Wednesday, September 20, 2017

पूस की रात


लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

घर की छुटकी के
गाल भयल लाल है

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

अबकिल देवर जी
शादी को बेकरार हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

मंहगाई से भउजी
की सांस चढ़ी जात हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

भईयाजी जी अबकिल
छींकत ही चले जात हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

बबुआ के सर्दी के
बाद इन्तेहान हैं

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

कोहरे की मार से
फसल भयल बेकार है

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

हाथन में हसुआ
कटनी को बेकरार है

लग रहल है सर्दी
अरे! रात भयल पूस की

मोठे कोट वाले
जमीदार जी (नेता जी) की ठाट है 

Thursday, June 15, 2017

एक छूरे को हाथ में रख कर

एक छूरे को हाथ में रख कर जी करता है
की हवा में उसे जोर से घुमाऊं
तेज धार का स्वाद चटाऊ
और तभी कूद आती है दुनिया जहाँ
फैला होता है दूर तक खून
और सब दुश्मन,
जिनसे मैं बिना जाने नफरत करता हूँ

क्योंकि एक छूरे को हाथ पे रख कर
जी करता है कुछ ऐसा
की मैं बन गया हूँ
योद्धा सत्य का
और सारे झूठ मुझपे हमला बोल रहे हैं
कर्त्तव्य से बंधा मैं
कत्ले आम कर रहा हूँ

क्योंकि एक छूरे को हाथ पे रख कर
पता नहीं क्यों ऐसा ख्याल नहीं आता
के मैं जमीन फाड़ कर
कुछ बीज बोऊँ
और उनसे नीलकले पेड़ों की लकड़ियों पर
गुदुं अमन की कवितायेँ

क्योंकि एक चूरे को
हाथ पे रख कर
कभी ऐसा जी नहीं करता की
काटूं ऐसी फसल
जो भर सके झोले पेट के
बना सके पर्याप्त श्रम
और कई और छूरे
फसल काटने के लिए

क्योंकि एक छूरे को
हाथ पे रख कर
मेरा जी बन जाता है एक शीशा
एक अक्स चमकाता
उस हुकूमत का
जिसने कब्ज़ा कर लिया है
मेरा अचेत संसार
वो आवाज सा जो गूंजती हो है
पर सामने नहीं आती
उस समाज सा
जो उगती हुई फसल सा
दिखाई तो देता है
पर उगता हुआ
महसूस नहीं होता

क्योंकि अब मुझे छूरे को उठाने भर से डर लगता है
के आखिर कोण सा ख्याल आ कर मुझे खा जाएँ

क्यों ? क्या आपको भी छूरा उठाने से डर लगता है क्या ?  

एक अजीब कला होती है भूल जाने कि

एक अजीब कला होती है भूल जाने कि 
                     न याद रखने की, न याद रहने कि

पर मौसम हमें याद दिलाने के लिए
                    बार बार आते हैं, और हम भूलते रहते हैं

जैसे गिरा पानी सूखने लगता है हवा चलने पर

पानी का सूखना समय के बीतने का एहसास दिलाता है
और न सूखने वाला समंदर समय का

समय, जिसके अंदर न जाने कितने जीव एक साथ पानी पी रहे होते हैं

समय से थोड़ा पानी मैंने भी चुरा रखा है
पर रखा पानी समय नहीं है
और न ही वो बीता समय है

वह बस व्यर्थ है
उसका अर्थ मेरे जेहन में तैरता रहता है
कहीं भी पानी में तैरने जैसा
मैं अकेला हूँ पानी में तैरता हुआ

और मेरे अकेले होने में भी है बहुत कुछ
न अकेले होने जैसा
                         व्यर्थ

भूली हुई चीजें कहीं तो इकट्ठा होती होंगी न ?
बहुतों ने उन्हें खोजने की कोशिश की है
भूली हुई चीजें कहीं तो इकट्ठा होती होंगी
मेरा विश्वास है

वो शायद जम जाती होंगी
बर्फ सी मोटी मोटी सिल्लियों में
ऊंचे चट्टानों पे जहां कोई नहीं रह सकता
हाँ वो जम जाती होगी
क्योंकि मैं इतना तो जानता हूँ
वो टूटती हैं एक दम कांच की तरह
चकनाचूर होने के लिए
उन धागो की तरह नहीं
जो टूटने पर आवाज नहीं करते
वो टूटती हैं नींद की तरह
ख्वाब की तरह
जिनकी आवाज तो होती है
पर सिर्फ मुझे सुनाई देती है
उनकी धार महसूस होती है कहीं
जब कोई अचानक गहरी नींद से जगा देता है
कहीं अंदर माथे के
महसूस होता है
बहुत गहरा घाव
और उसके बीच में बहता हुआ
लहू सा ख्वाब
भाप होता रहता है
सूखता हुआ
समय के बीतने का
एहसास देता हुआ।

मेरा दिमाग एक समंदर हो चूका है
क्योंकि अक्सर वहां समय नहीं बीतता
बस कुछ चीजें आगे पीछे हिलती रहती हैं
लहरों की तरह
चढ़ते रहना चाहती हैं एक दूसरे पे
जैसे एक ख्याल दूसरे पे चढ़ता रहता है।
मेरा दिमाग एक समंदर हो चूका है
जहाँ इसी उथल पुथल के बीच
कुछ पानी सड़ता रहता है
सड़ना कितना मुर्दा शब्द है न
जैसे कुछ मर गया हों
पर सड़े पानी में पनपते है नए जीव
जो छोटी छोटी कहानी बन जाते हैं
वो जीव जो आपस में एक दूसरे को खा जाते हैं
और रच देतें हैं एक महा उपन्यास
जीवन

वो फेफड़े ऊगा
पैरों को खोल
उठ आते हैं जमीन तक
                   कला तक

वाकई ये सच है
एक अजीब कला होती है भूल जाने कि 
                     न याद रखने की, न याद रहने कि








Monday, May 8, 2017

परसाई के लेखों में दिखने वाला आदमी २

मुझे ये कहने की जरूरत नहीं की कुछ आदमी बुरे भी होते हैं। बुराई अपने आप में सार्वलौकिक है। बुराई कुछ इस हद तक हावी है के बहुत से दार्शनिक तो आपकी अच्छाई की बुराई भी दिखा देंगे। जमाना हमेशा से बुराई का था और बुराई का है बस भविष्य ही अच्छाई का होता है। परसाई जी का जमाना भी बुरा ही था। तो उनके लेखों में भी बुराई की चर्चा दिखती है। उनके ज्यादातर लेखों एक पात्र जरूर बुरा होता है । ये बुरा आदमी पूरा बुरा है।  रत्ती भर भी अच्छा नहीं। ये स्वार्थी है, निर्लज है। उसकी निर्लाजता ही उसके व्यक्तिव्य का व्यंग है। ये आदमी अक्सर परसाई जी के घर आता है उनसे अपना दुःख बाटने।  बताने, के दुनिया कितनी बुरी हो गयी है। जमाना बरबाद हुए जा रहा है और ये व्यक्ति इसी विचार से कितना चिंतित है। परसाई अक्सर उनसे ठग लिए जाते है - कबीरा आप ठगाइये। परसाई अपनी लाचारी को उनकी लाचारी से छोटा मानते हुए व्यंग करते हैं। बताते हैं की ये सुविधाभोगी कितना कास्ट सह रहा है।  उसके लाखों की कमाई में हराजों की कमी परसाई के फुटकरों से कितनी अधिक है। और इसी लिए उसका दर्द भी ज्यादा बड़ा है।

परसाई अपनी व्यंग की लाठी क्रूर तंत्र पर नहीं भजते, वो व्यक्ति के व्यक्तित्व की आलोचना करते हैं।  वह दिखाते है की एक ही आदमी प्याज सा कितनी परतें ओढ़े हुए है। अपनी सुविधाओं को बचाता हुआ वह कितने ढोंग रच रहा है।  उसे इन सब का एहसास है, पर वह चालक है , पर सरल बने रहने की पूरी कोशिश कर रहा है।

इस काले आदमी ने बहुत से रूप में परसाई को सताया है।  वह सिर्फ एक कुटिल राजनेता के रूप में प्रकट नहीं होता। वह अक्सर उनका सहायक भी होता है जो अपने नेता की हर बात मानता है। वह इस हद तक आमादा है की परसाई की टूटी टांग पर भी राजनीती खेलता है। वह काला आदमी कभी भुद्धिवादी भी होता है जो किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है और अपनी जाती का गुट बना अपने पद को बचाये हुए है। वह बड़ी दार्शनिक बाते करता है और दूसरी ओर आगबबूला हो उठता है जब उसकी बेटी दूसरी जाती के लड़के से प्रेम कर बैठती है। प्रेम से भी इस काले आदमी को कुछ खास हमदर्दी नहीं है। उसका प्रेम भी खोखला है और स्वार्थ से भरा है।  इस काले किरदार का प्रेम महज एक 'सिक्सटीज का मेलोड्रामा' है जिसमे वह अपनी महबूबा के इन्तेजार में सिगरेट पिता हुआ उसकी राख कॉफ़ी में मिला पी जाता है। उसका अवसाद बनावटी है।  वह ये मान के चलता है की उसकी प्रेमिका सामाजिक अभिमतों के कारण उससे विवाह नहीं करेगी। पर जब उसकी प्रेमिका उससे विवाह करने को राजी हो जाती है तो वह सकपका के बीमारी का बहाना बना उसे अपनी बेहेन बना लेता है। ये काला आदमी समाजवादी क्रांति भी चला चूका है और अक्सर अकेलेपन में फुट के रो पड़ता है। अफ़सोस में, क्योंकि वह उस क्रांति से कुछ हासिल नहीं कर पाया अपने लिए। ऐसी क्रांति और क्रांतिकारियों को परसाई ने बड़े ही कुशलता से "सड़े आलू का विद्रोह" में प्रस्तुत किया है । वह कहते हैं -

   सड़ा विद्रोह एक रुपये में चार किलो के हिसाब से बिक जाता है।

परसाई अक्सर इस काले व्यक्तिव को दर्शाने के लिए लोक कथाओं और धार्मिक ग्रंथो का सहारा भी लेते हैं। ये उनका समझा बुझा हुआ कदम है। वो धार्मिक कथाओं में व्यंग जोड़ कर उन्हें समकालीन कर देते है। उससे कहानी ना सिर्फ और प्रभावशाली बनती है बल्कि और प्रासंगिक भी होती है। वो ऐसी कथाओं से इन ग्रंथो का मजाक नही उड़ाते। वो मानते थे की अगर एक साधारण व्यक्ति को समाजशास्त्र या राजनितिक शास्त्र समझाना है तो उसे उसी के समाज और संस्कृति के उदाहरण देने होंगे। धार्मिक और लोक कथाएं महज एक माध्यम है। सुदामा के चावल , वो ख़ुशी से नहीं रहे, बेताल छब्बीसी, राम का दुःख और मेरा जैसी अनेक कहानियों में ऐसे ढांचे का प्रयोग किया है। इन सभी कहानियों में ये काला किरदार बार बार आता है। इस किरदार को कृष्ण, हातिम ताई, विक्रम जैसे लिबास में देखना अटपटा लगता है पर ये हमारे अंदर छिपे पछपात को सवाल भी करता है। परसाई के व्यंग की यही बारीकी उन्हें अनूठा बनाती है।

     एक काला आदमी है। एक सफ़ेद आदमी है। सफ़ेद की स्वार्थहीनता उसे सफ़ेद बनाता है और काले का स्वार्थ उसे और काला। ये दोनों किरदार अलग अलग रूप में परसाई की कहानियों में मिलते हैं और धुमैली सी तस्वीर बनाते हैं परसाई की। इन सब को पढ़ने लिखने के बाद एक सवाल जरूर उठता है - परसाई खुद क्या थे ? सफ़ेद या काले ?



परसाई की कहानियों का आदमी - नंबर १

समाज में कुछ लोग अच्छे भी होते हैं । समूचे जग में तमाम आडंबर के बीच एक छोटा तबका इन अच्छे आदमियों का भी होता हैं। ये आदमी स्वाभाव से कैसे भी हों दिल से अच्छे ही होते हैं । किसी का बुरा नहीं चाहते , या यूँ भी कहा जा सकता हैं की ये सबका अच्छा चाहते हैं । उनको लगातार एक सनक सी होती हैं समाज को सुधरने की , अंत तक मदद करते जाने की। ये उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है, पाखंड नहीं। वह अक्सर फकड हालत में पाए जाते हैं। कुछ अलग से, विलक्षण।जीवन यापन दूसरों की दया पर, आभार पर। पर उनके जुझारूपन में यह सब कुछ छुप सा जाता है । लोगो की नजर में कभी वो पागल होते हैं , कभी एक आसान शिकार होते हैं तो कभी स्वार्थी तक हो जाते हैं। वैसे ऐसे व्यक्ति स्वार्थी तो होते ही हैं, बिना स्वार्थ कोई अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को छोड़ समाज के बारे में इतना नहीं सोच सकता।

ऐसे आदमी हरिशंकर परसाई की कई कहनियों के प्रमुख पात्र रहे हैं। ये कहानियाँ व्यक्ति प्रमुख होती हैं। इनमे नायक का लम्बा परिचय होता हैं और कई किस्सों और छुट पुट कहानियों से उसके व्यक्तित्व को समझाया जाता है। ये व्यक्ति स्वाभाव से आक्रमक या सहज दोनों हो सकता है मगर उसके स्वाभाव के नीचे एक असंतोष छुपा रहता है , जो रह रह कर कभी कभी प्रकट भी होता है। इस नायक को बिना नाम दिए "असहमत " में परसाई ने बड़ी खूबी से रेखांकित किया है। नायक की असहमति ही उसकी पहचान है और सहमत होता व्यक्ति उसकी असहमति का शिकार है। हर एक सहमति दूसरी आसहमति हो जन्म देती है और ये प्रक्रिया चलती रहती है। जबतक असहमत सहमत नहीं हो जाता और सहमत असहमत। यह सब जानते हुए भी परसाई ऐसे व्यक्तियों के लिए सहानभूति रखते हैं।उनकी कहानियों में ऐसे व्यक्ति उन्हें अक्सर अपाहिज कर देते हैं जिन्हे वह न चाहते हुए भी मदद करते रहते हैं। मिसाल के तोर पे  "पुराना खिलाड़ी" रचना में परसाई एक घटना को कुछ यूँ बताते हैं  -

 " एक दिन वह अचानक आ गया था। पहले से बिना बताए, बिना घंटी बजाए, बिना पुकारे, वह दरवाजा खोलकर घुसा और कुर्सी पर बैठ गया। बदतमीजी पर मुझे गुस्सा आया था। बाद में समझ गया कि इसने बदतमीजी का अधिकार इसलिए हासिल कर लिया है कि वह अपने काम से मेरे पास नहीं आता। देश के काम से आता है। जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीजी का हक है। देश-सेवा थोड़ी बदतमीजी के बिना शोभा नहीं देती।"

"पुराना खिलाड़ी " महज मुलाकातों तक सीमित नहीं रहता, वो परसाई के घर पर बिना किराए चार माह रहता हैं और जाते जाते उनसे कुछ नकद पैसे भी ले जाता हैं। परसाई इन सब के बवजूद अपने व्यंग्य से उसका समर्थन करते ही दीखते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए विशेष स्थान हैं परसाई की नजरों में। इसकी वजह शायद उस व्यक्ति की असन्तुस्टी ही हैं जो उसे बार बार निरस्वार्थ सामाजिक चिंतन को मजबूर करती हैं। ऐसे व्यहवार के पीछे कोई आर्थिक स्वार्थ नहीं छुपा। इसी लिए शायद परसाई उनके अलहड़पन को वो निर्विरोध स्वीकारते हैं। मेरी नजर में परसाई के ऐसे बर्ताव की एक और वजह भी हो सकती है। ऐसे निष्पक्ष किरदार अपनी असन्तुस्टी से परसाई के आतंरिक मनोभाव का प्रतिनिधित्व करते हैं। परसाई के लेखों से अगर व्यंग्य निकाल कर देखा जाएँ तो ये असन्तुस्टी साफ़ दिखाई देती है। इसे यु भी कह सकते हैं की महज परसाई का व्यंग ही उन्हें उनके इस नायकों से अलग करता हैं। परसाई खुद को ऐसे किरदार से काफी करीब पाते हैं । या शायद परसाई खुद ही वो किरदार हैं ।

परसाई इन किरदार का व्यंग्यात्मक रूप से एक और पहलु भी प्रस्तुत करते हैं। वो दिखाते हैं की कैसे यह आदमी अपने विचारों से अपने आस पास के लोगों को परेशान कर देता हैं। "मनीषी जी" भी एक ऐसे ही किरदार हैं। वो सिद्धांतो के पक्के हैं और समाजसुधार के लिए प्रतिबद्ध। मगर उनके भी कई प्रयास लोगो को अखरते हैं ।

"एक बार अनाथालय से भागी हुई तीन-चार तिरस्कृत और लांछित लड़कियाँ मनीषी के आश्रम में आई । मनीषी ने उन्हें 'धर्मपुत्री' मान लिया। दो चार दिन में उनके यहाँ 'धर्मपुत्र' भी आने लगे और जब इन 'धर्मपुत्रों' ने उनकी 'धर्मपुत्रियों' को 'धर्मपत्नियाँ' बनाने का उपकर्म किया तो मुहल्लेवालों ने बड़ा हल्ला-गुल्ला मचाया । वो लड़कियाँ 'धर्मपिता' को छोड़कर भागीं । अभी भी मनीषी बड़े दर्द से धर्मपुत्रियों को याद करते हैं। "

" मनीषी जी" जैसे नायक बार बार "रामदास ", "वह क्या था ", " निठल्लेपन का दर्शन " जैसी अनेक कहानियों में उठ आते हैं।ऐसे मिले जुले निरूपण से परसाई की कहानियाँ अंत में अपने इन नायकों के बारे में कुछ ऐसा छाप छोड़ती हैं जहाँ उनके लिए सहानभूति भी होती हैं और उनके रवैये से छटपटाहट भी।

हरिशंकर परसाई, हिंदी साहित्य में दोधारी तलवार के सबसे सक्षम योद्धा हैं। उनका व्यंग्य ही इसका प्रमाण हैं। उनकी कहानियों में किरदार सफ़ेद या काले रंग में दिखाए जाते हैं। पर उनके साहित्य का भूरा रंग देखने के लिए सम्पूर्ण साहित्य को एक साथ देखना जरूरी हैं। इस लेख में मैंने उनकी रंगावली के सफ़ेद किरदारों को छूने की कोशिश की हैं।

यह लेख परसाई की कहानियों में उजागर होने वाले किरदारों का चरित्र विश्लेषण करने का एक प्रयास हैं। ये विश्लेषण उनकी लघु कथात्मक व्यंग्य रचनाओं से प्रभुत्वता प्रेरित हैं। इन लेखों को मैं एक क्रमबद्ध तरीके से प्रकाशित करूँगा। उम्मीद करता हूँ की आपको इस शृंखला का ये पहला लेख पसंद आएगा। धन्यवाद।




धरोहर - शमशेर बहादुर सिंह

हर बारिश में दो तरह की बूंदे होती हैं, एक मोटी भारी सी जो सीधे हवाओं को चीर कर जमीं पर पटक जाती है और दूसरी नन्ही हलकी लेहराहती सी, जो चुपके से आ, बैठ कर, गुदगुदाती है।  शमशेर की कवितायेँ कुछ ऐसी ही हलकी बूंदो सा अपने पाठकों को छूती है। उनके जिस्म में एक रूह के होने का एहसास दिलाती। उन लम्हों का एहसास दिलाती, जिन्हे जिया तो गया है पर जेहेन के किसी कोने में मुड़े टुडे कागज सा फेक दिया गया है।  उनमे दर्द है। एकालाप है । और बहुत सी गूंज । 

शमशेर बहादूर सिंह, एक ऐसे कवि थे जो समाज से ज्यादा जिंदगी और जिंदगी से ज्यादा खुद के करीब की कवितायेँ लिखते थे । वो अपनी कविताओं को काफी निजी रखते थे । इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि साहित्य से इतने लम्बे जुड़ाव के बावजूद भी उनका उनकी कविताओं का पहला संख्लन १९५६ में प्रकाशित हुआ। वो मानते थे की कला एक निजी अनुबूति है, प्रचार की चीज नही। उनकी इस निजीपन की परछाईं उनकी कविताओं में साफ़ देखि जा सकती है।

"मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
            जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल
            एक कण।
- कौन सहारा!
            मेरा कौन सहारा!
"

 इसी एकाकीपन का नतीजा है की उनकी कविताओं में एक ऐसा दर्पण मिलता है जिससे हर कोई जुड़ पाता है। उनकी अभिव्यक्ति की सरलता, विशय की गंभीरता और अर्थ की गहराई उनके अनुभवों की विशालता का परिमाप देती है। उनकी पंक्तियाँ "टूटी हुई बिखरी हुई " है, मगर अधूरी नहीं । उनमे दर्द है निराशा नहीं । अवसाद है अवसान नहीं । उनमे बारीकी है । प्रेम है । वो मांगती है मगर छीनती नहीं ।

"हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
           ...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
           जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।"


अपनी कविताओं में शमशेर कभी "एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता" सुबह को शाम से मिलाता, तो कभी काल से होड़ लेता जीतता हारता, कभी चलता है "लेकर सीधा नारा", तो कभी गाता है "अमन का राग" बाहों में दुनिया को बांधते हुए। उनके अंदर का सहज प्रेम उनके मार्क्सवादी आक्रोश के साथ प्रतिवाद नहीं करता। दोनों बल्कि मखमली रेशम की तरह एक दूसरे में बारीकी से घुल-मिल कर एक सुनेहरा दृश्य बनाते है। शमशेर विचारों से प्रगतिशील थे और आदत से प्रयोगवादी। उनकी कई कविताओं में 'इम्प्रेशनिस्म' और 'सुर्रियलिस्म' की प्रचूड़ता है । " दिन किशमिशी रेशमी गोरा " जैसी कविता में दिन का ऐसा चित्रण इंसान के मानसिक इन्द्रियों के बटवारे को नाही सिर्फ झगझोरता है बल्कि उसकी सोच को भी मरोड़ता है । वहीं  "बैल" जैसी कविता में, नीरस समाज पे गुस्सति, तरस खाती हालातों पर बड़े सहजता से टिपड़ी की है । उनकी कविताओं में जिंदगी के उन छोटे मगर गहरे लम्हों का इतना सुन्दर दृश्य स्थापित करती हैं के कभी कभी विश्वास नहीं होता के इन भावनाओं की इतनी सरलता से भी व्याख्या की जा सकती है।

शमशेर हिंदी और उर्दू के बीच की वो समतल जमीन है जहा की हरी गीली घास पर बेझिझक दौड़ा जा सकता है | उनकि दोनों भाषाओं की कमान हमें ये छूट देती है। ये घुलिमिली सी जुबान उनकी कल्पना को और भी उजागर करती है। शमशेर की कविताओं में कोई पछपात नहीं है। किसी विचारों का आभाव नहीं है। अगर कुछ है तो बस कला, रंग, राग और एक आवाज। आवाज जो चिल्लाती नहीं, समझाती नहीं। एक आभास देती है। शमशेर की कार्यशाला में आइने हैं, बहुत से आइने, जो सिर्फ बिम्ब नहीं बनाते, वो कैनवास भी हैं, या शायद शमशेर खुद!
"आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
           मुझे लिखो और मुझे पढ़ो।
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो।
आईनो, मैं तुम्‍हारी जिंदगी हूँ।"

शमशेर एक चौड़े पाट वाली बहती नदी हैं जिसका श्रोत निराला और मुक्तिबोध में है मगर कोई छोर नहीं। वो एक खुला महासागर हैं, जिनके कोनो को नापना अभी बाकि है। शमशेर अद्वितीय हैं। शमशेर अतुलनीय हैं। क्योकि शमशेर सहज भी हैं, तो शमसेर प्रगतिशील भी हैं, शमशेर में मार्क्सवाद भी हैं, तो एक अकेलापन, जिंदगी से नजदीकी भी। इसके चलते शमशेर को किसी कठघरे में बाटना मुमकिन नहीं । मुझे लगता है, अगर साहित्य के इतने बटवारे के बाद, कोई जमीन बचती है, अंटार्टिका सी, जहां किसी का राज्य नहीं। तो शायद वहां शमशेर हैं। एक कवि कविताओं का । सिर्फ और सिर्फ कविताओं का । जिसको सिर्फ उसी की रचना से समझा जा सकता है।


कवि घंघोल देता है
    व्यक्तियों के जल
हिला-मिला देता
      कई दर्पनों के जल
जिसका दर्शन हमें
    शांत कर देता है
और गंभीर
अन्त में।

इस संकलन में शमशेर को समेट पाना नामुमकिन है। इतने से कागज में शायद उनकी परछाईं ही अट पायेगी और यही मेरी कोशिश है। उनके शब्दों के बीच की दरारों में , पंक्तियों से बटी खाइयों में, अर्थ की तलाश में उतरना मुश्किल भी है और रोमांचकारी भी।  उम्मीद करता हूँ आप उसे महसूस कर पाएंगे।


धरोहर - बाबा नागार्जुन

बाबा नागार्जुन का काव्य संग्रह अद्वितीय है इसमें कोई दो राय नहीं है । बाबा नागार्जुन का काव्य क्यों अनूठा था इस लेख में मैं इसकी चर्चा भी करूँगा। मगर इन सब कारणों से ज्यादा जरूरी एक सवाल ये भी है के आज के युग में कहाँ है नागार्जुन?

बाबा नागार्जुन की कविताओं की आवाज में फुहरपन है। इस बात को इस सदी के सभी आलोचक मानते हैं। कोई इसे गाओं का अल्हड़पन , बीहड़पन कहता है तो कोई खड़ी बोली का प्रभाव । इन सब का प्रमुख श्रोत मैथली और भोजपुरी के शब्दों का सचेत प्रयोग है। नागार्जुन का काव्य, लोक साहित्य के आँगन जैसा ही जो शहरों से भी दीखता है। नागार्जुन की ये कोशिश जन चेताना में प्रबल है, सफल है। निस्संदेह वो एक सफल जन कवी हैं। जन की बोली को जन चेतना से जोड़ते हैं। ऐसी कविताओं में वग्मिता का न होना असम्भव है । इन सब के ऊपर उनके कविताओं के बिम्ब उनके दर्शन से इतने विषम होते है के एक अटपटा सा आभास देते हैं। ये बिम्ब उनका एक ऐसा चित्रण करते हैं जिसमे वो एक विद्वान गवार से दीखते हैं। जिसने एक हाथ से कंधे पे रखे हल को थाम रखा है और दूजे से कलम को। जिसके मुख से निकले फुहार से सब्द सत्य की परिभाषा हैं। इन्ही कारणों से वो साहित्य में अनाथ से लगते है और शायद इसी लिय एक अलग काव्य शैली का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। एक ऐसी काव्य शैली जिसके चलते उन्हें अपने प्रारंभिक साहित्यिक काल में स्वीकृति प्राप्त करने में वक़्त लगा मगर अने वाले वक़्त में उस काव्यस्वर को एक अलग स्थान मिला। ऐसा स्थान जहां जहाँ श्रोता के रूप में पहुंचना सरल है मगर कवी के रूप में अत्यन्त कठिन।

नागार्जुन के साहितिक जीवन की शुरुवात एक "यात्री" के रूप में हुयी। उन्होंने भारत के अलग अलग हिस्सों में सफर किया और जीवन भर एक "यात्री" रहे । इस यात्री ने अनेक विचारधाराओं को स्वीकारा, परखा और त्यागा। अलग अलग आंदोलनों का हिस्सा बना। विचरदरओं में बह कर आखें बंद कर लेना उन्हें स्वीकृत नहीं था। इसी लिए जब भारत की डगमगाती वामपंथी विचारधारा से उनका पाला पड़ा तो उन्होंने सवाल करा -

क्या लाल ? क्या लाल?
मेरी रोशनाई लाल !
आपकी कलम लाल !
इनकी किताब लाल !
उनकी जिल्द लाल !
किसी के गाल लाल !
किसी की आँखे लाल !
क्या लाल ! वह लाल !

ऐसी अपने से साभिप्राय बहार जाने की प्रवृति ने उनके काव्य को विषम और विशाल बनाया। इस प्रवृति का ही असर है जो उन्हें प्रभुत्व आलोचक कवी के रूप में भी उभारता है। उन्हों ने  महात्मा गांधी, नेहरू, इंद्रा और जयप्रकाश तक तो अपनी कविताओं में फटकारा है। गांधीवाद से लिप्त भारत पर, महात्मा गांधी की सौवीं पुण्यतिथि पर कहते हैं

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!

सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!

ये छवि उनकी अनेक कविताओं में दिखती है। कभी इंग्लैंड की महारानी के भारत भ्रमण पर व्यंग करते हुए कहते है "आओ रानी " तो कभी बाल ठाकरे की राजनीती को ललकारते हुए बोलते है "बर्बरता की ढाल ठाकरे"। उनकी आलोचना का पैमाना इतना कठोर है की वो कभी कभी अपनी खुद की आलोचन भी करते हैं

प्रतिबद्ध हूँ, संबद्ध हूँ, आबद्ध हूँ लाख-लाख मुखड़ों के तरुण हुलास में…
आबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा आबद्ध हूँ!

उनकी आलोचन को ईधन देता है उनका व्यंग। नागार्जुन का व्यंग निर्भय है। नागार्जुन के व्यंग पर नामवर सिंह कहते हैं "व्यंग की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है "। कविताओं का छंदों में लिखा जाना और उसके ऊपर उपहासजनक व्यंग, लोरियों सा सुनाई पड़ता है। "बाकी बच गया अण्डा" और "अकाल और उसके बाद" जैसी कविताएं इसका प्रमाण हैं। यह कला उनके आलोचना को और निखारती हैं। यह  नागार्जुन ही हो सकते हैं जो एक कीचड़ से सनी "पैने दाँतों वाली" मादा सूअर को भारत माता की बेटी होने के दर्जा देते हैं। उसके इस अधिकार को आवाज देते हैं। वो ही हैं को जयप्रकाश के आंदोलन को "खिचड़ी विप्लव" कह सकते हैं। नागार्जुन भारत की परस्पर राजनीतिक विफलताओं पे वो धूमिल सा निराश नहीं होते, विचारधारा पर व्यंग से कमान कस्ते हैं। उनकी कविताओं से दैनीय से दैनीय स्तिथि उपहासनिय लगती है भरसक नहीं। इसका एक कारण उनके जीवन काल में हुए भारत के कई राजनैतिक प्रयोग भी हो सकते है। जिसने उनकी विचारधारा को एक बीहड़ सा आकर दे छोड़ा था। इन सब से उनकी कविता एक निरन्तर उत्पीड़न से तंग तबके के सूत से बंधी दिखाई पड़ती है।

वो न ही प्रगतिशील कवियों की श्रृंखला में आते हैं न ही नई कविता का हिस्सा लगते हैं, अनाथ से। फिर भी उन्हों ने अपने काव्य के साथ जितने प्रयोग एक जीवन में किये वो अतुलनीय है। उन्हें समकालीन आलोचकों द्वारा संत कबीर तक की उपमान दी गयी है।

तो आज के युग में कहाँ है नागार्जुन ? क्या वो तबका चला गया जिसका नागार्जुन पक्ष रखते थे या उस तबके में अब कोई नागार्जुन नहीं बचा या उस नागार्जुन को अब हम सुनना नहीं चाहते ? इन सवालों पर विमर्श जरूरी है। इस अंक में नागार्जुन की कुछ प्रसिद्ध कविताएं साझा कर रहा हूँ। उन्हें पढियेगा और इन सवालों के बारे में जरूर सोचियेगा।

पैने दाँतों वाली


धूप में पसरकर लेटी है

मोटी-तगड़ी,अधेड़,मादा सूअर…
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली !
लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुँहे छौनों की रग-रग में
मचल रही है आखिर माँ की ही तो जान !
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है !

पैने दाँतोंवाली…

धरोहर - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

महानता के कई पैमाने होते हैं और कई आयाम भी।इनके फायदे और नुकसान की काफी लम्बी लिस्ट है। साहित्य इन्ही मापदंडो को समय-समय पे बदलता है और अलग-अलग विचार को धाराएं देता है । आलोचना इस प्रवाह का महत्वपूर्ण हिस्सा है। क्या हमे साहित्य को हमेशा साहित्यकार से जोड़ के देखना चाहिए ? क्या साहित्य साहित्यकार की आत्मकथा समान है ? ये सोचने वाले प्रश्न हैं। इनकी गहनता से उलेख्ना सौरव ने अपने समपादकीय में की है और ये विमर्श के लिए खुले हैं। इस लेख में, आज महानता को हम एक दराज में बंद कर के भूल जाते हैं, कोशिश करते है कविता को कवि और कवि को कविता से साधने की।

कुछ दिनों पहले ही बैंगलोर के एक सम्मलेन में वाद और वाद के वादियों (समर्थकों) पर चर्चा हो पड़ी और मेरे समकक्ष सर्वेश्वर जी की कविता "पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट" झलक आई । कविता ने इतनी लम्बी चली बहस की चंद पंक्त्तियों में निचोड़ दिया था और बतलाया था के मरने के उपरांत भी वादियों का पेट भरा था मगर वादे सुनने वाले का नहीं। ठीक उस "पिछड़े आदमी" की तरह जो हमेशा पीछे चलता था, शांत रहता था, शून्य की और तकते हुए।

लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया।

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविताओं में ऐसी कई जनवादी उत्तेजना है। जो कटाक्ष का रूप ले भीतर घाव करती है।ये तीखी है। इनमे धुमिल की कविताओं सा निराशापन है मगर डरावनी नहीं। निराशापन विचारधाराओं का जो बोलती कुछ है और करती कुछ और। सर्वेश्वर, जो की खुद एक पिछड़े इलाके से थे, इन दोगली विचारधारों के प्रकोप और उत्पीड़न को समझते थे। किसी खेमे का समर्थन ना करते हुए वो आधारभूत धारणाओं को कविताओं के जरिये उठाते थे। धारणाए जो क्रमबद्ध तरीके से समजा में होती आई हैं और होती जा रहीं हैं। "भेड़िया" कविता इसका सफल उद्धरण है, जो तीन हिस्सों में लिखी गयी है। पहले हिस्से में समाज भेड़िये का सामना करता है, दूसरे मे उसे हरता है और तीसरे में नए भेड़ियों को जन्म देता है। कविताओं को भागों में बाट कर एक क्रम में खींचना सर्वेशवर की शैली थी। ये क्रम कई रूप में कारीगर थे। विषय को आसान करने  के अलावा ये निरंतर होते धीमे बदलावों को बड़ी कुशलता से उजागर करते हैं। जो जनचेतना के लिए अनिवार्य है। इन सब के साथ व्यंग्य की प्रचुरता भी है | व्यंग्य जो जरूरी है एक घटना को अलग चश्मों से देखने के लिए। समाज को उदार और सहनशील बनाने के लिए। व्यंग्य की महत्त्व को दर्शाते हुए सर्वेश्वर व्यंग्य करते हैँ -

व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो।

सामाजिक विमर्श उनकी कविताओं एक मात्र बिंदु नहीं था। हालांकि, अगर उनकी समाज केंद्रित कविताओं को पढ़ा जाये तो सर्वेश्वर जी के जीवन और उनके प्रतिवेश का प्रभाव उनके काव्य में साफ़ दीखता है। ऐसी कविताओं को कवि के जीवन से जोड़ कर देखना उतना ही उपयुक्त है जितना सूरज का पश्चिम में ढलना। इन कविताओं में पीछेड़ेपन की हताषाएं है, गरीबी की विषमताएं हैं, मुश्किलें हैं। जो भरसक हैं।

इन सब निराशाओं के बीच, सर्वेश्वर के काव्यबोध का एक और किनारा भी है जहाँ प्रयोगवाद उनकी मेज पर फैला हुआ है और शमशेर सामने बैठे हुए हैं। इसी लिए वो शमशेर का काव्य पढ़ने के बाद कहते है -

उतर आये
कुछ सितारे
व्यथा बोझिल
पलक पर -
नहाती है चाँदनी
डबडबायी झील में।

प्रयोगवाद सर्वेश्वर का एक कवि के रूप में आत्मसंघरश है। ये सर्वेश्वर की अभिलाषा है जो कविता द्वारा उन्हें बतौर कवि की तरह स्थापित करता है। ऐसी कविताओं में कवि से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। ये कविताएँ कवि की कला और साहित्यिक सामर्थ को दर्शाती हैं। वो अपने आप में सबल हैं और इसी लिए ऐसी कविताओं का आंकलन कर पाना कठीन है। सर्वेश्वर के प्रयोगवाद में बिम्ब साधारण है जो उन्हें शमशेर से अलग करते है। ये बिम्ब छोटे है, अनेक है, एक कविता में गुलदस्ते से नजर आते हैं। वहीं दूसरी ओर ये कविता को सरल भी करते हैं। सरलीकरण सर्वेश्वर की कविताओं में साभिप्राय है। ये उनकी कोशिश सी लगती है। शायद इसी लिए सर्वेश्वर बाल कविताओं में महारथ रखते थे। सर्वेश्वर मानते थे जिस देश के पास सफल बाल साहित्य नहीं है वह देश आगे नहीं बढ़ सकता। फलस्वरूप बाल कविताये उनके काव्य का के महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं।

सर्वेश्वर की कविताओं की सरलता ही उनकी ताकत है। ये ताकत उनकी प्रगतिशील विचारधारा को वेग देती हैं। उन्हें और निखारती है, असरदार बनाती है। इसमें कोई दो राय नहीं की सर्वेश्वर एक प्रयोगवादी थे। उनकी प्रयोगवादी कविताओं में यथार्थवाद साफ झलकता है। ज. स्वामीनाथन की पेंटिंग पर लिखी सर्वेश्वर की चार छोटी कविताये इसका उत्तम उद्धरण हैं।जिन्हे ज. स्वामीनाथन की पेंटिंग देखते समय पढ़ना, सहित्य और कला का अनूठा अनुभव है।

इसी के साथ में अपना ये लेख समाप्त करना चाहूंगा। अब अगर आप चाहे तो दराज से महानता को निकाल अपने अपने अंदाज में नाप सकते हैं। हमेशा की तरह इस अंक में सर्वेश्वर जी की कुछ रचांए साँझा कर रहा हूँ। इनमे कुछ बाल कवितायेँ भी हैं। उन्हें खुद भी पढ़े और आस -पास के किसी बच्चे को भी पढ़ाये। धन्यवाद।


भेड़िया २

भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ ।
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फ़र्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।

अब तुम मशाल उठा
भेड़िए के करीब जाओ
भेड़िया भागेगा।

करोड़ो हाथों में मशाल लेकर
एक - एक झाड़ी की ओर बढ़ो
सब भेडिए भागेंगे।

फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल
बर्फ़ में छोड़ दो
भूखे भेड़िए आपस में गुर्रायेंगे
एक - दूसरे को चीथ खायेंगे।

भेड़िए मर चुके होंगे
और तुम ?


भेड़िया ३

भेड़िए फिर आयेंगे।

अचानक
तुममें से ही कोई एक दिन
            भेड़िया बन जायेगा
उसका वंश बढ़ने लगेगा।

भेड़िए का आना जरूरी है
तुम्हें खुद को पहचानने के लिए
निर्भय होने का सुख जानने के लिए।

इतिहास के जंगल में
हर बार भेड़िया माँद से निकाला जायेगा।
आदमी साहस से, एक होकर,
        मशाल लिये खड़ा होगा।

इतिहास जिंदा रहेगा
और तुम भी
और भेड़िया ?






धरोहर - मुक्तिबोध

जीवन, मृत्यु । मुक्तिबोध। एक कवि, साहस से परपूर्ण, जीवन के करीब, गरीब, कठिनाइयों से जूझते, अनुभवों में  लथपथ। गजानन माधव मुक्तिबोध एक विराट साहित्य के स्वामी थे । उन्होंने अपने साहित्यिक कार्य काल में खुदको एक कवि, कथाकार और व्यंगकार के रूप में स्थापित किया । अपने बहुत से विषयों को उन्हों ने दोनों कविता और लघु कहानियों का आकर दिया । 'अँधेरे में ' इसका उत्तम उदहारण है । ये उनके प्रयोगवाद का एक अंश है ।अपने वक़्त से भिन उन्होंने कई  प्रयोग किये, नये लेखन को तराशा, बिम्बों को विभिन मतलब दिए और साहित्य की सीमाओं को बढ़ाया । एक जगह बनाई जहां उनके लोग हैं, विचार हैं, उनकी प्रयोगशाला है । वो प्रयोगशाला जो पिछले पांच दशकों से हिंदी साहित्य को ईधन प्रदान कर रही है ।

मुक्तिबोध की कवितायेँ सत्य के कई पहलु दिखाती हैं । ऐसे पहलु जो सोचे नहीं गए और अगर सोचे गये तो विमर्ष से दूर रहे । वो विषय की जटिलता को उभारते हैं । कैसे एक गरीबी, गरीबी से ज्यादा जिंदगी है और जिंदगी में जिन्दा रहने से ज्यादा और कितनी सी चीजे जरूरी है । ये रोजमर्रा का संघर्ष अलग - अलग स्तरों पे उपस्थित है। उनका काव्यनायक इन छोटी छोटी अपूर्ण अभिलाषाओं को एक सार्थक स्वरुप है । मुक्तिबोध अपनी कविताओं में ऐसी पेचीदगी को सुलझाते हैं, उलझाते हैं, कठपुतलियों सा नचा के एक आवाज उठाते हैं , विरोध की। वो दोष नहीं देते, विकल्प तलाशतें हैं। शायद इसी लिए वो सत्य के सरलीकरण के प्रतिकूल थे। सरलीकरण जो सत्य को अधूरा और नतीजों को अँधा बनता है । इस कारणवर्ष कई बार उनकी रचना निष्कर्षहीनता और व्यग्रता का आभास देती लगती हैं । मगर वो आकारहीन नहीं है । वो साभिप्राय, विषय के कई चेहरों पे रोशनी डाल उसका सामान्यीकरण करते हैं । एक सतह तैयार करते हैं वैचारिक विमर्श की, अतिक्रमण नहीं । फलस्वरूप उनकी कविताओं का महाकाव्य होना अनिवार्य है । इसी लिए उन्होंने लम्बी कवितायेँ लिखने का साहस  करा, उस युग में जहां छोटी कविताओं का बोलबाला था । अभिवक्ति से आत्मसंघर्ष को व्यक्त करा ।

उनका काव्यबोध विस्तृत है । गहरा है । उनकी कविता एक ही बिम्ब के कई निष्कर्षों को छूते जाती है और हर निष्कर्ष उस बिम्ब का नया मतलब उजागर करता है । जैसे चित्र के ऊपर चित्र, अर्थ के ऊपर अर्थ, एहसास के ऊपर एहसास रख दिए गए हो बिना मिलाए । ये एक अनूठी कल्पना का घर तैयार करती है । मुक्तिबोध इस कला के माहिर कारीगर थे । अलगाव, उदासीनता, विद्रोह, विमर्ष और निजिता उनकी कविता की पांच उंगलियाँ है, मुट्ठी है । एक मध्य वर्ग जुझारू कर्मी की मुट्ठी ।

   मुक्तिबोध की कवितायेँ खुदरी है, काली है मगर कठोर नहीं । परिपक्वता से भरी, एक जटिल समय में, इस्पात के पुरुष की । जिसमे उथल पुथल है समाज की, इंसान के दिमाग में बवंडर सी । अनुबूतियां जीवन की हर दिन घटने वाली, करीब रहने वाली । मुक्तिबोध शृजनात्मक हैं । प्रयोगवादी हैं । नवोन्मेषों से उत्सुक, अविष्कारों का स्वागत करते हैं । भविष्य को ले कर आशावादी है । विद्रोही हैं । बहुमुखी सत्य हैं ।

   हमे आज के वक़्त में मुक्तिबोध के जैसे संतुलित नजरियों की जरूरत है । मुक्तिबोध को और समझना है । विमर्श करना है । इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए मै उनकी कुछ कविताओं को इस संकलन से जोड़ रहा हूँ । उम्मीद करता हूं की आप लोग इसे नए रूप देंगे ।



धरोहर - वीरेन डंगवाल

एक आदमी सा शहर, और शहर में बहुत से आदमी । वक़्त बेवक़्त जैसे हवाएं आ कर भर जाती हैं, बदल जाती हैं मौसम । ठीक वैसे ही विचार शहरों की हवा बदल देते हैं । वीरेन डंगवाल, एक ऐसे ही बदलते ज़माने के शहर से कवि हैं । वो जमाना जहाँ बदलाव एक खुले छोर से भविष्य को झटक रहा था और समाज अपने निरंतर संघर्ष से जूझते जूझते तब्को में तब्दील हो रहा था । हर तबके की इस बदलाव को ले कर एक वैचारिक और भावनात्मक प्रतिक्रिया थी । वीरेन जी ने अपने काव्य में इन प्रतिक्रियाओं को शब्द दिए, रूप दिए । जैसे, शहर की रोजमर्रा की पुरानी गतिविधियों के बावजूद कैसे "मोबाइल पर उस लड़की की सुबह" बदल चुकी है । वो खो चुकी है बातों में जो शायद जरूरी हैं, या शायद नहीं भी, पर वो सुबह उसको खो चुकी है ।


वीरेन जी की कई कविताओं में मनुष्य प्रधान है । उसका पेशा, उसका लिबास, उसका मिजाज अगर श्रोत है। तो उसका निजी और सामाजिक परिवेश कविता के दो उब्जाऊ पाट । जिसके बीच फिर बहती है समाजवादी विचारधारा । जो वक़्त की मार सहती है, पूंजीवादी बांधो से टक्कर लेती है। भरती है, फूटती है । कहती है "आँखें मून्दने से पहले याद करो रामसिंह और चलो" । पूछती है सिपाही से -

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना ?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार ?

ये सवाल चेतावनी से हैं, मगर आक्रामक नहीं । वो जगाना चाहते हैं उस मनुष्य को जो इस दलदली सभ्यता में धस रहा है । उसका हिस्सा बन रहा है । "भोंदू की तरह "। ये व्यवस्था भर देती है "अवसाद और अकेलेपन से" जब एक बच्चा कबाड़ी चिल्लाता है "पेप्पोर रद्दी पेप्पोर" खाली सड़क पर । पर फिर भी ओझल रहता है जीवन की तरह "पत्रकार महोदय" के खून सोखे भारी अख़बार की तरह । वीरेन ऐसी ही कई सर्वत्र मौजूद जटिल मुद्दों की शूक्ष्म बारीकियों को अपने सवालों से उठाते हैं । ताकि वो मनुष्य अपनी मता का प्रयोग करें और सोचें । सोचें की यह व्यवस्था अगर ऐसी है तो ऐसी क्यों है ? सोचें के क्यों वो कपडे वाला झंडा, हमारी आजादी का प्रतीक, इतना ऊपर है की उसे आज तक न छू सके । वो फटकारतें हैं "धरती मिट्टी का ढेर नहीं है गधे"। और फिर से दोहराते हैं -

तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीडा की कठिन अर्गला को तोडें कैसे!

एक शहर वीरेन जी की कविताओं में हमेशा उभरता है । ये शहर भारत के कई उन शहरों सा है जो भूमंडलीकरण की तेज रफ़्तार पकड़ रहा है । इसके नागरिक अलग अलग पेशों की पोशाकें पहने हैं । इस शहर में हर बढ़ते शहरों की तरह एक स्टेशन है, सिविल लाइन्स है, नरसिंग होम है, चौराहे है, "समोसे" की दुकान है जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं । एक जंग खाई "तोप" है, कंपनी बाग में, जो इतिहास का अवशेष है । गाँव की ठेठ भाषा है, जिसे शहर का हैमबर्गर पसंद है । कई यातायात के साधन है । एस. एम. एस. हैं, मोबाइल हैं, एन. जी. ओ. हैं, बदलाव है । और इन सब आशावादी संभावनाओं के साथ कुछ संदेह भी है । संदेह के खो ना दे अपनी आवाज इन बाजार के शोर में । बदलाव के नाम पे, बेफजुल मांग पे । डर है के कविता का महानायक, ये मनुष्य, वस्तु न बन जाये खपत और मुनाफे की । इसी लिए वीरेन व्यंगात्मक रूप से कहते हैं -

कुर्ते पर पहिने जीन्स जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं।

वीरेन की कविताओं में प्रगतिशील प्रवाह है । समाजवादी रवैया है । समकालीन बिम्बों की प्रचूड़ता है । एक गेहरी छाप है अपने वक़्त की । अपनी कविताओं में सामाजिक समस्याओं से ले कर प्राकर्तिक बखान तक उन्होंने कई आयाम दर्शाये हैं । कारणवर्ष उनके लेखन की शैली सीमांकित करना मुश्किल है ।

मेरे नजर में वीरेन एक सहारों से कवि हैं । जीवन से भरपूर । जो हर दिन घटित होता रहता है । अखबार छोटा पड़ जाता हैं उसे नापते हुए । विचार सिमट जाते हैं पडोसी बन जाते हैं इस शहर में । कविताओं में ।

हाल ही में २८ सितंबर २०१५ तारीख को हुए उनके निधन से हिंदी साहित्य एक बार फिर अनाथ हुआ । धरोहर का ये अंक मै वीरेन जी के साहित्य को समर्पित रहा हूँ और उनकी कुछ प्रतिनिधि कवितायेँ भी जोड़ रहा हूँ । उम्मीद करता हूँ आप सबको पसंद आएंगी ।

धरोहर : सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'

धरोहर : सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'

लोहे की पटरियों की गड़गड़ाहट, धूमिल की कविता, जिन्हे सुनने में कुचल जाने का डर भी है तो आने वाले कल का रोमांच भी। एक आगाज, बदलाव का। ठहराव से निजाद का । ठहराव जो आजादी के बीस साल बाद तक पैर पसारे बैठा था और  धूमिल को स्वीकार न था । उनकी कविताओं ने उन उमीदों को हवा दी जो आजादी के साथ जन्मी थी और जल्द ही बुझने वाली थी। सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' ने अपनी कविताओं से सवाल किये, सामाजिक विडंबनाओं को उजागर किया, साहस किया उपहास उड़ने का उस व्यवस्था का जिसका सपना सबने देखा था, मगर वास्तविकता में नहीं। धूमिल ने उन जीवंत कठिनाइयों को अपनी कविताओं में प्रकट करा जो रोजमर्रा हो गयी थी । कठिनाइयाँ जिनसे तंग आ कर आजादी का संघर्ष हुआ था, बदलाव हुआ था, और अब फिर से ठहर गयी। वो इस जनतंत्र की असफलताओं से निराश थे । जिसका अंदाजा इन पंक्तियों से ही लगाया जा सकता है -

क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
चुपचाप।

धूमिल , मतलब धुल में मिला हुआ। मटमैला सा। इतना साधारण के आँखों के सामने हो कर भी ना दिखे। धूमिल ऐसे विशेयों के विद्वान है । वो अपने व्यंग के फावड़ों से इन धुल की परतें हटाते हैं। उस पक्ष को समक्ष लाते है जो चर्चा में ही नहीं ख्यालों में भी लुप्त हो चुके हैं । वो उस दौर के कवि है जब भारत एक राजनीतिक मोहभंग से गुजर रहा था।  जिसके पप्रभाव उनकी काव्य शैली पर साफ़ दीखता है | उनकी रचनाओं में उत्पीड़न, स्त्री के अलग अलग रूपों में प्रकट होता है । एक स्त्री जो वस्तु है विज्ञापन के लिए, एक पत्नी जो थामे है एक पेशेवर गरीब की गृहस्ती, एक बुढ़िया जो ताले सी पीछे छूटी हुई है गाओं में, एक पागल गाभिन औरत जो भागती है "शहर की समूची पशुता के खिलाफ"। औरत का चित्रण उनके लिए अनुभूति है -

उस औरत की बगल में लेटकर
मुझे लगा कि नफ़रत
और मोमबत्तियाँ जहाँ बेकार
साबित हो चुकी हैं और पिघले हुए
शब्दों की परछाईं
किसी खौफ़नाक जानवर के चेहरे में
बदल गयी है, मेरी कविताएँ
अँधेरा और कीचड़ और गोश्त की
खुराक़ पर ज़िन्दा है


हिंदी साहित्य में सामाजिक विशेयों को केंद्रित कर बहुत सी कवितायेँ लिखी गयी है, पर धूमिल की कवितायेँ उस जथ्थे में एक दम से अलग दिखाई पड़ती है। ये धूमिल के अंदर के काव्य बोध की प्रचूड़ता को उजागर करता है ।  धूमिल उन चंद कवियों में से है जो कविता को प्रधान रख विषय को सवारते है । शायद इसी लिए उनकी कविताओं का मर्म एक अलग छाप छोड़ता है । एक ऐसा छाप, जहां विषय का नंगापन कविता की कला को बिगड़ता नहीं, और गहरा प्रभाव डालता है । उनके व्यंग बिजली के झटको से लगते है तो विषय की सरलता मलहम सी। वो समस्यों को खुले जख्मों सा छोड़ देते है, विचार करने को । इलाज नहीं देते । स्मरण  करने को मजबूर करते है।  आखिर क्या गलत है ?  और अगर है तो क्यों ?

धूमिल की कविताओं में "लोहे " का विशेष महत्त्व है। ये लोहा एक आक्रामक बगावत को दर्शाता हैं । जो गरीबो के खून में, कुपोषण के चलते, इतना कम हो चूका है की वो अपनी आजादी की ताली तक नहीं बना सकते। ये लोहा एक लगाम है आजादी पे, जिसका स्वाद बनाने वाला लोहार नहीं बल्की वो तबका समझता है जिसके मुह में लगाम है । ये लोहा लोगो के घरों के दरवाजों पर लटके तालों सा है। ये लोहा अलग अलग औजारों सा प्रकट होता है - किलों पे ठीके हुए अनुभव में, चाकू को ढूंढती हुई जरूरत में या निहाई और हथौड़े की दोस्ती में, जो हँसुए को हनने के लिए हुई है । ये लोहा उस दुकान में भी है जिसमे बैठा आदमी हरित क्रांति का सोना है और किसान मिट्टी ।

धूमिल के इसी लोहे ने, बिम्बो में उलझे साहित्य के आइनों को तोड़ फिर से वास्तविकता के करीब लाया। साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब बनाया, बदलाव के लिए । धूमिल की आक्रामकता, जटिलता, विद्रोह भाव, लोहे सी । लोहा जो औजार है, मजदूरों का। लोहा जो जवाब है चाबुक का।

धूमिल धुल है । धुल जो हवाओं को तूफान का नाम,  पैरों को दिशाओं की छाप, फिसल कर वक़्त को माप और आँखों में पड़े तो कष्ट देती है । एक ऐसा कष्ट जो आज तक सार्थक है । इसी लिए धूमिल की कविता आज तक पाठकों में गूंजती है । जवाब ढूंढती है।  वक़्त बदले है। व्यवस्ता बदली है ।  शायद सवाल अब तक बदले नहीं। क्या संघर्ष गलत है या सेहन करना ? ये सवाल शायद धूमिल ने भी पुछा था और जवाब शायद  उनकी इस रचना में है  -

कोइ पहाड़
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है
और कोई आँख
छोटी नहीं है समुद्र से
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है -  
 जो कभी 
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है 

धूमिल की कुछ रचनाए आप लोगो के साथ इस संकलन में साझा कर रहा हूँ । उम्मीद करता हूँ आप लोगों को पसंद आएंगी। 

कहानी और ज़िन्दगी

एक संयम सुन्दर सी शाम
जहां हलकी घास की महक
मखमल सा पानी
लटके पैरों के नीचे
आराम लगता है
जैसे आने वाली रात ही है
कहानी का अंत

जहां महसूस हों की
अगर आज रात भूचाल में
मर भी जाएँ

तब भी ये कहानी पूरी रहेगी
राजा रानी वाली कहानियों की तरह
पर एक नींद के बाद
सुबह की हताश जिन्दा कर देती है
के हम कहानी नहीं
ज़िन्दगी हैं
अफ़सोस
के हताशा एक अच्छी कहानी नहीं बन सकती
मगर एक सच्ची सी जिंदगी ज़रूर हो सकती है
जो जगती है हमे उस बेसूद नज़रिये से

जब हिलती फ़ितरतें जमीं पे

जब हिलती फ़ितरतें जमीं पे
             उनपे टिकी ये उमीदें गिर जाएँ
कसमों के मसाले से थी जोड़ी
            उन रिश्तों की दीवारें टूट जाएं

बोलो नहीं

निशब्द
बोलो नहीं
मुह पे हाथ नहीं
होठ नहीं
आवाज है, बस शब्द नहीं
निस्तब्ध

सावली लड़की
आँखों में काजल नहीं
मांग में सिन्दूर नहीं
विधवा नहीं
मुह में जुबान नहीं
अरे भाई ! गूंगी नहीं
बस मुह में जुबान नहीं
बोलो नहीं

क्यों? समझे नहीं ?
अच्छा
जैसे पानी में हवा नहीं
हवा में पानी नहीं
तो क्या ?
कुछ नहीं
बारिश हुई
श्श्श्श्श्श्श्श्श........
बोलो नहीं

एक नाव मरम्मत के बाद
पुरानी नाव नहीं
एक जिंदगी, एक दिन के बाद
वही जिंदगी नहीं
जी सब अँधेरा है
क्योकि अँधेरे मे
किसी का आकर नहीं
बोलो नहीं

भूके को भूक नहीं
भूक मरती है
एक जीव की तरह
भले ही वो जीव नहीं
पेड़ पे फल फरा है
पेड़ पे पत्थर अटका है
भूके को पता नहीं
भूके को बताना नहीं
बोलो नहीं

बहाव खोती नदी
उम्मीद से भरी
प्रवत चढ़ने को
अभी वक़्त बहुत है
अभी मौत नहीं
कोई आवाज भरो उसमे
के बोलना महान है
सून्नना बेवकूफी
तो
बोलो नहीं

तिलक लगाओ
गुलाब बनाओ
क्या आप पत्ते रह गए ?
किसी आर्गेनाइजेशन के पुर्जे रह गए ?
राम राम , राम राम
कितना कबाड़ है
इन सबको आग लगाओ
शमशान बनाओ
भाई शहाब, चलो अच्छा
आप भी
बोलो नहीं

सत्य क्या है ?
सही और गलत की मझली बहन
तो झूठ ?
झूट है मझला भाई
क्या दोनों जुड़वाँ है ?
पूछो नहीं ?
बोलो नहीं

पैरों की कानी ऊँगली
काट दो
छाट दो
भाई उसकी जरूरत नहीं
अधूरी ना रहे जिंदगी
इसे पूरा करो
जुदा करो
पर
बोलो नहीं

भ्रम करो
फल की इच्छा ना रखो
ताकि
कर्म करो
सब बोलते तो यही
तो मैं करता रहता हूँ
सब अगर कर्म ही करते है
तो इसका मतलब ये तो नहीं
के
बोलो नहीं?



एक जगह है

एक जगह है
खाली सी जगह
जहाँ धुन बजती रहती है
मरसिये सी
विश्व की सबसे सुनहरी धुन

चलते हुए मेरे पाव मूड जाने से पहले
उस जगह लहू भर जाने से पहले
सफ़ेद बालों और दाढ़ी के बीच फांसी निगाहें
पी जाती हैं सारा लाल रंग
जगह भर जाती है निगाहों के अंतिम छोर तक

वो जगह कभी खाली भी रहती है
एक दम खाली
जब लोग पूछते हैं
मैं होता हूँ
एक दम खाली

कभी वहां फंदा भी होता है
काली जटाओं सा
जिन्हे में बहुत प्रेम करता हूँ
और उसी से लटक के करता हूँ
आत्महत्या
कई बार , बार - बार

वहाँ का जल्लाद बेफिक्र खामोश है
सिगरेट के छल्ले बना
मुझे मरता देखता है
मेरा मरना बड़ी बात नहीं
उस जगह में

जगह जगह है
मेरे तड़पते पैर शांत हो जाने के बाद
की जगह

मेरा रोना
फूटी जमीन का बंजर होना है
उसको छूना
समंदर का ठहरा बहाव
डूबता हुए को प्यास बोध होना
समंदर में डूबने वाले से पूछो
खारे पानी से भरती है सूखती है
वो जगह

रात के ढाई बजे
कफ़न फाड़ के मौत से सतरंज लेना
जगह है
ये कविता एक वो प्यादा है
जो शतरंज के खेमे से बहार जमीन पर गिर पड़ा है
और किसी को उसकी जगह नहीं याद है
खेल थम चूका है
उस जगह में

जगह की नमकीन मिट्टी
जिसे खोद कर एक आदमी
निकाल लेना चाहता है
कुछ मीठा पानी
जुबान प्यासी है
इस जगह की

इस जगपर एक काली औरत चलती रहती है
वही औरत जो जब रात को अगर चीख दें
तो नींद उड़ जाये
ये जगह पल भर में
गायब हो जाये
जगह औरत के प्रेम की
जगह है


हम जगह को समझना चाहते हैं
उसे पालना चाहते है
अपने मन अनुसार
जगह, उसी जगह रहती है
हमारे बिल्कुल सामने
हमारी पहुंच से लेकिन दूर
जगह कहीं सपना तो नहीं ?



इस शहर में कोई भूख से नहीं मरता

इस शहर में कोई भूख से नहीं मरता
भूख से मरने वाले, भूख से मारने वाले दोनों जंगल में रहते हैं

इस शहर में सपनों की भूख है
भूखमरी फैली हुई है चारों तरफ
पर यहाँ अकाल नहीं है
शायद कोई तो जनता है
खाली पेट और पूरे पेट से ज्यादा मुनाफेदार होता है आधा भरा पेट

इस शहर में कोई भूख से नहीं मरता
भूख से मरने वाले, भूख से मारने वाले दोनों जंगल में रहते हैं
और यहाँ तो लोग जंगल से डरते है 
हर कोने को पाट के पक्का करना चाहते हैं 
रहना चाहते हैं एक खिड़की वाले घर में 
और दुनियाँ को देखना चाहते हैं अपनी अकेली खिड़की से,
वो बटन वाली स्क्रीन से 
श्श्श्श्श्श्श्श्श् ... शांत महफूज 

स्क्रीन चार दिवारी है 
जानकारी है, लाचारी है 
इस खिड़की पे बैठ कर कोई भी भाग्य विधाता बन्ने की होड़ कर सकता है 
ये खिड़की रोमांचकारी है, क्रन्तिकारी है 
परमवीर सूत्रधरी है 
इसकी दुनिया काँटों से मुक्त, दर्दरहित 
गंधहीन, स्वछ है 
अति स्वछ 
दृस्टि 

अगर घर महफूज होने को बना था तो खिड़की क्यों 
खतरों से पूरी तरह नाता न तोड़ लेने को 
एक दिवार जहाँ खिड़की रहती है 
खतरे और महफूज दोनों के रहने का आभास देती है 
दोनों का रहना जरूरी है 
आधे भरे पेट के लिए 

इस शहर में कोई भूख से नहीं मरता
भूख से मरने वाले, भूख से मारने वाले दोनों जंगल में रहते हैं

Wednesday, February 8, 2017

नक्शा

चेहरे पर चलती चींटी
एक अलग सी भन्नाहट पैदा करती है
और हमारे अंदर पैदा होते उस आवेग से
बनता है एक नक्शा

उसके अनमाने पैरों की छाप से उभरती है लकीर
नक्शे सी, बाटती हुई
हमें आपत्ति है उसके बनाये हुए नक़्शे से
और गुस्से से हम झटक देतें है उसे हथेली से
उस क्षण दिख पड़ती हैं हमें
हमारी हथेली और हथेली की लकीरें
उभर आता है नक्शा जिंदगी भर का

वो चीरती रहती है मिटटी को
और फाड् देती है जमीन पर बना नक्शा
जिसे हम मानते हैं
अपना देश अपना गाँव
वो खोदती रहती है अपना नक्शा जमीन के नीचे
जहाँ की फ़िक्र हम करते ही नहीं नक्शा बनाते वक़्त
और साबित करती है हमारी फ़िक्र को खोखला

हम समझते हैं की हमारे हथेली से बनाये नक़्शे से
तय होगा हमारी हथेली का नक्शा
पर वो ऐसा नहीं सोचती
वो जानती है के हर सावन बाद बदल जायेगा उसका ठिकाना
बनाना होगा उसे फिर नया नक्शा
नक्शा उसका हुनर है घमंड नहीं

हम चाहें तो हुनर दिखने की होड़ में
सपाट दीवारों से घेर कर दिखा सकते हैं अपने नक़्शे की हद
और अपनी मूर्खता


नक्शा बनाने वाले की कला है ख्याल है
और समझने वाले की समझ
नक़्शे की समझ दिखता है सझने वाले का हुनर
या मूर्खता
या दोनों

चींटी दिनभर समझती रहती है
भटकने के रस्ते
मिटाती है पुराने नक़्शे
और बनाती है नया नक्शा
कयी और नक्शों का

मेरा देश भी एक नक्शा है
कयी नक्शों का
जिसमे दबे हैं हर नक्शेकार के अनेक ख्याल
कुछ शहर, कई गाँव
बहुत सी सड़कें, नदियां 
थोड़ी खोखली मिट्टी और
चींटियों के अनगिनत घोंसले

कितना हसीन नक्शा है न

एक और चिकोटी
फिर भन्नाहट
किसी ने हमारा नक्शा बदलने की कोशिश की क्या?

तारों भरी रात की अनपढ़ कल्पना

हर शाम गाँव में एक आदमी
अँधेरा बन रात हो जाता है

रात जो बनाती रहती है
गाँव को एक कल्पित महल, रात भर

आदमी की अनपढ़ता
आदमी की कल्पना को जिन्दा रखती है

उस अनपढ़ को पसंद है तारों की बूंदे, तारों की हलचल
अपने चहरे पर

वो नहीं जानता के तारे क्यों टिमटिमाते हैं?

एक रात की तितली अपने पंख खोल कर बैठी
और एक शान्त तालाब का किनारा हो गयी

किनारा जिसके दोनों ओर प्रतिबिम्ब हैं एक दूसरे के, तितली से
किनारा जिसके दोनों काले पंख पर चाँद है, तारे हैं, चमकते हुए

वो नहीं जानता के तारे क्यों टिमटिमाते हैं?

वो बस मानता है की रात की ये तितली
किनारे पर बैठे पंख हिला रही है धीरे धीरे
और पैदा कर रही है टिमटिमाहट तारों की
आकाश में, तालाब में , सोने से पहले

तालाब में फिर कुछ हलचल हुयी 
एक छपाक के हिलकोरे भर से
वो तितली हवा में गुम गयी

वो आदमी एक दम शान्त
नींद भरी आँखों से
आंखे लगाए देखता रहा
तालाब के किनारे को
और इन्तेजार करता रहा
के रात की वो तितली फिर कब आ बैठें

वो चबाता रहा कच्ची सुपारी
ताकि कर सकें अपनी जुबान को और कच्चा
जिन्दा रख सकें अपनी कल्पना की गुंजाइश
और फिर कर सके उस कल्पित महल में
तारों भरी रात की अनपढ़ कल्पना


Saturday, January 28, 2017

खुद को बनाने खुदा

उड़ती पतंग का
कब्ज़ा लिया हुआ है
ऊँगली फंसा जो मांझा। ......

हाथों की लकीरें
मिटा चला है
खुद को बनाने खुदा। .......

उड़ती पतंग का
कब्ज़ा लिया हुआ है
ऊँगली फंसा जो मांझा। ......

हाथों की लकीरें
मिटा चला है
खुद को बनाने खुदा। .......
मिला नया बहाना
नाम है गवाना
अब के मौसम
खुद को है पाना


उड़ती पतंग का
कब्ज़ा लिया हुआ है
ऊँगली फंसा जो मांझा। ......

हाथों की लकीरें
मिटा चला है
खुद को बनाने खुदा। .......

मिला नया बहाना
नाम है गवाना
अब के मौसम
खुद को है पाना

आँखों के मंजर
अब है मिटाना
कोरे कागज सा
जहाँ है बसाना
ना कोई जमाना
ना कोई ठिकाना

बहुत सांसे ले चूका मैं
गले बातें भर चूका मैं
इस पूरे जहाँ में
कहीं पूरा ना मैं

फिजायें ना मिली सरफिरी
दुआ कब से है खड़ी

अरे अब मिटा भी दो मुझे
अच्छा चलता हूँ मैं परे

खोने भी दो
खोने भी दो
जाने मुझे
जाने भी दो
जाने भी दो
जाने मुझे
खो......