Thursday, June 15, 2017

एक छूरे को हाथ में रख कर

एक छूरे को हाथ में रख कर जी करता है
की हवा में उसे जोर से घुमाऊं
तेज धार का स्वाद चटाऊ
और तभी कूद आती है दुनिया जहाँ
फैला होता है दूर तक खून
और सब दुश्मन,
जिनसे मैं बिना जाने नफरत करता हूँ

क्योंकि एक छूरे को हाथ पे रख कर
जी करता है कुछ ऐसा
की मैं बन गया हूँ
योद्धा सत्य का
और सारे झूठ मुझपे हमला बोल रहे हैं
कर्त्तव्य से बंधा मैं
कत्ले आम कर रहा हूँ

क्योंकि एक छूरे को हाथ पे रख कर
पता नहीं क्यों ऐसा ख्याल नहीं आता
के मैं जमीन फाड़ कर
कुछ बीज बोऊँ
और उनसे नीलकले पेड़ों की लकड़ियों पर
गुदुं अमन की कवितायेँ

क्योंकि एक चूरे को
हाथ पे रख कर
कभी ऐसा जी नहीं करता की
काटूं ऐसी फसल
जो भर सके झोले पेट के
बना सके पर्याप्त श्रम
और कई और छूरे
फसल काटने के लिए

क्योंकि एक छूरे को
हाथ पे रख कर
मेरा जी बन जाता है एक शीशा
एक अक्स चमकाता
उस हुकूमत का
जिसने कब्ज़ा कर लिया है
मेरा अचेत संसार
वो आवाज सा जो गूंजती हो है
पर सामने नहीं आती
उस समाज सा
जो उगती हुई फसल सा
दिखाई तो देता है
पर उगता हुआ
महसूस नहीं होता

क्योंकि अब मुझे छूरे को उठाने भर से डर लगता है
के आखिर कोण सा ख्याल आ कर मुझे खा जाएँ

क्यों ? क्या आपको भी छूरा उठाने से डर लगता है क्या ?  

No comments:

Post a Comment