Wednesday, November 25, 2015

बोले लाओ एक नाम

बोले लाओ एक नाम
                अगर बनाना है पहचान
कागज पे लिख नाम
                बनाएंगे पँचांग
कागज पे कागज
                पहचान पे पहचान
सजा एक दूजे पे
                बने फाइल के माकन
माकन पे माकन
                बने बहुमंजिली विभाग
विभागों की दुकाने
                दुकानो के बाजार
चल सजा के अपना मंच
                जम्हूरियत नाच अपना नाच

फिर कई रोज बाद
                मै आया ढूंढने अपनी पहचान
बोले लाओ कागज
                कागज जिनके हो दाम
बिन दाम की चीजे
                बदनाम सी कमीजें
जिनको पहने वही
                जिसके ना हो कोई भतीजे
ना बेटे, ना पर्जे
                सब जेबों में कर्जे
इस बाजार में चर्चे
                के एक घटना में घट के
फाइलओं में दब के
               जम्हूरियत मर गयी

जुगनू

कुछ जुगनू निकले थे
           मेरी रातों में
                    सवेरे ढूंढने को

होसला लिए
          के कुछ पल रौशन कर देंगे
                   ये जहाँ इन पत्तियों का

अगर हवाओं से पाला पड़ा तो
         जोखिम उठा लेंगे
                    गले सिराहने तक

और बिछा देंगे दिवाली
        शहरों की
                  जंगल में

जुगनू है उम्मीद है
      बुझ जाये, भटक जाये
                क्या फरक पड़ता है

के सवेरा आन पड़ा है
     और रात पे सूरज का पहरा है

अब उमीदों की जगह कहा है
     इसी लिए जुगनू दिन में नहीं दीखता है 

बोसी बोसी बूंदों से

बोसी बोसी बूंदों से
ये आसमा जमी उतरा है

आज इन सांसों में
फिर कुछ नया है

तुम्हारी बातों में बेहक चल आएं थे, जो सफर
वो मुकाम अब तक अधूरा है

बोसी बोसी बूंदों से
ये आसमा जमी उतरा है

कहने को, कहे
गए, बहुत से दिन

रहने को, रही
नहीं, कोई मंजिल

पर फिर भी
         जीने को
लम्हों से
        पिने को        
अभी तक कुछ रखा है 

बोसी बोसी बूंदों से
ये आसमा जमी उतरा है

सवेरा

बोसी बोसी बूंदो सा सवेरा
ओसी ओसी पलकों पे आ के ठहरा

बोसी बोसी बूंदो सा सवेरा
ओसी ओसी पलकों पे आ के ठहरा

घड़ियों के काटों की
है यही जुस्तजू

पहरों में घंटों की
हो रही है गुफ्तगू

के दिन है फिर से चढ़ा...
थाम लेना ओ खुदा.....

आसमां को घूरता
बोलता ये परिंदा
सूरज को चूमने मै आज फिर से हूँ चला


आईने सा सामने दिन खड़ा है
उमीदों का बरगद हो गया
एक हाथ से जमी को थामे हुए है
चाहें दूजे से बादल छूना

टेहनि पे बैठा हुआ
थोड़ा सा सहमा
मैं परिंदा...

ओ खुदा....
हाथ देना जरा तू बढ़ा

सवेरा...... सवेरा.......
उड़ रहा है परिंदा


Saturday, November 21, 2015

बोले हैं सवेरा

पलकों से झड़ के जो नींद गिरी
रौशनी रेशम सी चादर खीच गयी
आँखे फुदक के जो हैं उठी
सपनों के पंछी ने ऐसी उबासी भरी
शहरों के कस्बों में फिर वही आवाज है
टहलती आई देखो पूर्वा की झोंक है
के दिन है फिर से चढ़ा
बोले हैं सवेरा
आज फिर है कुछ नया
जैसे खुल गया हो उम्मीद का कोई पिटारा

Tuesday, November 17, 2015

पढाई २

ये पागलों का दस्ता
एक और बस्ता

मेरी पीठ पर

पढाई 

खोए हुए लोग

मुझे सब चहरे
     दरवाजे लगते हैं

थोड़े खोए हुए लोग
    पहचाने लगते हैं 

इंसान

होठ पे
       प्यास है

गर्भ में
      सागर

मिट्टी हूँ के सब पी जाता हूँ

मै!
इंसान हूँ 

इस अहद के नौजवान

ठंड से
     फड़फड़ाते होठ

जैसे हवा से पत्ते
जैसे सवाल से जुबान

     इस अहद के नौजवान

के पतझड़ जा चूका है
वसंत से उम्मीद नहीं
बस गर्मी की गुहार है
जो वक़्त के उस पार है


अँधेरे में कविता लिखना

अँधेरे में कविता लिखना
         अँधा होना

औरकों की
        औकात पूछना

बेशुमार
        बेहतरीन

जिस्मी पन्ने

कितना भी लिखो
फिर भी खाली

जो दफन हो, इंसान
तो ये दुनिया एक किताब

और
एक किताब की क्या औकाता 

अंगूर के गुच्छे सी

क्या जिंदगी
        अंगूर के गुच्छे सी ?

पहले मीठी
       बूंदो सी
और फिर
      एक सिकुड़े कंकाल
                     कांटे सी

नरम
    बेकार 

वक़्त से ज्यादा पढ़ी हुई किताबें

ये वक़्त से ज्यादा पढ़ी हुई किताबें
दोबारा दोहरा, कई बार
                      जैसे तुमको

के एक ख्याल भी अब
                      वो कागज
जिसपे नज्म कई बार
                      लिखी मिटाई गयी है
निशान है
          स्याही नहीं
गुद गयी है
         कमजोर
कतरा कतरा होने का
         खतरा है
जो बहुत ज्यादा
         रट ली गई है

मैंने तो कवर की
       परतें तक उचाड़ फैंकी है
के कही कुछ
       नया मिल जाये
पर भूल गया था
       के तुमने लिखना छोड़ दिया है 

हर चीज जो है मुझ पे

बस तुम ही हो जिंदगी
जिसे मै नंगे सीने से लगाता हूँ

बाकि तो हर चीज जो है मुझ पे
बस मुर्दा! मेरी कमीज सी 

चाँद की विरासत

याद है ना तुम्हे
     वो रात जब
           चाँद ने

अपना ताज उतार
     रख दिया था
          हम दोनों पे

और खोल दी थी
     बादलों सी जटायें

मैं देख रहा था
    तुम भूल रही थी

हमने उस रात
    फिर बहुत लम्बी बात की थी

के ये कैसे होता है?
    क्यों होता है ?
          कब होता है ?

आखिर कौन सा
      फासला होता है ?

जब चाँद
    ऐसा फैसला लेता है

तुम्हे शायद पता नहीं
      के मुझे जवाब पता था
पर मैंने उस वक़्त
     तुम्हारी आवाज को ज्यादा तवज्जो दिया था
           
और खो दी थी
    चाँद की विरासत
           तुम्हारे नाम पे

याद है ना तुम्हे
    के याद नहीं

Tuesday, November 3, 2015

मेरी लालच

मेरी तड़प
         मेरी जुबान
                 
लालची
       लथपथ
               लिबलिबी

चखने को


और चख के

परेशान
      रगड़ती
             मचलती

झाड़ने को
        ये स्वाद

मेरी लालच
           मैं
              मेरी जुबान