Monday, December 28, 2015

खादी

सच्चाई तो बस अब खादी के कुर्तों में बची है
उन्हें पहनने वाले तो कब के खाद हो चुके 

यीशु का हल

मैं 'कान्वेंट एडुकेटेड' कौआ 
'असेंबली' मे काँव काँव करता

उसकी तरफ देखता
वो भी उदास दिखता
जैसे बाहें छुड़ा के भागना चाहता हों
पर ना जाने क्यों उसे एक हल पर टाक दिया गया है

वो झुर्रियों वाली सिस्टर कहती थी
के वो गड़ेरिया है, यीशु है, मसीहा है
"उसने सबका पाप ढोया
इतना ढोया के उसे मरना पड़ा।"

पर मै फिर भी परेशान
आखिर ये गड़ेरिया हल क्यों ढो रहा है ?
भला हल कहाँ का पाप होता है ?
जरूर वो किसान है
मेरे गाओं वाले ताऊ जी की तरह
जो हर शाम कंधे पे हल रखे
ना जाने कौन सा पाप लाद लाते थे
और अपने गुड़ से भीगे, राख से चिपके, होठों से कहते थे
"आजकल खेतों से हल गायब हो रहें हैं
ट्रेक्टर जो आ गए हैं
वो जमीन को बारीकी से चबा लेते हैं"

वैसे आजकल सुनता हूँ
के खेतों से किसान भी गायब हो रहे हैं
लगता है उन्हें भी हलों पर टाका जा रहा है
मसीहा बनाया जा रहा है
पर ना जाने क्यों वो कहीं दिखते नहीं
ठीक मेरे गाँव वाले ताऊ जी की तरह!

मैं छलांग लगाऊंगा

साले! प्लास्टिक से लोग,

जिन्हे तुम जलाओ और मै फूंकु गा

खुद को, ऊपर उठाऊँगा
और ऊपर उठाऊँगा

जहां ये शहर एड़ी के नीचे दबा होगा
और मै पेड़ों की जालियों से कूद
छलांग लगाऊंगा
चाँद तक

यार! अब ये जहाँ अपना नहीं लगता

तो इस लिए चाँद की गोरी मिट्टी पे
अपना जहाँ बनाउंगा

और देखूंगा इस शहर को
फुन्सी से फोड़ा, और
फोड़े से मवाद
बनते हुए

Thursday, December 24, 2015

तनख्वा वाले लोग

मै हमेशा अपनी कम उम्र निगाह से उम्मीद उड़ेल कर उन्हें तक देखता था

"वो ही मेरे हीरो हैं"

क्योकि मै बड़ा हो चूका था और पता था की भगवान एक चिपटी तस्वीर के ज्यादा कुछ नहीं

वो हर जगह रास्ता दिखाते रहते थे

"उधर नहीं इधर, ऊपर नहीं नीचे"

"गिनती कितनी भी आसमान में करो पर नोट हमेशा हथेली पर ही रहते हैं "

मै मानता था की वो भविष्य बता रहे हैं, अरे! वो ज्यादा जानते हैं

पर जब मै खुद वहां पंहुचा तो पता चला की वो बस ज्यादा जी चुके थे

जानते नहीं थे

क्योकि इतना जी के भी मैं खुद ज्यादा नहीं जानता

बस देखता हूँ तो उम्मीद भरी जवान निगाहें जो बहुत कुछ जान सकती हैं

पर मुझे तक रहीं है

Wednesday, November 25, 2015

बोले लाओ एक नाम

बोले लाओ एक नाम
                अगर बनाना है पहचान
कागज पे लिख नाम
                बनाएंगे पँचांग
कागज पे कागज
                पहचान पे पहचान
सजा एक दूजे पे
                बने फाइल के माकन
माकन पे माकन
                बने बहुमंजिली विभाग
विभागों की दुकाने
                दुकानो के बाजार
चल सजा के अपना मंच
                जम्हूरियत नाच अपना नाच

फिर कई रोज बाद
                मै आया ढूंढने अपनी पहचान
बोले लाओ कागज
                कागज जिनके हो दाम
बिन दाम की चीजे
                बदनाम सी कमीजें
जिनको पहने वही
                जिसके ना हो कोई भतीजे
ना बेटे, ना पर्जे
                सब जेबों में कर्जे
इस बाजार में चर्चे
                के एक घटना में घट के
फाइलओं में दब के
               जम्हूरियत मर गयी

जुगनू

कुछ जुगनू निकले थे
           मेरी रातों में
                    सवेरे ढूंढने को

होसला लिए
          के कुछ पल रौशन कर देंगे
                   ये जहाँ इन पत्तियों का

अगर हवाओं से पाला पड़ा तो
         जोखिम उठा लेंगे
                    गले सिराहने तक

और बिछा देंगे दिवाली
        शहरों की
                  जंगल में

जुगनू है उम्मीद है
      बुझ जाये, भटक जाये
                क्या फरक पड़ता है

के सवेरा आन पड़ा है
     और रात पे सूरज का पहरा है

अब उमीदों की जगह कहा है
     इसी लिए जुगनू दिन में नहीं दीखता है 

बोसी बोसी बूंदों से

बोसी बोसी बूंदों से
ये आसमा जमी उतरा है

आज इन सांसों में
फिर कुछ नया है

तुम्हारी बातों में बेहक चल आएं थे, जो सफर
वो मुकाम अब तक अधूरा है

बोसी बोसी बूंदों से
ये आसमा जमी उतरा है

कहने को, कहे
गए, बहुत से दिन

रहने को, रही
नहीं, कोई मंजिल

पर फिर भी
         जीने को
लम्हों से
        पिने को        
अभी तक कुछ रखा है 

बोसी बोसी बूंदों से
ये आसमा जमी उतरा है

सवेरा

बोसी बोसी बूंदो सा सवेरा
ओसी ओसी पलकों पे आ के ठहरा

बोसी बोसी बूंदो सा सवेरा
ओसी ओसी पलकों पे आ के ठहरा

घड़ियों के काटों की
है यही जुस्तजू

पहरों में घंटों की
हो रही है गुफ्तगू

के दिन है फिर से चढ़ा...
थाम लेना ओ खुदा.....

आसमां को घूरता
बोलता ये परिंदा
सूरज को चूमने मै आज फिर से हूँ चला


आईने सा सामने दिन खड़ा है
उमीदों का बरगद हो गया
एक हाथ से जमी को थामे हुए है
चाहें दूजे से बादल छूना

टेहनि पे बैठा हुआ
थोड़ा सा सहमा
मैं परिंदा...

ओ खुदा....
हाथ देना जरा तू बढ़ा

सवेरा...... सवेरा.......
उड़ रहा है परिंदा


Saturday, November 21, 2015

बोले हैं सवेरा

पलकों से झड़ के जो नींद गिरी
रौशनी रेशम सी चादर खीच गयी
आँखे फुदक के जो हैं उठी
सपनों के पंछी ने ऐसी उबासी भरी
शहरों के कस्बों में फिर वही आवाज है
टहलती आई देखो पूर्वा की झोंक है
के दिन है फिर से चढ़ा
बोले हैं सवेरा
आज फिर है कुछ नया
जैसे खुल गया हो उम्मीद का कोई पिटारा

Tuesday, November 17, 2015

पढाई २

ये पागलों का दस्ता
एक और बस्ता

मेरी पीठ पर

पढाई 

खोए हुए लोग

मुझे सब चहरे
     दरवाजे लगते हैं

थोड़े खोए हुए लोग
    पहचाने लगते हैं 

इंसान

होठ पे
       प्यास है

गर्भ में
      सागर

मिट्टी हूँ के सब पी जाता हूँ

मै!
इंसान हूँ 

इस अहद के नौजवान

ठंड से
     फड़फड़ाते होठ

जैसे हवा से पत्ते
जैसे सवाल से जुबान

     इस अहद के नौजवान

के पतझड़ जा चूका है
वसंत से उम्मीद नहीं
बस गर्मी की गुहार है
जो वक़्त के उस पार है


अँधेरे में कविता लिखना

अँधेरे में कविता लिखना
         अँधा होना

औरकों की
        औकात पूछना

बेशुमार
        बेहतरीन

जिस्मी पन्ने

कितना भी लिखो
फिर भी खाली

जो दफन हो, इंसान
तो ये दुनिया एक किताब

और
एक किताब की क्या औकाता 

अंगूर के गुच्छे सी

क्या जिंदगी
        अंगूर के गुच्छे सी ?

पहले मीठी
       बूंदो सी
और फिर
      एक सिकुड़े कंकाल
                     कांटे सी

नरम
    बेकार 

वक़्त से ज्यादा पढ़ी हुई किताबें

ये वक़्त से ज्यादा पढ़ी हुई किताबें
दोबारा दोहरा, कई बार
                      जैसे तुमको

के एक ख्याल भी अब
                      वो कागज
जिसपे नज्म कई बार
                      लिखी मिटाई गयी है
निशान है
          स्याही नहीं
गुद गयी है
         कमजोर
कतरा कतरा होने का
         खतरा है
जो बहुत ज्यादा
         रट ली गई है

मैंने तो कवर की
       परतें तक उचाड़ फैंकी है
के कही कुछ
       नया मिल जाये
पर भूल गया था
       के तुमने लिखना छोड़ दिया है 

हर चीज जो है मुझ पे

बस तुम ही हो जिंदगी
जिसे मै नंगे सीने से लगाता हूँ

बाकि तो हर चीज जो है मुझ पे
बस मुर्दा! मेरी कमीज सी 

चाँद की विरासत

याद है ना तुम्हे
     वो रात जब
           चाँद ने

अपना ताज उतार
     रख दिया था
          हम दोनों पे

और खोल दी थी
     बादलों सी जटायें

मैं देख रहा था
    तुम भूल रही थी

हमने उस रात
    फिर बहुत लम्बी बात की थी

के ये कैसे होता है?
    क्यों होता है ?
          कब होता है ?

आखिर कौन सा
      फासला होता है ?

जब चाँद
    ऐसा फैसला लेता है

तुम्हे शायद पता नहीं
      के मुझे जवाब पता था
पर मैंने उस वक़्त
     तुम्हारी आवाज को ज्यादा तवज्जो दिया था
           
और खो दी थी
    चाँद की विरासत
           तुम्हारे नाम पे

याद है ना तुम्हे
    के याद नहीं

Tuesday, November 3, 2015

मेरी लालच

मेरी तड़प
         मेरी जुबान
                 
लालची
       लथपथ
               लिबलिबी

चखने को


और चख के

परेशान
      रगड़ती
             मचलती

झाड़ने को
        ये स्वाद

मेरी लालच
           मैं
              मेरी जुबान


Wednesday, October 28, 2015

नीले मेघा

ये सावन
       भीगा सा सावन 

झटक के आँचल 
       मुझपे गया 

छोटी सी बूंदो ने 
       फिसल के मेरे काँधे से 
रूह को मेरे 
       छू दिया 

नीले मेघा 
       ओ नीले मेघा 
टप से गिर 
       छप के जा
नीले मेघा 
       ओ नीले मेघा
मिट्टी की
       महक उड़ा


दुनिया सी माचिस

एक कब्र ये डिबिया
हजारों तीलियों की
                       माचिस

हर एक, सर कलम करवाने
जल जाने को तैयार, ये मुर्दों की
                      दुनिया

मेरे नशे के काम आती है
ये जेबों में कब्रिस्तान सी
                     माचिस

ये भी सच है, सट जाये अगर तो
शमशान बन जाएगी ये
                     दुनिया

बुझ जाने पर भी, आखरी शोले तक
पलकें खीच के देखती है ये
                     माचिस

और मेरा घर जलने पर भी
कैसे आँखे मूंद लेती है ये
                     दुनिया

हर बार, रगड़ खाने पर
पहली चिंगारी पर, गुर्राती है ये
                     माचिस

पर चीख पर, मजबूर की
शांत रहती है, ये संटी खायी सी
                     दुनिया
                 
हवाओं से बुझ जाती है
बारिशों में पसीज जाती है ये
                    माचिस

जैसे दीवारों के पीछे
छुप जाती है, पीठ सटा के ये
                   दुनिया

है सस्ती, अठ्ठनियों में बिकती
पर फिर भी है तलभशुदा की मज़बूरी ये
                  माचिस

एक तलभ ऐसी भी है, मसीहों की
जिसके सामने, सस्ती पड़ जाती है ये
                  दुनिया

कभी दत्तों में दबाये हुए
मसूड़ों को खुजलाती हैं ये
                  माचिस

कभी दातों तले चबा जाती है
उँगलियाँ, घबराई ये
                 दुनिया

है लाल,
      हों धुँआ,

बच राख
     सब फूंका

ये माचिस से दुनिया
ये दुनिया सी माचिस


                       

Tuesday, October 27, 2015

इंसान हो गए हैं

जैसे दिवार रिस रिस के
      काई हो जाती है
            आशियाँ हो जाती है
मै भी रिस के
     इंसान हो गया हूँ
            मकान हो गया हूँ

हर दिन, एक दिन
     एक तिनका
           चोच से खीचना
आसान नहीं होता

एक सपना हक़ीक़त में
     हलका नहीं होता

एक दिन में
     दिन और रात होते हैं
सब बराबर और
     समान होते है
फिर उनमे कुछ
     रविवार होते हैं
क्योकि मेरे मन में
     विचार होते हैं
घंटे होते है
     मिनट होते है
          माप होते हैं

पर इन सब के अलग
    एहसास होते हैं
इस लिए ना लम्हों
    के हिसाब होते हैं
मेरे कितने कितने
    आकार होते हैं
कितने भरोसे
    बेकार होते हैं
मेरे दिन के यहाँ
     वैपार होते हैं
रूपये पैसे
     बर्बाद होते है
फिर उनपे बेहेस
     और प्रचार होते है
नेताओं के वैचारिक
     पुलओ होते हैं
हम भाषणों में फिर भी
     जवाब ढूंढते है
गरीबों को यहाँ
     मजदूर कहते है
शहरोँ में होक भी
     बहुत दूर लगते हैं
कर्जों में बंधे
     वो मजबूर लगते हैं

मेरे दिन के
   इतने आयाम होते है
पता नही कितने
   बेकार होते है
पर फिर भी सनक
   हर बार करते हैं
के लोग कहते है
   वो इंसान हो गए हैं
इस शेहेर में बहुत से
   मकान हो गए हैं
थोड़े रिस जो गए है
   पुराने हो गए है
काईयों से पुते पत्थर
   अब खामोश रहते है 

इतना आसान नहीं है

हर रात, अंगड़ाई से
       चादर जो खीच लेती है वो
मेरे ऊपरी कंधे पे ठंड
      आ बैठती है, पालतू सी
मै उसे हटा नहीं पाता,
      एक सौदा वहीँ जम जाता है नींद का

मौत
     कुछ यूँ सोती है मेरे बगल में


दिन में  जब परछाईं सहम के
     सिकुड़ जाती है
वो गर्दन के
      सिराहने बैठ
 हर पल को विडंबना बना
       फुसफुसाती है कान में

मौत
    तब बहुत काइयां लगती है


जब लिखते लिखते
   मेरा दायां हाथ
बहिने का क़त्ल करना चाहता है
   के क्यों इतने
निरस्त हो ? मुर्दा हो ?
   सवाल गूंजता है

मौत
    तब बहुत हस्ती है मुझपे


वो नाचते हुए आती है
    मेरे कन्धों को छू नाखून से
गुदगुदाती ऐसे
    के हसी भी आये
और सहा भी ना जाये
    तड़पता, मै

मौत
    मुझसे ज्यादा खुस नजर आती है    


जैसे अंधेरा
घने पेड़ों के नीचे
रौशनी में
गुमनाम रहता है

चाँदनी, रात में
सर्द हवा से
दात कटकटाते पत्तों पर
सुनसान रहती है

वैसे थोड़ी मौत जिन्दा रहती है
         जताने
के जिन्दा रहना भी
     इतना आसान नहीं है



Thursday, October 8, 2015

नसीर शाह - 2

तेरे माथे की लकीरें
          मुझे किताबें लगती हैं
आवाज की खराशें
          मजारें लगती हैं
जिन्हे पढ़ के, सुन के
         दुआएं लगती हैं

तेरे कमरे की दीवारों पे
         तस्वीरें चलती हैं
मुझे पता है तेरी मेज पे
         कहानियाँ पड़ी है
जिन्हे चख के, तुमने
         ये जवेदानियाँ रचीं हैं
       
के तुम ही हो
          जिसकी कला
           मेरी आराम कुर्सी
           जिसपे टेक
           सर लगा
           जिंदगी
           चाँद देखती है

के तुम ही हो
          वो इत्र
          जो लग जाये
          तो महकें
          हर बार, बार बार
          जेहेन में
          खयालों में

के तुम ही हो
         वो टेढ़े मेढ़े से
         चित्र
         गुदे हुए
         आखरी पन्नों पे
         जो हंसाते हैं 
         जब तुत्तलातें हैं


के तुम ही हो
         भावनाओं के सौदागर
         मेहफ़ूज़ रखना खुद को
         के भावनाए
         बाजार में
         बिकती नहीं
         मिलती नहीं


Monday, September 21, 2015

है ये दंगा

है ये दंगा
       आधा नंगा
                आ के तुझको
                              घूरता

के किस गली में
      काला कौवा
               खाएगा
                     तुझे गोश्त सा

कट गए हैं
       जो ये जन
             तो छिल गई
                     अबादियाँ

सड़कों पे
       चिपकी जो हैं लाशें
              सुखी सी हैं
                     पपड़ियाँ


क्या पड़ी है
       जो अभी तक
              तू उसे
                      खुजला रहा

नासूर
       होते हैं ही ऐसे
               ना पता था
                     तुझको क्या ?

तेरे सपनो
       का चमन
              आँखों में
                      दिखता था ?

खामोश रहते
       जैसे मुर्दे
            चीखता
                      दंगा यहाँ ?

बस चीखता दंगा यहाँ
बस चीखता दंगा यहाँ



  

Friday, September 4, 2015

रक्षा बंधन

तुम, मैं
     एक कोख के दो टुकड़े
                   अलग, बिखरे
जैसे मिट्टी के बर्तन
      टूट के भी एक से नहीं दिखते

रिश्ते एक जगह हैं मेरी 'शेल्फ' पे
जहां कभी मैं और तुम
बगल बगल मे थे खड़े
                 किताबें
अब तुम में दिलचस्पियाँ हैं
               मुझमे आदतें
इस लिए बीच मे हैं
               और किताबें

मैं अब
कभी कभार झांक कर देखता हूँ
जितनी भी दिखती हो, खुश लगती हो
वैसे भी इन सटे कागजों में
अंदर के फटे कागज दीखते नहीं
और लोग आज कल किताबें पढ़ते नहीं

वो हमारी खिलौनों की टोकरी
किसने उड़ेल दी है
उसमे वो गुड़िया
जिसकी एक आँख झगडे में टूट गई थी
वो एक आँख से अब भी देख सकती है
के बचपन बच के भी
कितना कम बचा है
के अब तक बहुत कुछ बिक चुका है
बहस करने को कितना कुछ बचा है
पर, अब हम दोनों को खुश रहने का
शायद, थोड़ा नशा हो चुका है

याद है वो एक रस्म समाज की?
प्यार माँ का
तोहफा तुम्हारा
रक्षा पिताजी की
और
बंधन मेरा

तुम्हारी बचपन की राखियों के धागे
तो अब तक मिट्टी हो चुके होंगे ना
पर उस पर चिपकी चमकीली प्लास्टिक शायद नहीं
के प्लास्टिक कभी गलती नहीं
और बंधन का मुझे पता नहीं

Thursday, September 3, 2015

हरगिज

के कभी भी
के नहीं भी
        हरगिज
        क्या हो सकता है ?
                  धक्का है?
                  अँधेरा है ?
         बस
                  कुछ है
                  भरोसा है

माथे से फुट के भी
        हरगिज
        किसकी महनत है ?
                    पसीना है ?
                    खून है ?
         बस
                    कुछ है
                    बहता है

दुःख के भी
         हरगिज
         कोई चोट है ?
                लाल है ?
                दबा है ?
         बस
                कुछ है
                जिस्म है

क्योंकि, मुझे डर है भी
        हरगिज
         के यहाँ हालत है ?
                   हलक है ?
                   निवाला है ?
           बस
                  कुछ है
                  भूख है

परिंदा कुछ चोंच में दबाए है भी
            हरगिज
            वो नशेमन है ?
                गर्दन है ?
                अफ़सोस है ?
          बस
                कुछ है
                परेशान है

के …
     की … 
          की …
                  मैं …
भागता ना रह जाऊ
ढूंढते ढूंढ़ते

हर साल, एक दिन

हर साल,
         एक दिन
पत्ते दर पत्ते,
         हर्फ़, हर हर्फ़ 
पढ़ता हूँ
        याद करता हूँ
लिखावट अपनी
        बसंत की
अब तो हो गई
       ये आदत भी पुरानी
 
कहानी हमारी

हर साल,
        एक दिन
मैं पाता हूँ
        के छाँव बढ़ जाती है
पेड़ की
        उम्र सी
फिर तितलियाँ आती है
        शहद, पिछले मौसम की
मै थोड़ा भुला देता हूँ
        मै थोड़ा बढ़ा चढ़ा देता हूँ

कहानी हमारी

हर साल,
        एक दिन
मैं अफ़सोस करता हूँ
        जो इतना कम मिलता हूँ
बस इतने में
       काम कैसे चलता है
पर देखो हर दस्तक
       ये दरखत खड़ा रहता है
नीला पड़ जाता है
       फैल जाती है स्याही

कहानी हमारी

हर साल,
        एक दिन
थाम कलाईयाँ
        डालियाँ
पतझड़ से पहले
        सूख जाए
बर्फ कर लेता हूँ
        सब ख़याल
के सर्दी के बाद
        फिर लिखनी है

कहानी हमारी


Sunday, August 16, 2015

तो अब खो भी दो इसे

दिन अच्छे भी होते हैं
      लोग बुरे भी
            मगर जिंदगी नहीं

तो
अब खो भी दो इसे

किसी के हो भी गए
    तो लिफाफों में, दराजों में
            बीत जाएगी

किसी के ना हुए
    तो यूँ ही
           धूल बन जाएगी

ये सजावट
    जैसे तारों की
           हर दिन

तो
अब खो भी दो इसे

भला ये किसके काम आएंगे

जैसे बरसात का पानी
      बारिश के बाद
वो चमकीला कागज
      उपहार के बाद
जिस्म की मैल
      धुलने के बाद
मेरी ये बात
      जुबां के बाद

दिन अच्छे भी होते हैं
      लोग बुरे भी
            मगर जिंदगी नहीं

इसी लिए

मै मरने का ख़याल भी
      रातों को लाता हूँ
के आँखे बंद करने से
      डर लगता है

Thursday, August 13, 2015

तीसरी मंजिल का कोना

वो 'स्ट्रीट लाइट'
             पेड़ के पीछे वाली 
पत्तों की पलकों से मुझे अनदेखा सा करती है 

मैं पीला पड़ जाता हूँ 
            हर रात उसकी रौशनी में,
                                   बीमार 

पसीजा सा मेरा बिस्तर, 
एक गीली जमीन सड़ने को 

मैं सराबोर
       वंचित आसमान 

जो दीखता तो है मगर कोई छू नहीं सकता 

या 
वो खिड़की के बहार 
तीसरी मंजिल का कोना 

जिसे छू तो सकते हैं मगर कोई कोशिश नहीं करता 

मैं सराबोर 
      वंचित सपना 

हाँ !
    वही तीसरी मंजिल का कोना

Sunday, August 2, 2015

वो काल मेरे चेहरे पर

स्याह रातों पे
            स्याहियां फेंकते थे
                             हम तुम

इंक पेन से
           और जो हाथों पे
                            फ़ैल जाती थी
तुम कहती थी
          अपने बालों पे पोछ लो
काले में काला
          छुप जायेगा

मै बारिशों को
          भूल गया था

वो काल मेरे चेहरे पर
          साफ़ दिखता है
                          सभी को
बस मुझे नहीं

के तुम थी
          तुम हो नहीं
स्याहियाँ सूखी है
          खत्म नहीं हुई
बादल सूख गए है
          सफ़ेद से, पर है वहीं
मुन्तजिर है, दवात के
         जो रात फिर कभी हुई नहीं

Tuesday, July 28, 2015

धार पे धार का भार है

यहाँ हर धार पे धार का भार है
के टूटे शीशों से पूछो कौन कितना बेकार है

ये अक्कड बक्कड़ कर धीरे धीरे गिरता है
मुझे नहीं पता ये किसे घूरता है

इस जख्म पे
            हर सहलने वाले के
                                खून का निशान है

यहाँ हर धार पे धार का भार है
के टूटे शीशों से पूछो कौन कितना बेकार है

ये चबा चबा के रोशनियाँ चटका देता है
जाल सा है बस शिकार का इन्तेजार है

जरा ध्यान रखना
           इस मुस्कान के पीछे
                                नोकीले दांत है

यहाँ हर धार पे धार का भार है
के टूटे शीशों से पूछो कौन कितना बेकार है




Monday, July 27, 2015

मौत गन्दी रेत सी

मै एक गिलास में भरा
       रेत का मैला
                गंदा पानी

हर हालत, झकझोर हिला
       मिलाने को
               परेशान कब से

और हुँ भी तो क्या
       मटमैला, और मै

कब से संभव हूँ
      सम्हालते
              ये हिलकोरे

सुखा ले जाती हैं
      जब ये हवायें
              मेरे नम चहरे

हस के मुझपे
      के स्थिर
ना हूँ, ना हूँगा कभी
ना छटूंगा मै
ना बैठे गी ये रेत

बस यू ही
     उड़ती रहेगी भाप
              साँसों की

और अंत होगी
     मौत

     बची
         गन्दी रेत सी
                

मै मसीहा.... ना बन सका

मेरा बचपन
        उंगली पकड़ के 
                साथ ही साथ चला

हर उम्मीद की हद पे
       बिदक के रोया

जो
  मै मसीहा....
  मै मसीहा.... ना बन सका

जो जवानी बाल झाड़ के
        आई है
              सर पकडे

कहती कैसी सी दुनिया
        सब सपने गलत थे

जो
  मै मसीहा....
  मै मसीहा.... ना बन सका

दो खाली गढ़ो सी
        घूरे
            कंकाली आँखे

हर मौत से पहले
        बुढ़ापा सठियाएं

जो
  मै मसीहा....
  मै मसीहा.... ना बन सका


कोई कहता है तू
       बन जा इंजीनियर
कोई कहता है तू
       बन कुछ शरीफ
कोई कहता है
       style में रेह
कोई कहदे
       don't be cheap
केह दे कोई
        बदल थोड़ा तू मेरे लिए
कोई कह दे
        ये दुनिया है कुत्ती चीज....

Shut up .... Shut up .... Shut up ... Shut up..........

जो भी हूँ, जैसा, जहा भी
मेरी जिंदगी ये सबक

के तू मसीहा…
   तू मसीहा…

ना बन सकेगा



 

Sunday, July 26, 2015

कोई सामान लौटा देता

चालीस साल बाद
          कोई किसी की लूट का
                         सामान लौटा देता

तो कीमत से ज्यादा
          यादों का हिसाब होता
अश्कों की कमाई होती
माफियों का कर्ज माफ़ होता

जो
चालीस साल बाद
          कोई किसी की लूट का
                         सामान लौटा देता

तो जवाबों से ज्यादा
          मुनासिब सवाल होता
वो भलाई नहीं होती
दिलदार करार होता

जो
चालीस साल बाद
          कोई किसी की लूट का
                         सामान लौटा देता

खोई हुई उम्मीद का
          मजाक उड़ा होता

हैरानी, चीख सी होती
पर ठहाकों से समाधान होता

जो
चालीस साल बाद
          कोई किसी की लूट का
                         सामान लौटा देता

खामोशियाँ, कुछ तो कहो

कुछ तो कहो
         उस बीते हुए दिन पे
                       या रात पे
इस लम्हे की कगार पे
उस मुंडेर पे लटकी तुम्हारी गीली सलवार पे

जकड़ी हुई पड़ी है
          मुझे सर्दी लग रही है
                       खामोशियाँ

ये हवाएं तक
         जंगल जा कर
                      कुछ कहती है
पानी कलकला उठता हैं
                      बहते वक़्त
बादल भी आकर बदलते है
                       होठो के

कुछ तो कहो
          मेरी नज्मों पे
                     उस अंग पे
भाप से शीशे के निशान पे
दरारें नहीं, तुम्हारी उँगलियों की छाप पे

मै सूख रहा हूँ
        ख्याल रौंगटे खीच रहे हैं

कुछ तो कहो …
         या रुको

चुप ही रहो
         ये शब्द तुम्हे
                   बिगाड़ देंगे

बारिशों के नाम

बूँद गिरी
      हुई है हरी
             जमी भीगी

हाँ! खीच गयी
      लकीर, जो थी
              हसी मीठी

https://soundcloud.com/chaitanya-praveen/an-ode-to-bangalore-rains


तुम और चाँद, और एक रात

चाँद जो गिरा है
        रेत पर बिखरा है

चमकता है
        फिसलता है

जैसे मेरे हाथों में
        तेरा दुपट्टा है


ठंडी हवाएं
        जुल्फों से मेरे गुजरें

जैसे तेरे उंगली
        कान के पीछे से, चुपके से
                                  खेले


तेरे झुमकों से जो
         झूल कर गया है

मेरी सांसो का एक
         काफिला है

टुटा है, छूटा है
         तेरे कंधे पे ही पड़ा है


Wednesday, July 22, 2015

किनारों सी लड़की

वो किनारों पे खड़ी
         सागर को तकती सी
                                 लड़की

वो लम्बे से, फैले से
         आसमान को जमीन तक
                  गिला करते से पाट
                                  उसकी मुस्कान

वो आती हुई हवाए
        उसकी जुल्फें, एक दूसरे पे
                                चढ़ती, उछलती सी

वो हस्ती थी
       जब जाती हुई लहरें
                  मिट्टी खिसका के
                               उसके तलवे गुदगुदाती थी
                               
वो.…
    शायद खुद एक किनारा थी

वो अक्सर शांत रहती थी
     सीपियों सी
जिन्हे उठा कर
      दूर, बहुत दूर
            ला दिया गया है
                         शहरों में
मगर
     कान लगाओ तो
             लहरें साफ़ सुनाई देती है

उसने चलना तक रेतो पे सीखा था
इसी लिए, तारकोल की सड़कें उसे चुभती थी

उसे शहरों में भी किनारे ही पसंद थे
      हाँ! वहीं जगह जहां फूल जंगल से महकते है
                परफ्यूम से नहीं

मै हस देता था उसपे
       बाजार के शोर सा
                 मजाक उड़ाने को
वो, समंदर सी
      हर बात को कहीं डूबा के
                  ठंडी लहर सा लौटा देती थी


वो.…
    सच में एक किनारा थी
             शांत, सुकून सा किनारा
                                         सागर का

क्योकि, जब भी मै
             इस शहर सा धुएं-धुएं
                            पिली आँखों में शाम को ले कर
                                         बैठता था
वो हाथ पकड़ कर कहती थी
" चलो, किसी किनारे को चलते है "


Tuesday, July 21, 2015

पलायन, भाग किससे रही है ??

वो घबराई, डर से
      अचानक कूद के सड़क पे

यूँ दौड़ने लगेंगी नंगी सी

मेहफ़ूज़ नशेमानो ने
       सोचा भी ना था

वो शोषित शोषण सा हवलदार
      मजबूरी और अपराध को नापता रह गया तराजू पे

वो भाग निकली

एक स्वेत स्वछ धोती ने
      ताना कस के छुटकारा पा लिया
             इन हिज्रति हरामियों पे

और पीछे से
     शरमाते पर्दों से झाक कर भी देख लिया
            तरस खाती ममताओं ने

रिक्शे पे, गुलदस्ते से सजे स्कूली बच्चे
     तो हस पड़े उसपे
             रिक्शेवाले ने रिक्शा घुमा लिया

कुछ समाज के अखाड़ेबाजों ने
         चीखा भी 
            और फिर पागल करार कर दिया

वो भागती रही

एक कपडा भी ना फैका गया किसी से
      समझ और हरकत में फासला बहुत था
             और वक़्त कम

वो काली बिल्ली भी नहीं थी
      जो रस्ता बदल के संतोष कर लेते
              हैरान थे

वो पूरी की पूरी औरत थी
      जिसका शरीफ
           सिर्फ जेहेन में, अंधेरे में चीर हरण करते थे

वो भागती रही

किसी ने मजाक बना के
       दातों तले समोसे में
            दबा लिया

तो किसी ने
        'लैमिनेटेड' शीशे चढ़ा के कारों में
              अँधेरा कर लिया

शाम तक
       एक रिपोर्ट भी ना दर्ज हुई
             थाने में

शायद सबके पास
      अपनी अपनी वजह हैं
            उसे, ना याद रखने की 

वो भागती रही, दिनभर
       शहर की पीठ पर
               एक हंटर के निशान सी

और
     फिर भी किसी ने ना पूछा

के ये पलायन
      भाग किससे रही है ??


बस की आखरी सीट पर

बस की आखरी सीट पर
       दोनों कलाइयाँ उलझाए
                  बैठे थे

सावन की छोटी बुँदे उसके गाल पे
कंधे से लटके इसके हाथ पे
         आ आ कर एक एहसास जाता रही थी

दरीचे के खाली कोने से
        आने वाले कल को
               वो दोनों ढूंढ रहे थे

ये सोच रहे थे
     हर कल
            ये पल
नसीब होगा के नहीं

बादल क्या सोचते होंगे?

वो जंगलों के पेड़ों से गुदगुदाए हुए बादल 
जब शहरों के छज्जों की अरियों से रगड़ते होंगे
         तो क्या सोचते होंगे ??

क्या पीठ पर पड़ी सी खुजली की राहत
   या
        खटमलों की डँसती सी खजुहट की आहत
               या
                     एक्यूपंक्चर थेरेपी
                             या
                                    फटा हुआ गद्दा बिना रुई

क्या

      आखिर क्या !!


Monday, June 22, 2015

सपना जरूरी है

हर जहाँ मुकमल करना मुमकिन नहीं
आँखों को जागना है तो सोना जरूरी है

हाँ,
    कभी कभी,
हक़ीक़त से ज्यादा सपना जरूरी है

जिन्दा सा होने का मजाक

ये कौन है जो झल्ला कर
      मेरे जांघों की जेबों में
           हाथ फैला
झकझोर देता है
      घबराई टांगों को

थाम के चाबूक
      मेरे हाथों की नब्ज के
काबू करता है मुठि में
      थरथराती उँगलियों को

हाँ ! वही जो
     जम्भाइयों में मेरी
          खींचता है लम्बी साँसे
जैसे कब से डुबकी लगाए
          बैठा हो मुझमे

वही, एक अचानक सा
        झटका सा, खट्टा सा
                एहसास, माथे के पीछे
गर्दन के नीचे
        एक अचानक के होने का

वही! जो पपोटों को बारीकी से सटा
        रफू कर देता है
             इतनी सफाई से
हक़ीक़त हो सपनो में
        के में खुद पर सक करता हूँ

वही! जो भर देता है घुंघरू
        तलवों में
             झुनझुनी सी
जो बजती है, जब अचना उठ चलता हूँ
       सुनाई नहीं देती

हाँ रे वही!
        जौ फेफडों मे अटकि सांसों को उबलता है
                  मैं जब हांफता हूँ
के पतीले छोटे पड़ गए हैं
        रफ़्तार थाम लूँ

ये कौन है आखिर
       क्या मेरे दो अनन्त के बीच का अथा ?

वजूद
      मेरे जिन्दा होने का ?
               या
      बस एक जिन्दा सा होने का
                                              मजाक ?



Wednesday, May 27, 2015

मै तुम्हारे बारे में कुछ जानती हूँ !

मैं तुम्हारे बारे में कुछ जानती हूँ !

क्या ?
      पता नहीं क्या ?

वो....
वो तो नहीं जानती ?
     या ,
           ये तो नहीं ?

वो वाला सच
     जिससे मैं खुद को अँधेरे में अकेले देखता हूँ

या वो वाला सच, खुले छोर के कुएं सा
        जिसे मै बस झांक के चला गया था
                    उसमे कूदा नहीं

या वो साँचा जो किसी और ने बनाया
        अभी तक तोड़ा नहीं
वो ग़लतफहमी थी!
        पता नहीं, पता नहीं

या वो डर
       जिसे मै जूते के तिरछे कोने से मसल गया था
उसकी राख की काजल
       किसी ने लगा तो नहीं ली

कहीं! वो वाली मरी सी आवाज तो नहीं
       जो रात में उठी थी
अरे यार! वो तो बस
        मेरे कन्धों की रगड़ थी

या वो फर्श पे
       फैली सी गलती
जो साफ़ तो की थी
       पर दीवारों पर छींटे भूल गयी

बड़ा ही अजीब माहोल है
       यहाँ सूरज
नाही ढल रहा है
       ना ही उग रहा है
बस फलक के हलक अटका हुआ है
ये उषा की छलांग है?
      या साँझ की डुबकी?

मेरे आँखों के छप्पर पे
      कई जम गयी है
             गंध मार रही है

बहुत नींद आ रही है
       फकत
            अभी तक
                     तुमने बताया नहीं
कि तुम मेरे बारे में क्या जानती हो ?

ऐसे कैसी, कहानी अपनी

जाने कितने, पत्ते टूटे
डालियों से, अपने छूटे

ऐसी , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

तारकोल की, बिछा के चादर
घुमा के पहिये, गाड़ी निकली

धुँआ धुँआ है, हवा हवा है
भूली बिसरी बातें निकली

ऐसी , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

पानी के चेहरे पे,
      ऊँगली से छू के
जो हिलकोरे, हमने थे छोड़े
      आज लहरें बन लौटे

चुपके, दुकपुका के
      आंसू जो निकले
हमने हवाओं से थे जो पोछे
      आज सावन बन लौटे

जितनी भी है
      माकूल है हम उसमे
टेढ़े मेढ़े सही
      आके अटके हैं हम तुझमे

कुछ माफ़ कर दिया है
      कुछ साफ़ कर चले
खामोशियों के पानी से
      यादें घोट चले

ऐसे , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

तिनको की, बना के मुट्ठी
उठा के फेंकी, हवा में फैली

ऐसे , हाँ.… हाँ.....  कैसी
       कहानी अपनी

पाव फैलाओ चादर नाप के

हाँ! मैंने सुने हैं लोगों के
     कच्चे अंदाज में, वो पक्के मुहावरे
के पाव फैलाओ अपने, चादर नाप के

पर हमारी तो जमीन इतनी लूट गई
के चादर लम्बी रही
     पर फूटपाथ छोटी पद गई

आप कहते हो पाव समेट लो
     जिंदगी के नाम पे
हम तो परछाईंयां समेट लेते है
     हर शाम
अब तो रौशनी दो!

Monday, May 11, 2015

ये गुस्सा

ये माथे से कूद कर
       जो नाक पर आ चढ़ा है

ये गुस्सा
      चाय में नमक सा
               बड़ा अटपटा है

वो रुकता नहीं है वहीं पे
      खुदी को पकड़ के
              गोता लगाता है

और जब गिरता है जमी पे
     तो चिपटे फटे आंसू सा
             दिखता है 

वो मंच, मेरा चबूतरा

टेढ़ा मेढ़ा खीच खांच के
इन शब्दों के चबूतरों पर
जब भी मैं खड़ा होता हूँ

बहुत डर लगता है
टूट जाने का
गिर जाने
बड़े सहज से रखने पड़ते हैं
अक्षर

किसी ए ओ औ पे
लड़खड़ाने का भय
तो किसी छोटी बड़ी ई
पे फिसल जाने का

कुछ बिंदु फ़ांस से
चुभ जाते है अगर
ध्यान भटक जाए तो

पैर अटक जाता है
उन शब्दों के बीच
अगर कदम छोटे पड़ जाये तो

उछलना भी आसान नहीं
कहीं ऊ से ना भीड़ जाए सर

हर बार रखने के बाद सोचता हूँ
के ये चन्द्र बिंदु की टोकरी उठाऊ या नहीं

इन सब के बाद भी
कुछ लफ्ज रह जाते हैं अड़े हुए

तो उन्हें भी ठोक ठाक के पैरों से
बड़े लहजे से चाट चाट के
कोमल करना पड़ता है

और जो कटे छटे गलत
चबाए हुए, थूके हुए से शब्दों
को साफ करने के बाद
जो कुछ भी दीखता है

वो ही मेरा मंच है 

Tuesday, May 5, 2015

कागज रंग रौशनी

कागज ने माँगा रंगों को
       रंगों ने रौशनी
बिन रौशनी, रंग नहीं
       ना कागज की ही खुदी

आँखों की थूक

आँखों की थूक,
सूखी सी,
        उबले गिरे दूध सी

सपनो की मलाई,
पलकों को खिचती,
        रोकती हुई

रौशनी की परछांई,
रौंदती हुई, तोड़ने
       नींद को

जेहेन की जंभाई
पपोटों को मीज
       जगाती

उसे जो रात भर बेसूद थी
    मेरी जुबान
          ये बोलने

"मुझे यकीन नहीं करना
     के मै जिन्दा हूँ
मुझे यकीन यही करना
     के मै जी के भी एक
              सपना हूँ "

वो तालियों से पिटा है

कागज पे चीनी डाल कर
   चबाने की कोशिश की है
अनजाने रहने की जिद पे
   उसने ये हद की है

ये मांस का गुदा
   हड्डी का गुथ्था
गरम रहने को
   किस किस की जेब में ना रहा

पोशम्पा, रिंगा - रिंगा पर
   झूम झूम कर गिरा
इसी बेखुदी में रहने को
   सांसे काली कर पी गया

किसी बूढ़ी लंगड़ाती सलाह के
   अनुभव पे चल के
वास्तविक्ता से वो बस
    दो कश दूर रह गया

वो जानवर है
    दांत हैं उसके पास
पर बस वो चबा सकता है
    काटना मना है

'ट्रेडमिल' पर वो
   बेतुका सा दौड़ता है
किसी की आँखों में अटकने को
   खड़े खड़े भटकता है

एक 'पोर्ट्रेट' बनाने 
  वो भी सच्चे प्यार की
सिंदूर में डुबाए 'ब्रश' को पकडे
  नाजाने कब से खड़ा है

बूह लगती है उसे महक अपनी
   वो धोता है, रगड़ता है
पर हर गुजरती हवा में, गिरेबान से
   किसी को ढूंढता है

और फिर
    जब वो मनचाहा किरदार बन
             मंच पर चढ़ा
    तो तमाशे के अंत में
            वो तालियों से पिटा है

अब
    जब लोगों की समझ से दूर
          वो चाँद को घूरता है
    हर हरकत को बूझता है
           शर्मिंदगी नहीं, अफ़सोस नहीं
बस घूरता है

चाँद को
       घूरता है

Saturday, May 2, 2015

शाम, सावन की

एक बिल्ली ने पंज्जा मारा है
तो ये बिजली चिंगारी सी कड़की है
वो चाँद नाख़ून सा गिरा पड़ा है
थोड़ा गहरा कटा है
जो खून बादलों पर छीटा है
हाँ वो रो रहा है
गिरती बूंदो से साफ़ पता चल रहा है


एक बंजर मेरा तुम्हारा

मैंने एक चाहत में
             उसका कुछ बिगड़ा
उस्ने मूझे उजाड़ के 
            अपनि राहत को पाया

क्योकि जो भी था "मेरा"
           वो था उसके लिए "तुम्हारा"
और जो लगा उसे "अपना"
           वो ना था मुझे "प्यारा"

वाह री हिमाकत
          तुझमे है कितनी ताकत

सब लगे थे चमन गुलजार करने
खुद के खयालों को अमल कर के

भिड़े लड़े, 
शहंशाह भी बने
पर बेजार बंजर के




Saturday, April 18, 2015

गीला सूखा पत्ता

हर ख़ुशी में खुश
              हर गम में कम होना
                         छोड़ दिया है 
हाँ मेरे खुदा
           मैंने खुद को तंग करना
                         छोड़ दिया है

हर धड़कन की
          दस्तक का हिसाब लेना
                         छोड़ दिया है 
हाँ मुस्कानों का भी
          बोझ उठाना
                        छोड़ दिया है

उन लम्बी सांसो से
         अफ़सोस जाताना
                       छोड़ दिया है 
हाँ अंधेरों में रौशन दरीचों पे
         उम्मीद लगाना
                       छोड़ दिया है

घबराई सी नब्ज दबाए
         हर ओर भागना
                      छोड़ दिया है
हाँ खुद को पागल मान
        समझदारों की महफ़िल आना
                      छोड़ दिया है

लोग पूछते हैं
       कहाँ रहते हो तुम आज कल ?
 और  फिर मेरा जी भी बहुत करता है
             उन्हें बताने का

के कैसे मै सुकून के तालाब में
       गीले, सूखे पत्ते सा बहता हूँ
पर पता है वो मानेंगे नहीं

सो उन्हें बताना भी मैंने
       छोड़ दिया है


Tuesday, March 17, 2015

ये रिश्ते

ये रिश्ते पहरन हैं

हर बार रगड़ने से चमकेगे नहीं

फट जायेंगे

मुझे मेरे तालीम की फ़िक्र बना दे

मुझे मेरे तालीम की फ़िक्र बना दे
हाँ मेरी पहचान से मेरा जिक्र करा दे

मुझे इन्सां से इन्सां का फर्क बता दे
इन बेबुनियाद अफवाहों का तर्क समझा दे

इस जहन्नुम से जन्नत के हलक फसी जमी
ये जमी को इस खराश से निजाद दिला दे

हाँ मेरे खुदा बस इतनी सी हरकत करा दे
मुझे मेरे तालीम की फ़िक्र बना दे

सुकून

सब कुछ भी जान के
               इतना उदास है
इस मन में नजाने
              कितनी प्यास है

आधा गिलास पि कर कहे
             आधा ही बाकी है
और बाकि आधा भरने की
            हिम्मत भी लानी है

सांसे लूँ के, गला सूखे
             ये भी परेशानी है
बेवजह वजह ढूंढने की
              इसकी बीमारी है

फ़िक्रों की मजलिस में
              दिन भर जब रोया
शाम को बारिश की बूँद पे
              गिलास ले दौड़ा है

हाथों से फिसल के
             ये मौका जो टुटा है
वो चुपचाप जा कर फिर
             सुकून में सोया है

Saturday, February 28, 2015

कितना मीठा है

अपने जेहन के भगौने में ये
ख़याल उबाल उबाल, खोया बना

एक मिठाई सी नज्म में परोस रखा है
जरा चख कर बताना के ये कितना मीठा है

Friday, February 27, 2015

जो भी चाहो

मै पैदा होने का क़र्ज़ बीते वक़्त से चूका रहा था
मै बीते बरस के मातम का जश्न माना रहा था

ये आधा काला कोयले सा
ये आधा जला सफ़ेद राख सा
दो हिस्सों में बटा
कटा वक़्त मेरा

मै तो ये मान के बैठा था की ये आग कल की
कब की बुझ गयी होगी
पर वो एक चिंगारी
हवा से उठ के आई
जैसे किसी ने झोका हो मेरी ओर

 फिर पूरा दिन
मेरा मन उसमे जल जाने की जिद में दौड़ा
और मै उसे सम्हालने की

जब थकी पलकों तले
असू को नींद में सान के
मै सो रहा था
तब एक रूठी आवाज ने बस ये कह कर उठा दिया
"तुम  हर वक़्त, जो भी चाहो, वो मिल नहीं सकता " 

एक रसोई का दरीचा

एक दरीचे ने उनके बीच हुए झगड़े को
मेरे नजरों में बैठा दिया
हफ्ता बीत गया है वो दरीचा फिर नहीं जला

'फ्रीजर' में उनके कितनी बर्फ जम गयी है
कोई उसे उँगलियों से खरोच के निकालने वाला नहीं है
लगता है उस घर में कोई बच्चा नहीं है

Friday, February 20, 2015

श्श्श्श्श्श्श्श्स………

वो छत पर गयी थी ये सोच कर के
           सिसकियाँ हवाओं में श्श्श्श्श्श्श्श्स………
                                                    हो जाएँगी

हवाओं ने उसके आंसू तो पोछे
         पर सिसकियाँ हर तरफ फैला दी

मेरी पूरी रात बीत गयी उन्हें इक्कठा करते करते
         उस मिट्टी के गुल्लक में भरते भरते

ये सोच के की किसी दिन फोडूंगा इन्हे
        याद करने इस रात की
                                        तन्हाईयाँ तेरी
                                                        खामोशियाँ मेरी

बाबा का दूसरा बचपन

बाबा हाँ मैं मानता हूँ
        की अब फिर बचपन जीने की तेरी बारी है

जिद करके, लड़ के
        परेशान करने की बारी हैं

मै चिढ़ता हूँ इस बड़े होने की अकड़न से
        पर पता है वक़्त से तो मात खानी है

इस`खिजन का कारण मेरा हसीं बचपन ही है
        जिसकी क्यारी तुम्ही ने छाटी है

मेरे परवरिश में`रखे तिनकों की नजाकत
        हाँ बस तेरी ही मेहरबानी हैं

एक माँ, एक तुम, और गोदी में बैठा मै, तो हम
       पर इस पूरे समीकरण में न मेरी कोई मनमानी है

बाबा हाँ मैं मानता हूँ
      आज तेरी मारफ़त मेरी जिम्मेदारी है

पर अपने इस दूसरे बचपन की मीयाद में
      तुमने अजीब सी जिद कर डाली है

जो इस नयी समीकरण में तुमने
     अपनी माँ चुन्ने की ठानी है


       

Thursday, February 12, 2015

वो कितनी दूर उछला

मैं कंकड़ उठा उठा
             तलाब मे फैंक रहा था

हाँ! देख रहा था
             के कौन सा
                     कितनी छलांग मरता है
                     के कितनी दूर जाता है
                                         डूबने से पहले

फिर वो हथ्थे चढा
             और छूट भी गया

जब तक मै सम्हलता
             वो तो खो भी गया

पता है
      इतनो मे
             बस वो ही एक निकला
             जो उतनी दूर उछला

मेरे लिए
       डूबने 

शायद और अच्छा

खुद को जोड़ जोड़ कर
                बनाने के बाद
                               कई बार तोड़ा है मैंने

ये सोच के की
               अगली बार
                              और अच्छा बनाऊंगा

पर हर बार उतना ही
               ख़राब, बर्बाद रहा मै

अब सोचता हूँ
              छोड़ दूँ ये तोडना जोड़ना

के मै शायद
             और अच्छा
                              बन नहीं सकता

Tuesday, February 10, 2015

साहित्य का मरघट

इस साहित्य के मरघट में
               न  जाने कितने
                              मुर्दे गड़े है

इनकी खालें गलती नहीं
               मांस इनका पिघलता नहीं
                               बस स्थिर पड़े है

जान भरता है कभी
              पढ़ने वाला कोइ                   
अपने तजुर्बों की सांसे
               देता है वही
             
मै इस कब्रिस्तान के चौकीदारों से छुप कर
             ये जमी खोदा करता हूँ
उन बड़ी कब्रों के पीछे वाली
             छोटी कच्ची कब्रें भी खोला करता हूँ

ठहाके मारते हैं
             ये मुर्दे मुझपे
अपनी हिमाकतें याद करते है
             शायद मुझे देख के

हर ढकती कब्र पे
             मै अपना कुछ खो देता हूँ
सच कहूँ तो
             मै पहले सा नहीं रहता हूँ

लोग कहते हैं
            मेरे कागज पे मिट्टी के दाग हैं
शायद मेरे नाख़ून में फसी
            उन कब्रों की खाक है

Monday, February 9, 2015

A stream

There are always sand and boulders in a stream,
The one who are sand, will never have a opinion
The one who are bounders,will just have opinion,
The one who are stream, will direct the sand and avoid the boulders.

लफ़्ज़ों का धर्म

मैंने बहुत भागने की कोशिश करी है
इन नाम देने वालों से

जिस जमी पे पाव रखा
             उसे एक नाम दे दिया
जिस दिवार पे हाथ रखा
             उसे एक पता दे दिया

मेरे जिस्म तक की
             पहचान बनाई है इन्होने

पता है "गुलजार"
            इन्ही से बचने को मैंने लफ्तों को गले लगाया

आज पता चला की इन्होने
           उन्हें भी एक धर्म दे दिया



मकर संक्रांति

आसमान पे "सेल" लगी थी आज
हवाओं की खरीद फरोक थी

सारा मोहल्ला निकला था
लेके झोला पतंगों का


ये मुस्काने

ये मुस्काने
               जैसे चुस्कियां चाय की
जेहन को राहत
               जैसे गुदगुदीयाँ पाव की

एहसास ऐसा
                जैसे तसकींया छाओं की
इल्तिफ़ात करती
                जैसे सरगोशियाँ यार की 

शेहर न मर जाएँ

सब भाग रहे है
          के कही ये शेहर न मर जाएँ

ICU में जो भर्ती है

हर चौराहे पे
          नब्ज़ नप रही है

कभी लाल, कभी हरी है

फ्लाईओवर के नीचे वाला बाजार

इस एकांत को बाजार 
            बहुत मुदत्तों ने बनाया था
उन तदबीरों की औलादें
            आज तक वो किस्से गाती हैं

सामान, हराम, हलाल, बवाल,
            क्या नहीं बिका
खपत, लगत और मुनाफे
            के नाम पे

पर इनकी बढ़ती सड़क पे जकड से
            किसी और बड़े बाजार की रफ़्तार थम रही थी

सो एक चादर फ्लाईओवर की बिछा दी

आज भी चमकीली रौशनी से
             ये बाजार सजता है
पर पत्तंगे सब
             ऊपर से ही उड़ जाते हैं

नीचे कुछ पलायन की
            आधी लाशे भी रहती हैं
वो उन्हें भी
            कुचल जाते हैं

मैं बहरहाल एक छोटा बाशिंदा ठहरा
            तो नुक्सान की कीमत भी छोटी थी
मेरे आँगन में अब चाँद नहीं दीखता
            जो अब वो जगह 'कंक्रीट' के खम्बे ने ले ली है।


भगवान सब देख रहा है

वो बच्चा टुकटुक्की निगाहों से
                        अपने बाप की बद्सलूखी देख रहा था 

मार खाती माँ ने चीख कर कहा
                        पता है  भगवान सब देख रहा है


Friday, February 6, 2015

पिरामिड समाज का

लपेट दो पट्टियों से मुझे
के एक जख्म भी न दिखने पाएं
जो कोई फ़ायदा उठा लेगा

चपेट दो चाहतों में मुझको
के दूसरों की मुस्कान भी न दिख पाए
जो मै मंजिल से भटक जाऊंगा

समेट दे ये तजुर्बे मुझमे
के सेहमने के काम आएंगे कभी
जो आज उन्ही के डर से मरा लेटा हूँ

चढ़ा दो कफ़न नजरियों के
गिरा के ताबूत में जिंदगी की
कहोगे जिन्दा रहना है यही

और फिर
और फिर क्या
कुछ नहीं

ईट सटा ईट, ताबूत सटा ताबूत
बनाओ गे पिरामिड समाज का
के ये मजार है वजूद इंसान का

असमानता ढांचे में है,
हर कोई इसे है जनता
पर अपनी ईट हिलाने को कोई नहीं है मानता

जो थूकता है ऊपरी मंजिल से कोई
निचे वाला उसी को आपस में बाटता
फिर कहते ये नियम है न इसे कभी टालना

कभी गुस्से में थूकता हूँ ऊपर भी
वो गिरता वापस आ हम पर ही
फिर कहते है देखो कुदरत भी चाहती है यही

और फिर
और फिर क्या
कुछ नहीं

मैंने अपनी ईट खीच ली

Thursday, February 5, 2015

रूह की जिद

काल्पनिक दोस्त थे वो
             जैसे रखो वैसे रहते थे वो
हम उनकी जुबां अपनी
             जुबां से बाटते थे
जी वो खिलोने थे
             खेलने के काम आते थे

ये बचपन की आदतें
             बड़ी ख़राब है
जो जिधर भी देखूं
             तो अब भी सब अपने
                       खिलौने ढूंढ रहें है
के टूट रहे है
             या तोड़ रहे है

सब बोलते तो हैं
           पर क्या बोलना है क्या नहीं?
                       ये अभी भी सीख रहे हैं
हाँ आज भी अपनी जुबान
               बाटने पे अड़े हुए हैं

बस लगता है
              के चलना सीख गए है
                          आँखों की पुतलियाँ खीच के झाकना`
तो अपने कुँए में गिरे हुए हैं
             सम्हलना सीख रहे है

ये कैसी हालत है 
             कैसी बेकसी
बस इनके जिस्म बढ़े है
             रूह छोटी

वो फुदकती है
             गिर जाती है
ये रपाट खीच के मारते है
             वो रोती है,
पर हर बार आंसू पोछ कर
             फिर वही जिद करती है

"गोदी चढ़ना है, कोई तो उठा लो "




पिछत्तर प्रतिशत जला आदमी

एक वो रात थी
           जब खुदा ने फरियाद में उसे भेजा
           उतरते उतरते काबुल का एक हिस्सा राख हो गया

उसने जिस दिन
          अपनी पहली नमाज पढ़ी थी फरियाद भरी थी
          खुदा ने उसके अब्बु को सहादत मुकम्मल करी

हाँ वो दिन भी आया
          जब अल्फाज और गोलियाँ दोनों साथ उसकी हथेली चढ़ी
          जिंदगी बनाने की उम्र से पहले, उसने जिंदगी थी ले ली

फिर कल रात
          एक ड्रोन स्ट्राइक में वो बारूद में लिपट गया
           मेरे आँगन आ लेटा, डॉक्टर साहब बोले वो पिछत्तर प्रतिशत जल गया

इसमें नया क्या था
           अंदर की उबाल, अब छालों के हुबाब हो चुके थे
            जितना ही बचा था, उतनी ही तो जिंदगी देखि थी उसने

बाकि तो उसने
             जलने, खाक होने और राख बटोरने में
             खर्च कर दी थी

और आज सुबह
              आखरी सांस भी उसने फरियाद में उड़ा दी
              बदले में खुदा ने, उस फरियाद को पकड़ उसकी रूह खीच ली



         

इजहार

खाली कागज पे
                 बस थी एक दस्तख़त

कुछ ऐसी थी वो
                इजहारे मौहब्बत

इस्तीफा, गवाही
               ऐलान, रेहमत

जो भी हों
               लिख दो किस्मत

देख यूँ
               उनकी ये हिम्मत

मै महिनों तक कलम उठा ना सका
मै खुद को खुदा बना ने सका

जो भी हुआ मुझसे
              उस कागज पे

चार सिकुड़न में लपेट
              मै लौटे आय

              मै एक शायर को लूटा आया
              मै उसको नज्म बना आया




Tuesday, February 3, 2015

आवाजों की दुनीया

कभी आँखे बंद कर
             आवाजों से ये जहाँ देखना
शोर, हल्लों, झगड़ों की
             परतें उचाड़ कर देखना
कुछ मिले तो उसे
             पहचान कर देखना

एक चिड़िया चीख रही होगी
            किसी का पेट भरने को
जो उसे भी बस आवाज का सहारा है

ये शहर गुर्राता सा लगेगा
             चोट खाए कुत्ते की तरह
जो दूर बन रही बिल्डिंग की सलाखें घोपी जा रही है

कुछ कीड़े दिन को भी जागते है
             बकबकाते है
ना जाने किस्से क्या कहते है

हर कोनो से ठोकर खाती इन हवाओं की
             सिसकिया सुनाई देंगी
जो इन्हे दर्द तो है पर जिस्म पे निशान नहीं है

और अगर फिर भी कुछ ना सुनाई दे तो

अपने रागों को थर्राती धड़कनो को सुन्ना
उछलते दिल की नाकाम तदबीरों को सुन्ना
के कब से जकड रखा है इसे सीने की कैद में

ये जहाँ मुमकिन है
               आँखों के अंधेरों में
 नजरों के पर्दों के पीछे
                जब सिमटी आवाजे
मेरे ख्यालों के कंधे पे
                सर रख कर सोती है

एक सपना

ये चाहत लिए
               उम्मीद बुने
एक सपना उठ पड़ा था

ज्यादा नहीं तो
              कम ही सही
पर हिम्मत कर चला था

जेहन से जेहन
                घुमा वो
आँखों से आँखों
                चूमा वो
मंजर फिर भी उसको न मिला

नीदों से रातें
               लड़ा वो
झगड़ो की वजह
               बना वो
मंजिल फिर भी नजरों में थी ना

ठोकर खा कर जो गिरा वो
अब जा के है ये समझा

रस्ता जो ये मेरा है
थम चल कर ही काटना

उठ जा तू उठ बढ़ जा
चल चल चल चल बढ़ जा

थम जा तू थम थक जा
थक थक थक थक थक जा

सोच जरा


क्यों दूजों की परछाईं ढुढ़े तू
क्यों इतनी खलिश पाले है रे तू
क्यों। …

नजरों में है बस नज़ारे
नजरिये ग़ुम हैं कहाँ

तुझमे जो सपना उठा था
वो खोया है अब कहाँ

घुटने छिल कर जो खड़ा वो
मरहम मरहम को तरसा

हर मुकाम की मोड़ पे जा कर
वो अब है ये बूझा

उठ जा तू उठ बढ़ जा
चल चल चल चल बढ़ जा

थम जा तू थम थक जा
थक थक थक थक थक जा

Saturday, January 24, 2015

I wish

Love is as infectious as sorrow,
Do you think, will I see tomorrow,

One rot to other,
Other forgot for another,

I wish, I wish, I wish
If I can kiss this another wish.

Friday, January 23, 2015

हर गिरती बूँद

हर गिरती बूँद का एक आकर होता है

हर भाप होती बूँद का छूटा एक विचार होता है

जमे मलाई की तरह

एक उबलते दूध के हुबाब सा उठते हैं
एक दूसरे पर झपटते फूटते
कंधे पे पाव रख फिर से उठते
जो कहीं तो कुछ जल रहा है
एक लम्बे समय से
इतना वक़्त लगा उठने में
और जो अब उठ रहा है तो यूं बेशुमार

कुछ बारजे लांग कर गिर पड़े, बेसुध, बेकार
जो रह गए पड़े, जमे मलाई की तरह

कुछ ऐसे ही उठे थे ये विचार
इस गलते बदलते शरीर में

कुछ गिर गए है
दौड़ते वक़्त के हाथो से
और जो रह गए है
वो जम रहे है इन डायरी के कागजों पे

अपनों के पहिये

अपनों के पहिये है
अंजानो के रास्ते

रस्ते कुचलते रह गए
पहियों के वास्ते

पहिये बदलते रह गए
रास्तों के वास्ते

Sunday, January 18, 2015

लिव-इन रिलेशनशिप (live-in relationship)

दो ज़माने से रूठे कबूतरों ने
अपने टूटे घोसलों के तिनकों से
देखो! एक नया घोसला बनाया है

के सच्चे प्यार की सच्चाई का
सच्चा अंदाजा लगाया है


ये लाज ना ले जाये ये जमाना

ये लाज
      ना ले जाये
               ये जमाना
बिन पहरे लगा
            इसे बचाना

किस घर में
           घूँघट में
                  छुपा है
या तेरी निगाह में
               बसा है
अगर बूझो
             तो मुझे बताना

ये लाज
      ना ले जाये
               ये जमाना
बिन पहरे लगा
            इसे बचाना



अख्तियरों में
            उसके
                  कमी है
या तेरी
        जुबां में नफ़ी है
सोचो
       क्या ये है बहाना

ये लाज
      ना ले जाये
               ये जमाना
बिन पहरे लगा
            इसे बचाना



रोटी, कपड़ा और मकान

इस चमड़ी पे चमड़ी चढ़ानी है
इस चमड़ी से उड़ते भाप की
ये गर्मी अभी बचानी है
इस गर्मी की जलती आग की
खुराक भी मुझे ही लानी है
इस आग की चिमनी टूट न जाये
एक दिवार की गिरफ्त बनानी है

ये जिंदगी गिरफ्त में
मै जिंदगी की गिरफ्त में
चमड़ी की सलाखें
सांसों में भापे

रहा यही मुकाम
रोटी, कपड़ा और मकान

मिलावट

मेरे दिमाग में
           उठे कुछ ख़याल

जबीं की दिवार पे
           कालिख पोत रहे थे

तिलमिलाया में पूछ पड़ा
          अरे! किसने तुमको जगाया

वो बोल पड़े

तुम्हारी नजरों से जो भी छन कर आया
उसे उबाल रहें है, उसे ही खा रहे हैं

अब इन विचारों में प्रचारों की मिलावट हों
या कोई तुम्हें भटकाना चाहता हों

तो हम क्या करे



ये डायरी खतम होने जा रही है

ये डायरी खतम होने जा रही है
मैंने अनजान लम्हों के चाटे इसके चेहरे पर छपे है
इसके वफादारी की इन्तेहां हुए जा रही है

ये समझ गयी है मेरी सांसे लम्बी है
और इसके कागज कम
इसी लिए थोड़ी सठिया गयी है

बूढी हो गयी है
बॉन्डिंग पर इसके झुर्रियां पड़ गयी हैं
वजन भी थोड़ा बढ़ गया है

कुछ फटे से निशान भी हैं कोनो पे
कुछ पानी के धब्बे हैं किसी बारिश के

अपनी कुचली मुरझाई आँखों से देखती है मुझे
अपने सीने आप बीती स्याहियों की महक समेटे

ये बौखलाती नहीं अब नई नई नज्मों के शोर से
उन्हें अब ये लोरियों से सुलाना जानती है

उसके कागज से मेरे हाथ जब ठंडी चुराते थे, ये बहकती थी
अब सम्हलना जान गयी है, मुझे पहचान गयी है

ये मिलना जरूरी था, अब छूटना जरूरी है
मै एक दिन किसी दराज की ताबूत में दफन कर दूंगा इसे
ये इतना भाप गई है, मतलबी सी हो गयी है

जब मै पन्ने पलटता हूँ पीछे के, कुछ पुरानी बातें बड़बड़ाती है
अनसुना करना लाजमी नहीं, सुन कर चुप रहना मुमकिन नहीं

इस लिए तो ये कलम, आज बगावत कर रहा है
तेरी जुबां गा रहा है
                   तुझसे वफ़ा कर रहा है

Thursday, January 15, 2015

कला! तू कल आई थी

वाह! री कला
    तू कल आई थी
             आज नहीं
    कल फिर आएगी
              पता नहीं

जब भी आती हो
     मिझे थोड़ा बनाती 
               रत्ती सही
      फिर से तो आओगी
                गुमा यही

मै खाता हूँ
       इस कलम को भरने को
बहाता हूँ स्याही
       पर जिन्दा रहने को

के निकल आओगी कभी
        इस नोक की सुराख़ से
जब रगडूंगा इस कागज पे
        इन सुखन में, इबारतों में

तुम मेरे खयालों को पूरा करोगे
         इसी लालच में लिखता हूँ
इन फसलों को कम करोगे
         जेहेन के सच उड़ेलता हूँ

कला! तु कल आई थी
                     आज नहीं
फिर कभी आओगी
                     पता यही

बस इतना कहना है
        अब जब भी आना
                 बिन बताये आना

नोकीली यादें

हर बिछड़ी बीती बातों की, नोकीली यादें है

कुछ मुड़े, पश्मीने रेशों सी गुदगुदा रही है
कुछ अड़े, थोर के काटों सी चुभे जा रही है

Monday, January 12, 2015

तार (wire)

शायद ये  वक़्त ना जायज़ करता कोई भी इनपे
पर फिर भी एक बार मेरी नजर फिरी पड़ी इनपे

ये तार मेरे कमरे के कोने में कितने सुकून से पड़े थे
जैसे अजगर जो महीनों से हिला न हो

पर सोचो हर दिवार कुरेद कर अपनी बाहें फैला रखी है इन्होंने
जैसे कोई ऑक्टोपस ने सिकंजा कस रखा हों मेरे घर पे

कुछ पीतल ताम्बे के नाख़ून लिए
कुछ ऑप्टिक फाइबर मुह खोले हुए

सब बिजली थूकते है, जुबान अलग बोलते है
कुछ हवाओं से सरगोशियाँ कर दूजों से बाते करते हैं

अब सोचता हूँ तो लगता है

ये मेरे बारे में कितना जानते हैं
अपनी इस चमड़ी के नीचे कितना छुपाते हैं

किसी की खुसी, किसी के गम
हालत जस्बात, बेवजह की बकवास

क्या नहीं निगल रखा इन्होने
क्या नहीं चख रखा इन्होने

पर फिर भी कितना विचलित मै
पर फिर भी कितने शांत ये

लगता है ये इस जहाँ को ज्यादा समझते है
जो इनकी डिजिटल जुबान में ये जहाँ -

शुन्य एक
एक शुन्य, में छपा है

Saturday, January 10, 2015

नफरत के अंधेरे

इन दीवारों को क्या रगड रहा है
ये किससे इतनी नफरत कर रहा है

के अंधेरे ये पोछने से मिटते नहीं