ठिठुर के

ये आसमान कितना छोटा
                    पड़ गया है ना
                                      ज़माने के लिए

हर दिन

मेरे हर कदम को चूमती है
ये जमी बड़ी चाह से

हर साँस में कर सरगोशी
दुआ बरती है ये हवाएं

ये रौशनी झूला झूलती है
पकडे पंखुड़ी मेरे नयनों की

हाँ करती तो है धुन भी
कत्थक मेरे कानो में हर रोज

फिर महक भी आती है
कुछ दूर से हक़ ज़माने को

और एक जायका भी आता है
अंगड़ाई ले कर फैलने मेरी जुबां पे

कम से कम इतना खुशनसीब
तो हर दिन हो लेता हूँ मै

अब ये गम रखने की जगह
 कहाँ से बनाऊ






Sunday, September 7, 2014

मौत के सौदागर


बी - बीवी
प - पति
अ -एजेंट
अ २ - दूसरा एजेंट


                                                                      प्रथम 

(पति कमरे में बैठ कर कविताये पढ़ रहा होता है । बीवी कमरे में आती है )

बी - ये कब  तक इन किताबों में सर खपाओगे मन ऊब नहीं जाता

प - (जवाब नही देता )

बी - पता नहीं कैसे पढ़ लेते हो इतना सब। इतना पढ़ते हो अच्छी बात है पर इससे कोई फयदा ।

प - (जवाब नही देता )

बी - कवि साहब! कभी घर के काम में भी थोड़ी रूचि दिखा दिया करो। अच्छा! आज शाम को गाड़ी निकाल लेना सामान लेने जाना है। कल फिर समय नहीं मिलेगा। आपको अपने क्लब से फुरसत नहीं होगी।

प - और तुमको अपनी किटी से।

बी - वाह! इतनी देर से मै बकबक कर रही हूँ तब तो एक आवाज नहीं आई और जब निकली तो सिर्फ मरी बुराई करने को।

प - बुराई नहीं कटाक्ष।

बी - अपनी कविताओ की भाषा में मुझे मत फासओ और मेरी बातों पर जरा ध्यान दो। अच्छा! उस जीवन बीमा का क्या हुआ। पिछले तीन हफ़्तों से चार एजेंट आ चुके है। कुछ काम बना।

प - (जवाब नही देता )

बी - (गुस्सा हो के ) अब पूछ रही हूँ तो बताओगे नहीं। पता है आस पडोस में सबने कोई ना कोई पालिसी ले ली है। हर किटी में सब अपने होने वाले मुनाफे के बारे में बात करते हैं।

प - मतलब सब अपने पति के मरने की कामना करते हैं?

बी - देखा फिर जब मुह खुला तो मेरी बुराई के लिए और बोलोगे की कटाक्ष कर रहा था।

प - ये कटाक्ष नहीं, सवाल था।

बी - सुनो मुझे इससे कोई फरक नहीं पड़ता की तुम कटाक्ष कर रहे हो या सवाल। मुझे बस इतना बताओ की तुम पालिसी कब ले रहे हो।

प - अरे! पालिसी लेने से पहले उसे समझना पड़ता है, उसके फायदे नुकसान देखने पढ़ते हैं। तब ली जाती है पालिसी।

बी- तीन हफ्ते से तुम्हारा ये स्वयंवर चल रहा है, तुमको एक भी पालिसी पसंद नहीं आई।

प- वैसे ये कटाक्ष भी था और सवाल भी। मेरी संगती का असर पड़ रहा है।

बी- उफ़! तुम बातें न पलटो। मुझे इतनी समझ नहीं है, पर मै इतना जानती हूँ की ये फायदेमंद है। जैसे हम लोग किटी मै पांच पांच सो जमा कर के साल में एक बार ढेर सारा पैसा कमाते है। वैसे ही इस बीमा में भी पैसे जमा कर के कमाए जाते है।

प - हाँ हाँ! तुमने पहले भी बताया है ये सब, आज एक और एजेंट आने वाला है। उसकी पालिसी देखने के बाद पक्का कोई पालिसी ले लूंगा कल तक, सोच के। अब जरा बेगम जी! एक चाय दे दीजिये।

बी- कवि साहब! घर में दूध नहीं है। जा कर किराने से ले आओ। चाय तुरंत मिल जाएगी।

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                                                                         द्वितीय 

( पति ड्राइंग रूम में बैठ कर कविताये पढ़ रहा होता है । बीवी अंदर टीवी देख रही होती है। एजेंट आता है।)

(घंटी बजती है)

बी - देखो जरा कौन है।

प - (जवाब नही देता )

(घंटी फिर बजती है)

बी - (गुस्से में) तुम फिर अपनी दुनिया में गुम गए। एक दरवाजा भी ना खोला गया तुमसे।
(दरवाजा खोलती है )

अ - नमस्ते । मै LIC से आया हू। मिस्टर गुरुकांत कृष्णा जी ने बुलाया था ।

बी - हाँ हाँ आइये बैठिये ।

प- (कविताओं में गुम )

बी - ये LIC से आये है । बीमा बनाने के लिए।

 प- (कविताओं में गुम )

बी - कवि साहब! (जोर से)

प - हाँ  हाँ

बी - LIC! बीमा!

प - हेलो

अ - जी नमस्ते मेरा नाम सतीश तिवारी है। अपने मुझे फ़ोन किया था जीवन बीमा बनाने के लिए।

प - जीवन बीमा की जानकारी के लिए।

अ - हाँ  हाँ सब एक ही बात है। अब जब मै आ ही गया हूँ तो आपको और तकल्लुफ नहीं होने दूंगा। आज ही सारा काम निपटा दूंगा।

प- अभी तो सिर्फ जानकारी ही चाहिए। वैसे असली तकलीफ तो क़िस्त देते समय पता चलती है।

अ- क़िस्त तो छोटी छोटी होती है जनाब, यूँ यूँ निकल जाएगी। वैसे भी आप तो पक्की नौकरी वाले है। आप तो आराम से क़िस्त निकाल लेंगे और मुनाफा भी कमा लेंगे।

प - अगर आपकी कंपनी ने कुछ छोड़ा तो।

अ - अच्छा ये बात छोड़िये। ये बताइये आप किस प्रकार की कवितायेँ लिखते हैं। प्राकृतिक, सामाजिक, छायावाद?

प - कविताये लिखना बस एक सौख है। जिंदगी जीने के लिए इन कविताओं की क़िस्त जमा करता हूँ। ठीक जैसे की आप मेरे मरने की क़िस्त भरवाना चाहते हैं।

अ - (झेंपते हुए) अच्छा अच्छा, जी जी, ( बीवी की और ध्यान केंद्रित करते हुए) और भाभीजी एक चीज बोलना चाहूंगा आपसे, आपके यहाँ के परदे बहुत अच्छे है, red is my favorite color |

बी - ये मेरी मम्मी की पसंद है। वो मेरी बहुत मदद करती है सामान खरीदने में (पति की और पैनी नजरो से देखते हुए)

अ - मुझे लग ही रहा था की घर के बड़े बुजुर्ग की ही पसंद होगी। वैसे आप दोनों कहाँ के रहने वाले है?

बी - जी हम दोनों ही लखनऊ के रहने वाले है।

अ - अरे वाह! लखनऊ तो बहुत ही हसीन शहर है, नवाबों की नगरी। मेरी मौसी वहा रहती हैं। वहा के कबाब बहुत लज़ीज़ होते है। अपने तो खाए ही होंगे।

प - हम vegetarian  हैं ।

अ - तो रबड़ी तो खाई ही होगी। चारबाग स्टेशन के पास वाली गली तो सिर्फ उसी लिए famous है।

प - हमे मिटा ज्यादा पसंद नहीं।

बी- (बात सम्हालते हुए) मैंने खाया है। मम्मी पिछले हफ्ते ही लखनऊ से ले कर आई थी। अरे! मैंने आपसे पानी भी नहीं पुछा।  मै अभी राबड़ी और पानी ले कर आती हूँ। (पति की ओर घूरते हुए अंदर जाती है)

प - आपको कैसा लगता है ये नौकरी कर के।

अ -  जी बहुत अच्छा लगता है। पर हाँ आपकी सरकारी नौकरी से ज्यादा नहीं। ऊपर से कवि।

प - आपको झूट भी बहुत बोलना होता होगा, क्यों ।

अ - जी क्या मतलब?

प - मतलब की हम आपके लिए एक customer हैं और हम लोगो को लुभाना आपका काम। हमको लुभाने के लिए आप हर कोशिश करते है, जिसमे झूट बोलना भी शामिल है। (बीवी पानी और रबड़ी ले कर आती है) जैसे की पालिसी में बाते छुपाना और एक अनजान कंपनी के लिए फायदा करना। एक कवि की नजर बोलूं तो आप एक मौत के सौदागर लगते हैं।

(एजेंट भौचका होता है, फिर शांत हो कर एक रबड़ी उठा कर खाता है। थोड़ा भावुक हो कर फिर बोलता है)

अ - अपने खूब पहचाना मुझे। शायद ये पेशा अब मेरे वजूद का प्रतिबिम्ब बन गया है। (कुर्सी से उठ कर ) मै एक जीवन बीमा का एजेंट, दर दर लोगों के घर जा के, दरवाजे खटखटा के उनसे उनके मरने की सम्भावनाओ की बोली लगवाता हूँ । उस बोली की कमीशन भी मिलती है मुझे। मै मौत का सौदागर हूँ। (दर्शकों की और मुह करके) एक बार ऐसा ही सौदा किया था मैंने। वो भी पक्का सौदा जिसमे लागत भि मेरी थी और मुनाफा भी मेरा, यहाँ तक की कमीशन भी मेरी  थी जनाब। पर कभी सोचा भी ना था की वो सौदा टूट भी सकता है। और जब टूटा तो साथ साथ मेरी बेटी भी ले गया। जनाब उसे कैंसर था। ब्लड कैंसर। हर दिन chemotherapy से गलते हुए उसे देखता था मै। पहले उसके बाल गए, फिर नाख़ून नीले पड़ के गिर गए, वो चिड़चिड़ी भी हुई बुझती हुई लौ की तरह, और फिर एक दिन बुझ गयी। जानते है कितने रुपये दिए इन बीमा वालों ने। सात लाख, जी जनाब सात लाख। चिता भी ना जलाई गयी उनसे।

(कुछ देर सन्नाटे के बाद)

बी - माफ़ कीजियेगा, ये थोड़ा सख़्त बाते बोल देते है।

प - मेरा प्रयास आपको ठेस पहुचना नहीं था। मै माफ़ी मांगता हूँ। अगर आपको ठीक लगे तो हम लोग कल बीमा के बारे में बात कर सकते हैं। आज आप घर चले जाइए।

अ - (अपने आप को सम्हाल कर ) जी`आप लोगो को माफ़ी मांगने की जरूरत नहीं है। और जो भी हुआ वो बीत चूका है, मै अब उस सदमे को पीछे छोड़ चूका हूँ। मै खोने का दर्द समझता हूँ। ये बीमा कभी भी  मेरा आपका दर्द नहीं भर सकता । बस शायद किसी जरूरत के समय आपकी मदद कर दे। मै पालिसी को ले कर आपकी आशंकाओं को समझ सकता हूँ। मुझे आप थोड़ा  वक़्त दीजिये मै पूरी कोशिश करूँगा की आपको कोई नुकसान न हो।

प - अगर आपको कोई दिकत ना हो तो मै बेशक आपकी पालिसी देखना चाहूंगा।

अ - ये तो मेरा पेश है इसमे क्या दिक्कत।  आइये, मेरे पास दो जबरदस्त पालिसी है, जीवन रक्षा और जीवन आनंद, मेरे हिशाब से आपके लिए जीवन रक्षा ज्यादा अच्छी होगी।

बी - मै चाय बना कर लती हूँ ।

( दोनों बैठ कर पालिसी पर चर्चा करते है। बिवी चाय बनाती है। चाय लाती है। पालिसी के बारे में सुनती है । सब सहमत होते है। सब हस्ते है । )

अ - तो मै परसो आपका चेक जमा कर दूंगा और आपका बीमा चालू हो जायेगा। मुबारक हो आप दोनों को ।

प - जी शुक्रिया।

अ-(दरवाजे की और जाते हुए) भाभीजी अगली बार जब आपकी मम्मी जी आये तो मुझसे जरूर मिलवाइयेगा ।

बी - जरूर भाई साहब ।

अ- मै चलता हूँ, नमस्ते ।

बी , प - नमस्ते ।

(बहार निकलते ही एजेंट सतीश तिवारी दूसरे एजेंट से मिलते है, दोनों स्टेज के एक कोने में जाते है। दूसरी तरफ पति और पत्नी आपस में बाते करते है )

अ २ - क्या हुआ, मामला बना की नहीं ।

अ - बस बन ही गया ।

अ २ - अरे कैसे पिछले हफ्ते मै यहाँ आया था पर वो आदमी बहुत खूसट था । जरा भी नहीं फसा ।

अ - अरे मुझे भी ब्रम्हास्त्र इस्तेमाल करना पड़ा, ऐसे वैसे थोड़े ही पट गया।

अ २ - (हस्ते हुए) इस बार किसको मार कर आये हो। 

अ - चल पहले कमीशन लेते है फिर बार चल के अच्छे से बताऊंगा ।

(दोनों चले जाते है)

(साथसाथ, स्टेज के दूसरे कोने में, पति कुछ देर तक पत्नी से बात करता है फिर अपने कमरे में जा कर कुछ सोचता है। फिर कुछ लिख कर कुश होता है। दर्शकों की और आ कर बोलता है )

प -  हर रास चख कर देखा मैंने
           हर स्वाद एक सा पाया

       जब विष चखने चला मै
           हर स्वाद एक सा पाया













Sunday, August 24, 2014

From the conflict of thoughts: A voice from a city


I opened a factory of its own kind,
To churn up the growing young minds,
Molding them to think my way,
Folding them to gain my gains.

They work for stomach and give their brains,
I give them food according to their shares,
My stamp on their face decides their fate,
The way they please me marks their rate.

I built a dam across their home,
To control the flow of how they grow,
They have to flow it’s the law of nature,
I extract the energy it’s a man-made feature.

Gain and gain, I store it all,
Rain and rain, I pour it all,
Filling the drains with dead desires,
Dark with soot of dreams on fire.

My mammoths of money has roared again,
I became the leader because of my gains,
A feeder of billion hopes,
Chosen by million votes.

Carrying the flag painted by my ancestors,
For service and honor of my mother,
Making them believe that they are unique,
Singing the anthem which I repeat.

From the conflict of thoughts: A voice from a forest


What they call me, I am a tribal.
Lacking in knowledge and not desirable.
I live in open without the walls,
Feed on things which nature gives to all.

I owe the lands open and fertile,
Nourished by nature, young and juvenile.
Where ideas flow without directions of reason,
No hunger, no greed for taste and pleasure.

I remember that evening of rains,
When those dark men came for gains,
Dark coat, dark pants and dark brains,
Called themselves the pioneer of change.

Comfort and pleasure was the offer they made,
Money was the measure for the offer we claim.
Money and money they pour it all,
Creativity and labor they store it all.

Now I live alone with barren around me,
No one to nurture the life around we,
River of imagination floods no more,
Dams of school control their flow.

I heard a roar by some creature,
They choose a leader for their future,
How can they sell their life so cheap?
Singing the song which he repeats.

Friday, August 22, 2014

कलियाँ

फूल रखती थी वो
                     सजा अपने कमरे में

शायद वजह थे वो
                    उसकी मुस्कान के
                                 उसके ख़्वाब के


एक सुबह घूम रहा था मैं
                   अपनी भिनभिनाती नज्मो के के साथ

जब वो दो खिली कलियों ने
                   मुस्कुरा कर देखा मुझे

जैसे गुजारिश कर रही थी वो
                   उसकी आवाज सुनने को
                             उसके रियाज में सजने को


पंहुचा तो था उसके दरवाजे
                उनकी मखमली  फरियादें लिए अपने हाथ में

पर इससे पहले की कुछ हो पाता
               उसका केवाड़ मैं खटका पाता

एक सुर उसका यूं उतर गया
               साहस मेरा भी चिरक गया

छेड़ ना पाया उसके हसीन रियाज को
               उसकी हसीन आवाज को

छोड़ आया उन कलियों को उसकी अटरिया पे
               हिम्मत ना हुई मुड़ कर आँख मिलाने की

शायद हवा के जोर पर
                पंखुड़ियां हिला रहे थे वो

जैसे खोज रहीं हो अपना
               बिछड़ा किसी भीड़ में

क्या मिली थी तुम उनसे ?
               क्या पोछे थे तुमने उनके आँसू ?

नसीरुद्दीन शाह

के तुम ही हो
                 वो साहस
                 जो हो के भी प्रतिबिंब
                 मेरे मन को आजाद करते हो
                 मेरे सीने के पिंजरे से
                
                 खयालों में बसते हो

के तुम ही हो
                 वो गुब्बारे वाले
                 जिसकी एक आवाज पे
                 गलियों में खिल जाते है चेहरे
                 दौड़ आते है नन्हे कितने कदम आँगन में

                 मुस्कानों में रहते हो


के तुम ही हो भावनाओं के सौदागर
                 मेहफ़ूज़ रखना खुद को

    भावनाए बाजार में बिकती नहीं
                               मिलती नहीं 

Saturday, August 16, 2014

संघर्ष

इन आसुओं में कटी मैंने जिंदगी, पर कोई कही मुझको भुला नहीं
वो चलती आँधी मुझसे ये कह गयी, तेरी यादों में कोई खोया कहीं

गूंगी फरियादें, बेहरी है आदते,
खुरदुरे से दिन है रेशम सी बातें
चाहतों को अब ये पैसों से नापे
पलटती फ़ित्रतो से हिलता जहां ये

कहते है वो इतनी सी बात है
बस चलता जा तू सीधी कतार है
ख्यालों पे परदे दाल के जिंदगी बना लो
और कोई सोंचे तो तुम उसको चुरा लो

इन आंसुओं में कटी मैंने जिंदगी, पर तुमने कभी मुझको समझा नहीं
वो चलती अंधी कब की थम गयी, जाते जाते मुझको तुम सा कर गयी


जलते इंसान

क्यों नहीं उतर आता सूरज जमी पर
बाटने अपनी रौशनी, जगमगाने इस जग को

क्या सोचता है,
                 चौंधियाई आँखों से छुप जायेगे ये मंजर

या डरता है,
                के जलते इंसान, बुझा देंगे उसकी जोत को

महीन कारीगर

कलम के बल पे, समाज से लड़े थे
अतीत की सेज पर, भविष्य के किले थे

कला को कल में बदलने चले थे
उजड़े बसेरों के आशियाँ बने थे

उठती अंधी को बारिश से बंधने निकले थे
सजाने इस जग को अपने रक्त से चले थे

वो महीन कारीगर थे, वो महीन कारीगर हैं

गुलज़ार

इस दरोड़ा ने दिए कई एकलव्य यहाँ

सिर्फ लफ्ज यहाँ, किये लफ्ज़ बयां

बचपन

नानी की  सेवइयां, खेमे यादों की खेवईयां
आंगन की चौपइया, ढूंढे आँखों, खोये चैना 

पोखरे की कोख में, सांसे रोके डुबकी लेना
सावन की मछली को नंगी मुट्ठी से पकड़ना

कानों में डाले उँगली, लाठी पे ताने सीना
बिरहा की धुन गाती चलती यारों की वो सेना

बागों की वो अमिया तोड़े - दौड़े भागे छिपना
मैं - मैं जब चिल्लाती थी वो  चरवाहे गईया

मिट्टी रगड़े दंगल में रोमांच से कुस्ती लड़ना
बाऊजी के नहलाने पर चीख चीख के रोना

ढेबरी की रोशनी से, चमकते थे ये नैना
घुपाली की गर्माहट में कटती थी सर्दी की रैना

पगडंडी  पर लचकते चलते, बचपन था जो बीता
उन मिट्टी के घर की सासों को, फिर तरसे मन मेरा

Thursday, August 14, 2014

जी रहा हूँ

स्याहियों को गोद रहा हूँ
कागजों को भर रहा हूँ
शब्दों में लिख कर मै
खयालों को पोंछ रहा हूँ

जिए जो क़ुछ पल मैंने
उन फलों को बटोर रहा हूँ

हुए जो इन्तेहाँ ऐसे
उन हलचलों को दबोच रहा हूँ

सन्नाटे  जो कह गए
उनमे आवाज भर रहा हूँ

फर्राटे में जो छूट गए
उन्हें याद कर रहा हूँ

आँखों को जो छू गए
उनकी तस्वीर बना रहा हूँ

जो किसी को ना बंधे
वो लकीर खीच रहा हूँ

थकावट के दर्द से भरी
उन नींदों में सो रहा हूँ

आवाज की भीड़ में जो भी सुना
उसे समझ रहा हूँ

अगर ये नशा है
तो मै उसमे धुप हो रहा हूँ

लोग कहते है, क्या कर रहा हु मै
मैं ! मैं तो सिर्फ जी रहा हूँ

 

रिश्ते

ये दोसत, ये प्यार, या हो परिवार
सब रिश्ते है, और कई नाम

ये जब डोर बने और बाँधी गाठ
तब कठपुतली सा नाचा इंसान

चाहता हुँ

तुझे तकते हुए
इन आँखों के दर्द से
अँधा न हो जाऊं

अंधेरों में चलता
तेरे ख्वाबों को पसेरे
कहीं शर्मिंदा न हो जाऊं

तेरे चुनर की चाहत में
आसमा को पकड़ता
एक परिन्दा न बन जाऊं

उजड़े अधूरे सवालों सा
बसता जो खंडहरों में, पुराने शहरों के
एक सन्नाटा ना बन जाऊं

चाहता हुँ बनना गवाह तेरे वजूद का
पर तेरी अनजान नजरों में
एक धुंधली तस्वीर सा ना रह जाऊं

छोटी जिन्दगी

खुदा के है दर से जो मिली
है छोटी सी ये जिन्दगी

सादी सी है पर रंग भरी
रौशनी से धुली पड़ी
पतंगों सा क्यों झूमे फिरे
बाती सा जल जल यूँ मरे

बोलो अगर तो ये बातें हैं
चुभती है, तो ये काटें हैं
जिलो इन्हे तो ये इबादत है
वरना ये सब एक बगावत है

वो आवाज

अल्फाज़ों को जोड़ कर बोलना तो हर कोई सीखता है

जो अल्फ़ाज़ों से दिलों को जोड़े वो आवाज कहाँ ?

Friday, August 1, 2014

पढ़ाई

स्याही स्याही खून बहायें,
               कागजों पे येही
आँखें ना खोल पाएँ,
               ये नन्ही जिन्दगी

 दीवारों के आगे,
                हैं जहां और भी
ये भी ना सोच पाएं,
                कैसी ये बंदगी

सहमे से बैठे हैं,
               डाटों के जोर पे
चलना ना सीख पायें,
               खयालों पे ये कभी

शब्दों को जोड़ के,
              ये लड़ाई है लड़ी
सीधे-साधे मन पे,
              क्या असर वो छोड़ गयी

कड़वी तो ना थी,
               पर है चखाई ये गयी
कैसी पढ़ाई है  ये,
               जो घोटाई है गयी
 

Sunday, July 27, 2014

मृत

है जलती तो लाश उस खेमें में भी
बनती है राख उस सरहद पे भी

चीरा था जिसे इस युद्ध यहीं
चीखें उसकी आती अब भी
आँसू उसके सूखे भी नहीं
परते पड़ती, बढ़ती ही गयीं

उदास ये मन परेशान है
फिर भी ये जानवर अशांत है
खूंखार है, शर्मशार है
आदत का अपनी शिकार है

अगले पों फट फिर उठेगा
साहस की आड़ में रक्त न्रत्य नाचेगा
मृत मचेगा, मृत बचेगा

एक और टूटी दास्ताँ

थी कायनात,
                  जब जुदा करने को हमे
थे गुमशुदा,
                थामे तेरी बाहों को, इश्क़ हमे


है कायनात,
                कर जुदा तुझे मुझसे
हूँ गुमशुदा,
               बिन इश्क़, बाहों में थामे हमे


क्या मिला कायनात को? क्या मिला मुझे?
मिली तो बस वक़्त को, एक दास्ताँ

एक और टूटी दास्ताँ

Wednesday, July 23, 2014

कश्मकश


कश्मकश से जूझती, पग पग डगर को ढूंढती,
ज़हन में ऐसी खूट थी, मुझको हर पल जो तोड़ती,

खीज खीज चला जो दूर मै, खीच खीच आई वो ढूढ़ती,
हरगिज किया ऊसने खफा,
रूठी यहाँ, रूठी वहाँ,
ये दास्ताँ, वो दास्ताँ


ये दास्ताँ ही और थी, अलग थलग मजबूर थी,
काँटों काँचो की चुभन भरी, गुज़री वो दर्द के हद से थी,

बूंदो बूंदो जो खून बहा, आंसू आंसू बहता वो चला,
जीना तो पड़ा उसके भी बिना,
गर्दिश में यहाँ, गर्दिश में वहाँ,
ये बेजुबान, वो बेजुबान,


ये बेजुबान थम थम गिरा, लप झप उठा और फिर गिरा,
नासूर लिए शिकन के बिना, बदन पे सजा निशाँ वो बढ़ा,

आँखों में फिर भी धुल थी, मंजिल बहुत ही दूर थी,
उसपे भी चला, उस साथ बिना,
जूंझता यहाँ, जूंझता वहाँ,
ये कश्मकश, वो कश्मकश

Monday, July 21, 2014

बदलाव

इन दीवारों पर तारीखे रगड़ गयी
वो रात, ये दिन, कुछ बढ़ चलि

बतलाते, हकलाते, मकसद अधूरे ही थे
पर वो मुकाम की घड़ी यूँ बढ़ चलि


जस्बातों के खिलौने

लोग कहते हैं,
                    खिलौने हैं खेलने को
                    पर जस्बातों से ना खेलो

लेकिन,
            सच तो ये भी है
            बचपना जरूरी है जिन्दगी जीने को  

Sunday, July 20, 2014

तहज़ीब उनकी

वो तहज़ीब थी कुछ अजीब सी
या शायद आदत ना थी अजीज की

नाजुक सी डोर रेशम से बनी
मखमल मखमल लफ्जों से सजी

गुलाबों की कली, गोलियों सी चली
घायल करती पर जख्म नहीं

अदा उनकी, तलभ मेरी बनी
उस शाम कभी जब फिर वो मिली

लबों को छूने को, लफ्ज़ खुद में  झगड़े
हम पे जब बरसे, तब हम भी तरसे

बेखुदी

तहकीकात लगा बैठा मन ये
टूटे टूटे सपनो के शहर मे
ढूँढे तेरे वो निशान

बेखुदी बहिशाब इधर है
चाहूं जितना भी वो कम है
ये जहाँ जी कर भी ना मिला

बेबस का इंक़लाब


चाँद के चेहरे पर जो काले काले निशान है,
सूरज की लाल आग के ये लाल से प्रहार है,
रोया रे चँदा तू खड़े अकेले सबके सामने,
पर छुप गयी आवाज़ वो प्रकाश के अंधकार मे |

सूरज ने फिर बनाई सबपे अपनी ऐसी ढोंस है,
ना सुन सका इंसान, ना सुन सका भगवान है,
सफेद आचरण है, सफेद ये करम है,
कोई जो पूछे सूरज से, तो कहता ये भ्रम है |



क्यों चुप हुआ चँदा रे, क्यों छुप गया चँदा रे,
खट्टे से आँसू उसके सूखे पड़े है फर्श पे,
साँसों मे एक सिसक है, सीने मे एक कसक है,
प्रतिशोध के ज्वाला से जल रहा ये तन है |


कमजोर दिल मे दौड़ती ये रक्त की प्रवाह है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

युद्ध  के शुरू मे एक सन्नाटे की पुकार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

वीर के लहू से भीगी कहती ये कटार है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,

सफेद साडीयों से पूछे सिंदूर के निशान है,
ये मौत का आगाज़ है, ये मौत की गुहार है,


तारों ने सुनी बात वो जो कोई भी ना सुन सका,
लगाई ऐसी घात फिर के सूर्य भी ना बच सका,
खून की लालिमा से बिखरा ये सूर्यास्त है,
चँदा के वारों से कहराई आज फिर ये शाम है|

स्वाहा स्वाहा हो के, आज बन गया वो राख है,
कालिख सा यू बिखर के काली कर गया वो रात है,
उसपे जो चमका चँदा आज बन गया प्रमाण है,
बेबस के इंक़लाब से आज बदला है संसार ये|