Monday, May 8, 2017

धरोहर - बाबा नागार्जुन

बाबा नागार्जुन का काव्य संग्रह अद्वितीय है इसमें कोई दो राय नहीं है । बाबा नागार्जुन का काव्य क्यों अनूठा था इस लेख में मैं इसकी चर्चा भी करूँगा। मगर इन सब कारणों से ज्यादा जरूरी एक सवाल ये भी है के आज के युग में कहाँ है नागार्जुन?

बाबा नागार्जुन की कविताओं की आवाज में फुहरपन है। इस बात को इस सदी के सभी आलोचक मानते हैं। कोई इसे गाओं का अल्हड़पन , बीहड़पन कहता है तो कोई खड़ी बोली का प्रभाव । इन सब का प्रमुख श्रोत मैथली और भोजपुरी के शब्दों का सचेत प्रयोग है। नागार्जुन का काव्य, लोक साहित्य के आँगन जैसा ही जो शहरों से भी दीखता है। नागार्जुन की ये कोशिश जन चेताना में प्रबल है, सफल है। निस्संदेह वो एक सफल जन कवी हैं। जन की बोली को जन चेतना से जोड़ते हैं। ऐसी कविताओं में वग्मिता का न होना असम्भव है । इन सब के ऊपर उनके कविताओं के बिम्ब उनके दर्शन से इतने विषम होते है के एक अटपटा सा आभास देते हैं। ये बिम्ब उनका एक ऐसा चित्रण करते हैं जिसमे वो एक विद्वान गवार से दीखते हैं। जिसने एक हाथ से कंधे पे रखे हल को थाम रखा है और दूजे से कलम को। जिसके मुख से निकले फुहार से सब्द सत्य की परिभाषा हैं। इन्ही कारणों से वो साहित्य में अनाथ से लगते है और शायद इसी लिय एक अलग काव्य शैली का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। एक ऐसी काव्य शैली जिसके चलते उन्हें अपने प्रारंभिक साहित्यिक काल में स्वीकृति प्राप्त करने में वक़्त लगा मगर अने वाले वक़्त में उस काव्यस्वर को एक अलग स्थान मिला। ऐसा स्थान जहां जहाँ श्रोता के रूप में पहुंचना सरल है मगर कवी के रूप में अत्यन्त कठिन।

नागार्जुन के साहितिक जीवन की शुरुवात एक "यात्री" के रूप में हुयी। उन्होंने भारत के अलग अलग हिस्सों में सफर किया और जीवन भर एक "यात्री" रहे । इस यात्री ने अनेक विचारधाराओं को स्वीकारा, परखा और त्यागा। अलग अलग आंदोलनों का हिस्सा बना। विचरदरओं में बह कर आखें बंद कर लेना उन्हें स्वीकृत नहीं था। इसी लिए जब भारत की डगमगाती वामपंथी विचारधारा से उनका पाला पड़ा तो उन्होंने सवाल करा -

क्या लाल ? क्या लाल?
मेरी रोशनाई लाल !
आपकी कलम लाल !
इनकी किताब लाल !
उनकी जिल्द लाल !
किसी के गाल लाल !
किसी की आँखे लाल !
क्या लाल ! वह लाल !

ऐसी अपने से साभिप्राय बहार जाने की प्रवृति ने उनके काव्य को विषम और विशाल बनाया। इस प्रवृति का ही असर है जो उन्हें प्रभुत्व आलोचक कवी के रूप में भी उभारता है। उन्हों ने  महात्मा गांधी, नेहरू, इंद्रा और जयप्रकाश तक तो अपनी कविताओं में फटकारा है। गांधीवाद से लिप्त भारत पर, महात्मा गांधी की सौवीं पुण्यतिथि पर कहते हैं

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!

सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!

ये छवि उनकी अनेक कविताओं में दिखती है। कभी इंग्लैंड की महारानी के भारत भ्रमण पर व्यंग करते हुए कहते है "आओ रानी " तो कभी बाल ठाकरे की राजनीती को ललकारते हुए बोलते है "बर्बरता की ढाल ठाकरे"। उनकी आलोचना का पैमाना इतना कठोर है की वो कभी कभी अपनी खुद की आलोचन भी करते हैं

प्रतिबद्ध हूँ, संबद्ध हूँ, आबद्ध हूँ लाख-लाख मुखड़ों के तरुण हुलास में…
आबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा आबद्ध हूँ!

उनकी आलोचन को ईधन देता है उनका व्यंग। नागार्जुन का व्यंग निर्भय है। नागार्जुन के व्यंग पर नामवर सिंह कहते हैं "व्यंग की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है "। कविताओं का छंदों में लिखा जाना और उसके ऊपर उपहासजनक व्यंग, लोरियों सा सुनाई पड़ता है। "बाकी बच गया अण्डा" और "अकाल और उसके बाद" जैसी कविताएं इसका प्रमाण हैं। यह कला उनके आलोचना को और निखारती हैं। यह  नागार्जुन ही हो सकते हैं जो एक कीचड़ से सनी "पैने दाँतों वाली" मादा सूअर को भारत माता की बेटी होने के दर्जा देते हैं। उसके इस अधिकार को आवाज देते हैं। वो ही हैं को जयप्रकाश के आंदोलन को "खिचड़ी विप्लव" कह सकते हैं। नागार्जुन भारत की परस्पर राजनीतिक विफलताओं पे वो धूमिल सा निराश नहीं होते, विचारधारा पर व्यंग से कमान कस्ते हैं। उनकी कविताओं से दैनीय से दैनीय स्तिथि उपहासनिय लगती है भरसक नहीं। इसका एक कारण उनके जीवन काल में हुए भारत के कई राजनैतिक प्रयोग भी हो सकते है। जिसने उनकी विचारधारा को एक बीहड़ सा आकर दे छोड़ा था। इन सब से उनकी कविता एक निरन्तर उत्पीड़न से तंग तबके के सूत से बंधी दिखाई पड़ती है।

वो न ही प्रगतिशील कवियों की श्रृंखला में आते हैं न ही नई कविता का हिस्सा लगते हैं, अनाथ से। फिर भी उन्हों ने अपने काव्य के साथ जितने प्रयोग एक जीवन में किये वो अतुलनीय है। उन्हें समकालीन आलोचकों द्वारा संत कबीर तक की उपमान दी गयी है।

तो आज के युग में कहाँ है नागार्जुन ? क्या वो तबका चला गया जिसका नागार्जुन पक्ष रखते थे या उस तबके में अब कोई नागार्जुन नहीं बचा या उस नागार्जुन को अब हम सुनना नहीं चाहते ? इन सवालों पर विमर्श जरूरी है। इस अंक में नागार्जुन की कुछ प्रसिद्ध कविताएं साझा कर रहा हूँ। उन्हें पढियेगा और इन सवालों के बारे में जरूर सोचियेगा।

पैने दाँतों वाली


धूप में पसरकर लेटी है

मोटी-तगड़ी,अधेड़,मादा सूअर…
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली !
लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुँहे छौनों की रग-रग में
मचल रही है आखिर माँ की ही तो जान !
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है !

पैने दाँतोंवाली…

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